Rajsharma Sex Story : प्यासी शबनम लेखिका रानू (Romance Special)
धूप और चढ़ रही थी परन्तु वन्दना की दृष्टि उस नवयुवक पर आकृष्ट होकर ठहर गई थी जो गंजे ताड़ के समीप अब तक खड़ा जाने क्या सोच रहा था। अचानक वन्दना ने देखा कि वह नवयुवक उसकी कोठी की ओर बढ़ रहा है। वन्दना ने उसमें रुचि नहीं ली, दोबारा भी वह पलट कर उतरती सीढ़ियों की ओर नहीं गई। नवयुवक जैसे-जैसे कोठी के समीप आता गया, वन्दना को ऐसा लगा जैसे उसने उस नवयुवक को कभी देखा है। कब? कहां? वह याद नहीं कर सकी तो अपने मस्तिष्क पर जरा जोर देने लगी। दोबारा भी कुछ नहीं याद आया तो वह अपना मन झटक कर नीचे जाने के लिए सीढ़ियां उतरने लगी। वह बीच के कमरे में पहुंची तो दरवाजों के परदों के बीच उसने देखा कि वह नवयुवक कोठी के बरामदे की सीढ़ियां चढ़ रहा है। वन्दना तुरन्तबाहर् निकल गई। नवयुवक उसके सामने पहुंचकर रुक गया। हट्टा-कट्टा नवयुवक, रंग सांवला था दोबारा भी उसके व्यक्तित्व मेंएक विचित्र ही आकर्षण था। काली घनी लटें, काली आंखें, घनी भवों के नीचे ये आंखें मुस्कराती चमक रखती थीं। उसके होंठों पर भीएक ज्यादा ही हल्की मुस्कान थी। इन गुणों के पश्चात् वन्दना को वह नवयुवक जरा भी बढ़िया नहीं लगा बल्कि उसके होंठों पर अपने प्रति मुस्कान देखकर उसे सख्त क्रोध आ गया। उसने अपने
मस्तक पर बल डालकर उस नवयुवक से सख्ती के संग पूछा, ‘किससे मिलना है?’ ‘आप जागीरदार साहब की पोती वन्दना ही हैं ना?’ नवयुवक ने वन्दना के रुष्ट बर्ताव की चिंता न करते हुए उसी मुस्कान से पूछा। ‘हां’, वन्दना ने उत्तर दिया। पूछा, ‘क्यों?’ ‘मैं---अमर हूं, अमर सिंह।’ नवयुवक ने अपना परिचय दिया। ‘अमर सिंह! कौन अमर सिंह?’ वन्दना मानो उसे जानती ही नहीं थी। ‘जी---’ अमर ने कहा, ‘मैं मोहन सिंह का लड़का हूं, वही मोहन सिंह जो आपके दादाजी के सेवक थे। मैं भी कभी इसी गांव में रहता था। माता-पिता की हत्या हो गई तो मैंइसे संसार में अनाथ रह गया हूं। आपके लंदन जाने के पश्चात मैं बम्बई चला गया था। वहींएक अंग्रेज शिकारी बाबू के यहां नौकरी मिल गई। अब शिकारी बाबू अपने देश पुनः चले गए तो अपने माता-पिता की बदले की भावना मुझे अपने गांव पुनः ले आई है। कल ही रात मैं गांव पहुंचा हूं। गांव के चाचा के यहां ठहरा हूं। वहीं से आपके विषय में पता चला तो ज्यादा दुःख हुआ। सोचता हूं कि मेरे पिता
आपके पिता के सेवक थेइसलिये अब क्यों न डाकू शेर सिंह तथा उसके आदमियों से मैं अपने संग आपका बदला भी ले लूं।’ ‘तुम्हें ज्ञात नहीं कि शेर सिंह कितना भयानक पुरुष है?’ वन्दना ने अमर के व्यक्तित्व को परखते हुए कहा, ‘जब पुलिस उसके अड्डे का पता नहीं चला सकी तो तुम क्या कर सकते हो?’ ‘जब तक यहां हूंइसे गांव में कम-से-कम आपके पिता की सुरक्षा का भार तो संभाल ही सकता हूं।’ अमर ने कहा। ‘बहुत विश्वास है अपने ऊपर?’ वन्दना ने व्यंग्यात्मक ढंग से पूछा, जैसे उसका मजाक बना रही हो। ‘बहुत अधिक।’ अमर ने पूरे विश्वास से मुस्कराकर कहा, ‘चाहें तो आप मेरी योग्यता की परीक्षा ले सकती हैं।’ तभी अंदर से उन दोनों का स्वर सुनकर ठाकुर नरेन्द्र सिंह बरामदे में आ गए। उन्होंने अमर को ज्यादा ध्यान से देखा, अपनी बूढ़ी आंखों पर जोर डालते हुए,इसे प्रकार, मानों पहचानने का प्रयत्न कर रहे हों। तभी अमर ने हाथ जोड़करउन्को नमस्कार किया और दोबारा अपना परिचय दे दिया। ठाकुर नरेन्द्र सिंह को अमर के पिता तुरन्त याद आ गए। उनके होंठों परएक ठंडी आह चली आई। वह वहीं बरामदे में
रखीएक कुर्सी पर बैठ गए। कमजोरी के कारण वह थोड़ी ही देर में खड़े-खड़े थक गए थे। उन्होंने अमर सिंह से उसका हाल-चाल पूछा। अमर नेउन्को भी बताया कि वह यहां से जाने के बादएक अंग्रेज शिकारी के यहां काम करता था। उनके संग वह ज्यादातर शिकार पर रहा करता था। संग रहते-रहते वह भी बन्दूक और रिवॉल्वर का अचूक निशानेबाज बन गया है। उसने अपनी जेब सेएक रिवॉल्वर निकाली।एक चमकती हुई विदेशी रिवॉल्वर - छोटी-सी, खिलौने समान, जिस पर ठाकुर नरेन्द्र सिंह की ही नहीं उनकी बेटी वन्दना की भी दृष्टि ठहर गई। उसने कहा, ‘एक बार मैंने उस अंग्रेज शिकारी की जान डाकुओं से बचाई थी। इसीलिए उन शिकारी बाबू ने मुझसे खुश होकर ये रिवॉल्वर हमेशा के लिए मुझे ही दे दी है। उसने रिवॉल्वर अपने हाथों में खिलौने समान नचाई। दोबारा रिवॉल्वर नरेन्द्र सिंह की ओर बढ़ा दी। नरेन्द्र सिंह ने रिवॉल्वर अपने हाथों में लिया। उनके निर्बल हाथों के लिए रिवॉल्वर भारी था। उन्होंने अपने कुर्ते की पॉकेट से अपना चश्मा निकाला। उसे आंखों पर लगाया। उलट-पुलट कर वह रिवॉल्वर को देखने लगे। रिवॉल्वर छोटी परन्तु असाधारण थी। रिवॉल्वरउन्को ज्यादा पसन्द आई।
‘दादाजी-’ तभी वन्दना ने ठाकुर नरेन्द्र सिंह से कहा, ‘इसे अपने उपरि कुछ ज्यादा ही विश्वास का भ्रम है। ये शेर सिंह से बदला लेना चाहता है। बल्कि गांव में रहकर हमारी सुरक्षा का भार संभालना चाहता है। इसे समझाइए कि ये क्यों अपनी जान का दुश्मन बना हुआ है।’ ‘तुम्हारे माता-पिता ने हमारी जान की रक्षा करते हुए अपनी जान की बाजी लगा दी थी।’ नरेन्द्र सिंह ने अमर को समझाया, ‘अब तुम भी हमारी जान की रक्षा करते हुए अपनी जान गंवाओ, ये हम नहीं सहन कर सकेंगे। आखिर तुम क्यों हमारे जिंदगी की सुरक्षा करने के लिए इतने इच्छुक हो?’ नरेन्द्र सिंह का स्वर कमजोरी के कारण कुछ कांप रहा था। ‘मैं आपके जिंदगी की सुरक्षा ही नहीं करना चाहता बल्कि शेर सिंह से अपने माता-पिता के संग आपका भी बदला लेना चाहता हूं।’ अमर ने कहा। ‘मेरा बदला?’ ‘जी हां।’ अमर ने कहा, ‘पिताजी ने अपने जीवनकाल में मुझसेएक बार कहा था कि बेटा यदि मैं जागीरदार साहब का बदला शेर सिंह से नहीं ले सकूंगा तो ये काम तुम अवश्य पूरा कर देना।’
ठाकुर नरेन्द्र सिंह की आंखों के सामने ही वह दृश्य नहीं आया बल्कि वन्दना के कानों में भी मोहन सिंह के वे शब्द गूंज गए जब उन्होंने कहा था, ‘यदि आपको कुछ हो गया जागीरदार साहब तो विश्वास कीजिए आपका बदला, यदि भगवान ने चाहा, तो मैं लूंगा -मैं। यदि मैं भी किसी कारण आपका बदला लेने में असमर्थ रहा तो मेरा बेटा आपका बदला लेगा।’ ठाकुर नरेन्द्र सिंह को अपने प्यारा सेवक, अपने दोस्त की उन बातों का मूल्य आज पता चल रहा था। मोहन सिंह मर गया था परन्तु अपने वचन को निभाने में उसने कोई कमी नहीं छोड़ी थी। उन्होंने अमर को ज्यादा ध्यान से देखा। कुछ समझ में नहीं आया कि अपने स्वार्थ के लिए वहइसे नवयुवक के जिंदगी को कैसे नर्क के रास्ते पर ढकेलें? ‘एक दिन आपकी पोती ने मुझे ईमानदारी की शिक्षा दी थी।’ अमर ने ठाकुर नरेन्द्र सिंह को असमंजस में देखा तो कहा, वन्दना कोएक बार देखने के बाद, ‘यह उसी शिक्षा का परिणाम है जिसने मुझमें तुरन्तएक नया आदमी बनने की लगन उत्पन्न कर दी थी। ये उसी लगन का परिणाम है जो आज मैं अपने पिता की इच्छा का आदर तथा आज्ञा का पालन करने के लिए आपकी सेवा का सौभाग्य प्राप्त करना चाहता हूं।’
वन्दना की आंखों के सामने वह दृश्य घूम गया जब उसने अमर को ताड़ के नीचे छाता लगाकर बैठे हुए ताड़ी चुराकर पीते देखा था। परन्तु वह उस शरारत भरी घटना याद करकेइसे गम्भीर अवसर पर मुस्करा नहीं सकी। आगे चलकर न सही, परन्तु अपने दादाजी के पासपोर्ट बनने तक तो उसे निश्चय हीइसे कोठी के लिएएक व्यक्तिगत रक्षक की सख्त आवश्यकता थी। ऐसा ही नरेन्द्र सिंह ने भी सोचा।उन्को अपने से ज्यादा अपनी बेटी के जिंदगी की चिंता थी। शेर सिंह के आक्रमण करने पर पता नहीं पुलिस कोठी कब तक पहुंचे? ‘जब तक तुम हमारी रक्षा करोगे तब तक हम अच्छे-से-अच्छा मूल्य वेतन के रूप में चुकाते रहेंगे।’ वन्दना ने कहा, ‘परन्तु जिस दिन तुम शेर सिंह से बदला लेने में संपन्न हो गए, जिस दिन तुम उसे जीवित या मुर्दा गिरफ्तार करने में संपन्न हो गए तो हम तुम्हें तुम्हारी मुंहमांगी कीमत भी अदा कर देंगे। परन्तु---’ वन्दना ने कुछ सोचकर पूछा, ‘इसका क्या सबूत है कि तुम हमारी सुरक्षा करने में वाकई संपन्न हो जाओगे?’ ‘इस बात का अनुमान आप मेरा कमाल देखकर लगा सकती हैं।’ अमर ने नरेन्द्र सिंह के हाथ में अपनी रिवॉल्वर देखते हुए कहा।
नरेन्द्र सिंह ने उसे रिवॉल्वर पुनः कर दिया। अमर को मानो अपना कमाल दिखाने के लिए चुनौती मिल चुकी थी। उसने रिवॉल्वर कोएक बार खिलौने के समान नचाया। दोबारा उसे अपनी जेब में रखकर कोठी के उजड़े लॉन में उतर गया। वह थोड़ा आगे बढ़ा तो उसका कमाल देखने के लिए वन्दना बरामदे के किनारे पर आकर खड़ी हो गई। नरेन्द्र सिंह वहीं बैठे-बैठे ही कमाल देखने के लिए इच्छुक हो गए। अमर ने लॉन में खड़े होने के पश्चात अचानकएक बड़ी चुस्ती दिखाई। उसने अपने बाएं हाथ द्वारा पैंट की बायीं जेब से लोहे काएक सिक्का निकाला और हवा में उछाल दिया, दोबारा उसी क्षणएक झटके से कमर को बल देकर उसने दाहिने हाथ द्वारा अपनी बायीं पॉकेट से रिवॉल्वर निकाली। इसी तेजी तथा फुर्ती के संग उसने हवा में उछले सिक्के पर अपनी रिवॉल्वर द्वाराएक गोली चला दी। धमाका हुआ और धमाके के संग गोली सिक्के पर लगी। ठन! सिक्का उपरि को उछला। अमर ने सिक्के पर गोली दोबारा चलाई। निशाना अचूक था। ठन के संग सिक्का दोबारा उछला। अमर नेएक और गोली चला दी।इसे बार सिक्का आड़ा होकर उछला। वह जमीन पर गिर जाना चाहता था कि अमर ने सिक्के परएक गोली और दाग दी। सिक्का
दूर जाकर गिर पड़ा। अमर ने रिवॉल्वर की नली अपने होंठों द्वारा फूंकी। दोबारा उसे अपनी पैंट की पॉकेट में रखा। उसके पश्चात उसने लपककर सिक्का उठा लिया। सिक्काएक ओर से टेढ़ा होकर फट गया था। सिक्का लिए अमर नरेन्द्र सिंह के पास आया। वन्दना तथा नरेन्द्र सिंह उसे बड़े आश्चर्य के संग फटी-फटी दृष्टि से देख रहे थे। अमर ने सिक्का नरेन्द्र सिंह के हाथ में थमा दिया। नरेन्द्र सिंह ने सिक्के को ज्यादा ध्यान से देखा। यदि उन्होंने वास्तव में ऐसा निशाना अपनी आंखों से नहीं देखा होता तो कभी ऐसे निशानेबाज के होने के विषय में वह सोच भी नहीं सकते थे। ऐसे निशानेबाज की गिनती तो सिर्फ अमेरिका के ‘काऊ बॉयज’ में 19वीं सदी में हुआ करती थी। जाने किस दबाव के अन्तर्गत ठाकुर नरेन्द्र सिंह को विश्वास हो गया कि ये नवयुवक ज्यादा काम का है। शायद ये उनकी अन्तरात्मा थी जिसनेउन्को विश्वास दिला दिया कि अमर उनके खानदान का बदला शेर सिंह से लेने में संपन्न हो जाएगा। उनके दिल के अंदर शेर सिंह से बदला लेने की ऐसी आग भड़क रही थी कि जिसे बुझाने के लिए वह किसी पर भी विश्वास करने को तैयार हो सकते थे। उस बाप के दिल के अन्दर कोई झांककर देखे कि उस पर क्या बीतती है जिसने अपना हंसता-खेलता एकमात्र तथा निर्दोष बेटा सिर्फ हत्या के कारण खो दिया है।
उन्होंने आशाओं कीएक किरण देखकर गहरी सांस ली। दोबारा बोले, ‘निश्चय ही तुम्हारे अन्दर ऐसा अचूक निशानेबाज देखकर मेरे अन्दर शेर सिंह से बदले की भावनाएक बार दोबारा जागृत हो उठी है। मुझे निस्संकोच तुम पर विश्वास करना भी चाहिए। परन्तु इसके लिए तुमको चौबीसों घंटे मेरी कोठी में ही रहना पड़ेगा। तुम्हेंइसे कोठी के अन्दर मेरे सैक्रेटरी वाला कमरा दे दिया जाएगा।’ अमर के लिए इससे बढ़कर और क्या बात हो सकती थी। उसने जो इच्छा नहीं की थी वह भी बिना मांगे पूरी हो गई। वन्दना को देखने के पश्चात तो उसमें वन्दना का व्यक्तिगत रक्षक ही बनने की इच्छा हुई थी। वन्दना के पास दिन-रात कोठी में रहने का उसे अवसर मिला तो उसने स्वयं को धन्य कहा। ‘बेटी-’ नरेन्द्र सिंह ने वन्दना को देखा। अमर के दिल में उमड़ती इच्छाओं से अनभिज्ञ उन्होंने वन्दना से कहा, ‘ऐसा करो, अब तुम अकेली ही लंदन चली जाओ। यहां रहकर मैं अबएक बार और अपने दिल के अन्दर बदले की भभकती ज्वाला को ठंडा करने का प्रयत्न करना चाहता हूं। मरने से पहले मेरी ये इच्छा पूरी हो जाएगी तो मैं ज्यादा शांति के संग दम तोड़ सकूंगा।’
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अमर अचानक उदास हो गया, वन्दना के लिए ही तो वहइसे कोठी में रहकर नरेन्द्र सिंह तथा वन्दना के जिंदगी का रक्षक बनने का इच्छुक हुआ था। बदला लेने के लिए तो वह शेर सिंह के जंगल में भी चक्कर लगाकर अपना टाइमकाट सकता था। अब वहइसे विषय में नरेन्द्र सिंह से क्या कहे? ‘आप लंदन नहीं चलेंगे तो भला मैं कैसे जा सकती हूं?’ वन्दना ने कहा, ‘आपकी देखभाल करने के लिए मेरा आपके पास रहना अत्यन्त आवश्यक है। चलिए मैं भी रुक जाती हूं। जाने की बात हम तब सोचेंगे जब आपका पासपोर्ट बनकर आ जाएगा। तब तक आप और स्वस्थ हो जाएंगे।’ वन्दना की बात सुनकर अमर के दिल में मुरझाता फूलएक बार दोबारा आशाओं की किरण देखकर मुस्करा दिया। कैसी आशाएं थींइसे किरण के पीछे? दिल के अन्दर ये कैसा फूल था जो वन्दना से बिछड़ने का आभास करके मुरझा चला था और न बिछड़ने के एहसास से मुस्करा रहा था? तभी वहां रिवॉल्वर के धमाके सुनकर गांववाले आ गए। पुलिसवाले भी लपक आए थे। ऐसा तो नहीं कि डाकुओं
ने नरेन्द्र सिंह की कोठी पर दोबारा आक्रमण कर दिया है? गांववालों को पुलिसवालों का ज्यादा सहारा था। उनके सहारे ही वे डाकुओं को मुकाबला करने को चले आए थे। पुलिसवालों के हाथों में बन्दूक थीं तो गांववालों के हाथों में लाठी। नरेन्द्र सिंह ने पुलिस की जांचपर इंस्पेक्टर को अमर के कमाल के निशाने के विषय में बताकर अपना लंदन न जाने का इरादा बताया तो सभी सन्तुष्ट होकर चले गए। नरेन्द्र सिंह को ही नहीं गांववालों को भी शेर सिंह जैसे लुटेरे से बचने के लिए अमर सिंह जैसे नवयुवक की सख्त आवश्यकता थी।
अमर को कोठी में रहते हुए कुछेक दिन बीत गए। इन दिनों उसने अपने निशाने का अभ्यास खूब जारी रखा। नरेन्द्र सिंह ने उसे रिवॉल्वर रखने कीएक पेटी भी दे दी थी। पेटी को कमर पर बांधकर इसमें दो रिवॉल्वर रखी जा सकती थीं। उन्होंने अमर को अपनी भीएक रिवॉल्वर अपने साथइसे पेटी में रखने के लिए दे दी। दोनों ही रिवॉल्वर का उपयोग अलग-अलग दोनों हाथों सेएक संग करने में अमर को कोई कठिनाई नहीं हुई। उसका निशाना सदा अचूक रहा। नरेन्द्र सिंह ने अमर कोएक बड़ी बन्दूक भी दे दी थी जिसे अपने संग अमर सिंह पलंग पर रखकर ही खटके की नींद सोया करता था। रात के टाइमहल्का-सा खटका होते ही वह बन्दूक लिए कोठी के चारों ओर चक्कर लगा लेता था। बन्दूक हाथ में होती और रिवॉल्वर कूल्हे पर पेटी के अन्दर। नरेन्द्र सिंह तथा वन्दना शयन-कक्ष का दरवाजा चारों ओर अन्दर से अच्छी तरह बन्द करके ही सोते थे। चौकी के पुलिसवाले रात के टाइमकोठी के चारों ओर विशेष चक्कर लगाते थे। अमर को नरेन्द्र सिंह से ज्यादा अब वन्दना की चिन्ता लगी रहती थी। रात के टाइमजब वह पलंग पर लेटता तो सिर्फ वन्दना के लिए ही सोचता रहता। वन्दना के मुखड़े
पर सदा छाई रहनेवाली गंभीरता तथा उदासीनता उसके दिल में उतर गई थी। वह सोचता कि बचपन में वन्दना कितनी भोली-भाली थी - बिल्कुलएक गुड़िया समान। उसकेएक ही बार कह देने से उसका अपना जिंदगी कितनी आसानी के संग बदल गया था। तब शायद अनजाने तौर पर ही उसका दिल वन्दना की इच्छा पूरी करने को उतावला हो गया था परन्तु अब जब वह वन्दना के इतना समीप रहने लगा तो उसके दिल में वन्दना के प्रति संवेदना ही नहीं, प्रेम का बीज फूट पड़ना स्वाभाविक था। परन्तु वह अपनी औकात का ध्यान रखते हुए सदा चुप ही रहा। वन्दना को अपने रोहित से प्रेम थाइसलिये अमर भी अपने प्रेम से खामोश प्रेम करता हुआ संतुष्ट हो गया। यही कारण था कि वन्दना के मुखड़े पर फूल जैसी मुस्कान लाने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार था। शेर सिंह से आमने-सामने टक्कर लेने के लिए उसकी बांहें सदा ही फड़कती रहती थीं। वन्दना को वह देखता तो चोर दृष्टि से, वन्दना की दृष्टि बचाकर। दोबारा भी जाने कैसे, शायद मनोवैज्ञानिक तौर पर या अपनी अन्तरात्मा द्वारा, जब वन्दना महसूस करती कि कोई उसे छिपकर देख रहा है तो वह पलट पड़ती थी, तब अमर तुरन्त दूसरी ओर दृष्टि फेरकर ऐसा प्रगट करता मानो उसके मन में वन्दना के प्रति कुछ नहीं है। वन्दना तब भी
अमर पर सन्देह करने लगती कि अमर के दिल में उसके जिंदगी की रक्षा करने की इच्छा होने के संग कुछ और भावना का लक्ष्य भी है। परन्तु ये सन्देह उसका अपना सन्देह था जिसे प्रकट करके या अमर सेइसे विषय में कुछ पूछ के वह उसकी दृष्टि में शक्की बनने का साहस नहीं कर पाती थी। क्या विदेश में, जिंदगी व्यतीत करने के पश्चात भी ऐसे सन्देह का शिकार होना उस पर शोभा दे सकता था जिसके विषय में वह कुछ भी तो नहीं जानती थी? आखिर अमरएक नवयुवक ही तो है। यदि उसे देख रहा था तो क्या हुआ? जाने उसके दिल में उसके प्रति कुछ है भी या नहीं? यदि वन्दना को अमर की नीयत पर किसी भी तरह का सन्देह हो वह निश्चय ही उसे निकालबाहर् करती और दोबारा पासपोर्ट मिलते ही अपने दादा नरेन्द्र सिंह को लंदन ले जाने पर विवश कर देती। यद्यपि उसके दादा को अमर पर ज्यादा विश्वास था,उन्को अमर से ज्यादा सारी आशाएं बंध गई थीं। परन्तु रोहित के प्रति अपना प्रेम दिल में कम न करते हुए वह अमर के समीपएक क्षण भी रहना नहीं पसन्द करती। अमर पर किसी तरह का सन्देह न करने काएक मनोवैज्ञानिक कारण ये भी था कि उसके दादाजी ने अपने जिंदगी में असीमित गम उठाए थे, निर्दोष होते हुए अगणित अत्याचार सहे थे। आखिर क्यों नहींउन्को अपने दिल की
भड़कती आग को ठंडा करने का अधिकार मिलना चाहिए। वन्दना स्वयं भी तो अपने पिता तथा अपने रोहित के जिंदगी के बदले की आग में सुलग रही थी। शेर सिंह से बदला लेने को वह कुछ भी करने को तैयार थी। परन्तु अपने प्रेम तथा अपने सम्मान की सुरक्षा की हद के अन्दर। अमर ने अपना कमाल दिखाकर वन्दना को दिल-ही-दिल में अनजाने तौर पर विश्वास दिला दिया था कि वह शेर सिंह तथा उसके आदमियों से बदला लेने का गुण रखता है। मन-ही-मन वह उसकी सराहना भी करती थी, परन्तु ये सराहना सिर्फ सराहना ही थी। अमर के लिए और किसी तरह का स्थान उसके दिल में नहीं था। स्थान था तो सिर्फ अपने रोहित के लिए, अटूट प्रेम का स्थान, अमिट प्रेम का स्थान। अमर सिंह की बहादुरी तथा गुणों की सूचना शेर सिंह को पहुंच गई। परन्तु उसने अमर सिंह की जरा भी परवाह नहीं की। बल्कि उसे खुशी प्राप्त हुई कि अब ठाकुर नरेन्द्र सिंह की सुन्दर पोती ने लंदन जाने के विचार में ढील दी है। यदि नरेन्द्र सिंह नहीं गया तो निश्चय ही उसकी देखभाल के लिए अब उसकी पोती भी नरेन्द्र सिंह के जीते जी लंदन नहीं जाएगी। उसने तय किया कि जब तक वह नरेन्द्र सिंह की पोती का अपहरण करके अपनी वासना की भूख नहीं मिटा लेगा तथा इसके संग ही नरेन्द्र सिंह को तमाम समाज में
अपमानित नहीं कर देगा तब तक नरेन्द्र सिंह की हत्या नहीं करेगा। परन्तु समस्या ये थी कि अब वन्दना का अपहरण किया कैसे जाए, क्योंकि गांव मेंएक पुलिस चौकी का प्रबंध सरकार कर चुकी थी। पुलिसवालों के रहते हुए गांव पर आक्रमण करना आसान नहीं था। परन्तु जल्दी शेर सिंह कीइसे समस्या को स्वयं ही हल होते ज्यादा देर नहीं लगी। जबएक दिन शहर में देश के प्रधानमंत्री का पहुँचना हो गया तब उनकी सुरक्षा के लिए शहर तथा आसपास और दूरदराज के गांव के पुलिसवालों को ड्यूटी अदा करने के लिए शहर के उस स्थान पर जाना पड़ गया जहां प्रधानमंत्री को अपना भाषण देना था। दुर्गापुर की पुलिस चौकी परइसे विशेष दिन सिर्फ दो ही पुलिसवाले रह गए जिसका पता जब शेर सिंह को हुआ तो उसने इसे सुनहरा अवसर समझकर पूरा लाभ उठा लेना आवश्यक समझा। मंगल का दिन था। शाम के साढ़े चार, पांच बजे होंगे। वन्दना गांव के मन्दिर से प्रसाद लेकर लौट रही थी। मन्दिर जाते टाइमउसके पीछे-पीछे अमर भी गया था परन्तु मंगल होने के कारण मन्दिर में गांववासियों की इतनी भीड़ थी कि अमर को भगवान का दर्शन प्राप्त करने तथा प्रसाद लेने में
कुछ देर हो गई। मंगल को भगवान के दर्शन प्राप्त करना आवश्यक था क्योंकि ये उसकाएक धर्म था। इसीलिए उसे मन्दिर में कुछ क्षणों के लिए रुक जाना पड़ गया। वन्दना जिस टाइमकोठी लौट रही थी उसे पूरा विश्वास था कि उसके पीछे-पीछे कुछ दूर पर अमर भी आ रहा है। चलते-चलते जब वह पुलिस चौकी से कुछ दूर गांव केएक निराले स्थान पर पहुंची तो अचानक घोड़ों की टाप सुनकर चौंक गई। वह गर्दन घुमाती हुई पलटी तभी कांपकर उसके बदन के रोम-रोम खड़े हो गए। उसकी ओर गर्दन उठाते हुए पांच घुड़सवार ज्यादा तेजी के संग बढ़ रहे थे। रंग रूप से ही घुड़सवार डाकुओं समान थे। दांत निकाल हंसकर वे अपनी जीत का प्रदर्शन कर रहे थे। वन्दना के हाथों से प्रसाद छूटकर नीचे गिर पड़ा। उसे तुरन्त अमर की आवश्यकता महसूस हुई। वहां से वह भाग निकली। ऐसा न हो कि वह डाकुओं की पकड़ में आ जाए। परन्तु तभीएक घुड़सवार डाकू ने उसे सामने से रोकते हुए तथा सावधान करते हुएएक हवाई गोली चला दी। डाकू ने उसे ही नहीं दूसरा आने-जाने वाले गांववासियों को भी सावधान कर दिया कि कोई उनके काम में बाधा न डाले वरना उसे मौत के घाट उतरतेएक क्षण भी नहीं लगेगा। गांववालों के कदम जहां-तहां कांपकर रुक गए, धरती से चिपक गए। वंदना भी कांपकर
घुड़सवार डाकू के सामने रुक गई। उसका रक्त बदन के अन्दर जमने लगा। यदि उसकी मौत सामने मंडराती तो वह आंखें बन्द करके स्वयं को मौत के आगे समर्पित कर देती परन्तु वह जानती थी कि ये डाकू उसका अपहरण करने आए हैं। उसकी हत्या करनी होती तो आते ही उस पर गोली चलाकर मार दिया होता। उसने इधर-उधर देखा ताकि भाग निकलने का अब भी कोई रास्ता मिल जाए। सहसएक सिपाही अपना कर्त्तव्य निभाता हुआ अपनी बन्दूक लिए तुरन्त आ पहुंचा, उसनेएक डाकू पर गोली चला दी। डाकू कंधे से घायल हो गया। सिपाही का साहस देखकर डाकुओं का रक्त उबल गया।एक डाकू ने सिपाही की छाती पर अपनी बन्दूक द्वाराएक अचूक निशाना बनाया और गोली दाग दी। सिपाही तड़पकर वहीं गिर गया। बन्दूक उसके हाथ से छूटकर दूर जा गिरी। गांववाले तथा वन्दना सन्न रह गए।एक डाकू घायल सिपाही के पास आया। वह अपने घोड़े से उतरा। घोड़े की जीन पर टंगी उसनेएक रस्सी निकाली। रस्सी काएक फन्दा बनाकर उसने घायल सिपाही के दोनों पैरों को मिलाकर बांधा। दोबारा उसने घायल सिपाही की बन्दूक उठाई। रस्सी का दूसरा कोना लिए वह अपने घोड़े पर सवार हुआ। तभी दूसरे सिपाही ने चौकी से निकलना चाहा परन्तु डाकुओं का
अत्याचार देखकर वह आगे बढ़ने का साहस नहीं कर सका। जिस डाकू ने अधमरे सिपाही को अपनी रस्सी द्वारा बांधा था, उसने अपने घोड़े को ऐड़ लगाई। घोड़ा तेजी के संग आगे बढ़ा। इसके संग ही रस्सी से बंधा अधमरा सिपाही घोड़े के संग खिंचकर जमीन पर रगड़ खाने लगा। वह घुड़सवार डाकू सिपाही को खींचते हुए तथा उसका बदन जमीन पर रगड़ते हुए वहीं आसपास तेजी से चक्कर लगाने लगा। गांववासियों ने ये अत्याचार देखा तो उनके बदन के रोंगटे खड़े हो गए। स्त्रियों और पुरुषों ने अपनी-अपनी सन्तानों को छाती से लगा लिया। वन्दना भी ऐसे अत्याचार को सहन नहीं कर सकी। उसने अपनी आंखें बन्द कर लेना चाहा। दिल की धड़कनइसे टाइमसिर्फ अमर को ही पुकार रही थी। शायद इसीलिए अमर उसके दिल की आवाज गोली केएक धमाके के रूप में वहां आ गया। गोली चली थी परन्तु डाकुओं पर नहीं, घोड़े से बंधी उस रस्सी पर जिसके दूसरे किनारे पर बंधा सिपाही जमीन से निरन्तर रगड़ खाते हुए रक्त में नहाने के पश्चात अब किसी भी टाइमअपना दम तोड़ने ही वाला था। रस्सी कट गई तो सिपाही ने रस्सी के बंधन से मुक्त होने के पश्चात अपना दम तोड़ दिया। रस्सी वाला घुड़सवार डाकू चौंककर रुक गया। दूसरा डाकुओं ने अमर का साहस देखा तो अपनी गोली द्वारा
उसे भी निशाना बनाकर सिपाही जैसी सजा देना चाही परन्तु अमर उनकी समझ से आगे था - फुर्तीला अलग। वह पहले ही खतरे के लिए तैयार था। उसने तुरन्त झुकते हुए दो गोली अपनी अलग-अलग रिवॉल्वर द्वारा दोनों हाथों सेएक संग चलाकर दो डाकुओं के हाथों को घायल कर दिया और उनकी बन्दूकें नीचे गिरा दीं। इसके संग ही वह तुरन्त जमीन पर लेट गया और बिजली के समान करवटें लेकर आगे बढ़ते हुए दो गोलियां दोनों हाथों सेएक संग दोबारा चलाईं। पांचवीं गोली द्वारा उसने पांचवें डाकू को भी घायल करके जमीन पर ढेर कर दिया। चार डाकू जमीन पर लाश बनकर तड़प रहे थे परन्तु पांचवां डाकू हाथ से बन्दूक छूटने के पश्चात् घायल होकर अपने घोड़े पर सवार था। उसे सख्त क्रोध आया कि गांव केएक छोकरे ने पांच बहादुर डाकुओं को अपनी बहादुरी का शिकार इतनी आसानी से बना लिया। ऐसा तो वह कभी स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था। अमर अभी पूर्णतया खड़ा भी नहीं हुआ था कि उस घुड़सवार डाकू ने वन्दना को ले भागना चाहा। घोड़े को ऐड़ लगाकर वह वन्दना की ओर लपका। वन्दना अमर की ओर भाग खड़ी हुई। अमर के खड़े होते-होते वन्दना उसकी छाती से लिपट गई। डाकू ने अपना घोड़ा अमर पर चढ़ा देना चाहा परन्तु अमर के दोनों हाथों में अब भी रिवॉल्वर
थीं। उसने वन्दना को अपनी छाती में समाने के पश्चात्एक गोली डाकू की छाती तथा दूसरी गोली दूसरे हाथ द्वारा घोड़े के मस्तक पर मार दी। घोड़ा अमर तथा वन्दना के बदन पर चढ़ते-चढ़ते नहीं उनके समीप ही गिरकर ढेर हो गया। डाकू भी मर चुका था।एक सन्नाटा-सा छा गया। वन्दना अब भी अमर की छाती से बुरी तरह लिपटी हुई थी, उसकी बांहें अमर की गर्दन का हार बनी सख्त थीं। उसकी सांसें तेज-तेज चल रही थीं। दिल की धड़कन ज्यादा तेज होकर मानो अमर की छाती में समा जाना चाहती थी। वन्दना की आंखें बन्द थीं। बदन अब तक हल्के-हल्के कांप रहा था। अमर का मन हुआ वन्दना इसी तरह उसकी छाती से लगी रहें उसकी बांहें उसके गले का हार सदा इसी तरह बनी रहें। परन्तु तभी घोड़े की टाप सुनकर वह चौंक गया, उसने देखा किएक डाकू घायल होने के पश्चात् घोड़े पर सवार होकर भाग रहा है। अमर का मन हुआ कि वह डाकू का पीछा करे परन्तु वन्दना की बांहें उसके गले का हार ही नहीं बनी थीं बल्कि वन्दना के सारे बदन का स्पर्श उसके कदमों की बेड़ियां बन गई थीं। मन करता था कि टाइमअपने स्थान पर ठहर जाए। वन्दना उससे कभी अलग न हो। ये क्षण कभी न बदले। परन्तु गांववालों का हंगामा सुनकर वन्दना को समझते देर नहीं लगी कि डर निकल चुका है।
उसने अपनी आंखें खोलकर देखा। गांववाले घायल दो डाकुओं पर काबू पा चुके थे। दो मौत के घाट भी उतर चुके थे। उसने अपनी स्थिति का अहसास किया। उसे लाज-सी आई। वह तुरन्त अमर से अलग हो गई। उसका अहसान चुकाने के लिए वह अमर से नजर भी नहीं मिला सकी तो वह अपनी कोठी की ओर चल पड़ी। अमर ने अपनी दोनों रिवॉल्वरों का निरीक्षण किया। उनमें खाली जगहों पर गोलियां भरीं। दोबारा रिवॉल्वरों को पेटी में रखकर वह वन्दना के पीछे-पीछे चल पड़ा। आज उसे सन्तोष था, खुशी थी तथा गर्व भी था कि वह अपनी परीक्षा में खरा उतरते हुए वन्दना के काम आ गया। वन्दना के ही क्यों, उसकी रक्षा करके वह ठाकुर नरेन्द्र सिंह की लाज बचाने के भी काम आ गया था। वन्दना का विश्वास अब अमर पर और दृढ़ हो गया। दिल की धड़कनों ने मानो चुपचाप उसे बता दिया कि अमर से बढ़िया रक्षक उसे जिंदगी भर नहीं मिल सकता। अमर जब उसके पीछे-पीछे कोठी पहुंचा तो वन्दना ने उससे आज की कृपा के लिए कृतज्ञ होकर दो शब्द कहना भी चाहा, चाहा कि उसके कमाल की भी वह तारीफ करे, परन्तु जब अमर उसकी दृष्टि के सामने पड़ा तो वह कुछ भी नहीं कह सकी। बल्कि उसकी ओर न देखते हुए उसने अपनी पलकें भी नीचे
झुका लीं।इसे खामोशी के पीछे क्या मतलब था? वन्दना न जान सकी न उसने जानने का प्रयत्न ही किया। बल्कि उसने सोचा, काश आज रोहित जीवित होता तथा अमर द्वारा वह अपनी वन्दना की जान तथा लाजइसे कमाल के संग बचता देखता तो निश्चय ही अमर को गले से लगाकर सारी जिन्दगी वह अमर के एहसान से दब जाता। अमर ने ठाकुर नरेन्द्र सिंह के पास तुरन्त जाकरइसे विषय में बताने की कोई आवश्यकता नहीं महसूस की थी। उसके लिए मानो ऐसे डाकुओं को अकेले पराजित करनाएक साधारण-सी बात थी। इसके अतिरिक्त अपने मुंह से सभी कुछ नरेन्द्र सिंह को बताकर वह मियां मिट्ठू बनने के पक्ष में नहीं था। वह कोठी की सबसे ऊपरी मंजिल पर चला गया। वहां से वह गांव का वह तमाशा देखने लगा जो गांववासी घायल डाकुओं को पकड़कर कर रहे थे। डाकुओं के घायल होने के पश्चात् गांववासीउन्को हाथ-पैर से रस्सी द्वारा बांधकर गधे पर उल्टा बिठाए मैदान के चक्कर लगा रहे थे। डाकुओं के मुंह पर उन्होंने कालिख पोत दी थी। ठाकुर नरेन्द्र सिंह को वन्दना स्वयं ही आज की घटना बताने के लिए उनके कमरे में पहुंची तो ठाकुर साहब ज्यादा बेचैन थे। एकाएक अनेक गोलियों के धमाके उनके कानों तक भी आए थे जिन्हें सुनकर वह वन्दना के लिए चिंतित
हो उठे थे। यद्यपि अमर के आ जाने से पिछले दिनों उनके स्वास्थ्य में बहुत निखार आया था दोबारा भी आयु ज्यादा होने के कारण वह इतनी दूर पैदल चलकर घटनास्थल पर तुरन्त नहीं पहुंच सकते थे। अपनी भारी बन्दूक उठाकर चलने योग्य तो वह जरा भी नहीं थे। दोबारा भी धमाके का स्वर सुनकर वह अनेक बार कोठी के बरामदे तक आए थे। और जब हांफ गए थे तो भगवान से वन्दना की सलामती की कामना करते हुए अन्दर पलंग पर जाकर लेट गए थे। इसके अतिरिक्त अमर वन्दना के संग गया हुआ थाइसलियेउन्को ज्यादा सहारा मिल रहा था। ऐसी स्थिति में वह सब्र करने तथा स्वयं को सन्तोष देने के अलावा कर भी क्या सकते थे? वन्दना जब उनके कमरे में पहुंची तो उसे देखकर उनके दिल को बड़ा सन्तोष मिला। वह तुरन्त उठकर बैठ गए। वन्दना नेउन्को तुरन्त बता दिया कि अभी-अभी गांव में क्या घटना घटी है। उसने जब अपने दादाजी को विस्तारपूर्वक बताया कि अमर ने अकेले शेर सिंह के भयानक डाकुओं का मुकाबला करते हुए किस साहस तथा किस कमाल के संग उसकी जान बचाई है तो उनका दिल अमर के पिता मोहन सिंह की दोस्ती पर कृतज्ञ होकर झुक गया। अमर को भी उन्होंने दिल की गहराई से आशीर्वाद दिया। अमर
एक रक्षक के रूप में उनके लिए अवतार बन गया। उनके विश्वास की पुष्टि हो गई किइसे अवतार के रहते हुए उनका अब कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। अमर अब शेर सिंह का मुकाबला ही नहीं करेगा बल्कि उनके एकमात्र बेटे की मृत्यु का बदला भी लेने में संपन्न होगा। वह अपने माता-पिता की हत्या का बदला लेकर भी उनकी आत्मा को शांति का साधन पहुंचाएगा। बदले की पूर्ति होने के पश्चात गांव के उन सभी पुरुषों की आत्मा को शांति प्राप्त हो जाएगी जिन्होंने डाकू शमशेर सिंह तथा उसके बेटे शेरसिंह के आदमियों से अपनी बहन बेटियों की लाज बचाने में जान गंवा दी थी। वन्दना के होंठों द्वारा अमर की तारीफ भरी सच्चाई सुनकर ठाकुर नरेन्द्र सिंह अमर से मिलने के लिए अधीर हो उठे। वन्दना द्वारा ही उन्होंने अमर को अपने पास बुलवाया। अमर आया तो उन्होंने उठकर उसे तुरन्त अपने गले से लगा लिया। प्रसन्नता केइसे जोश ने उनके अन्दर दोगुनी ताकत भर दी थी। कमजोरी मानोएक ही झटके में उनसे दूर भाग गई थी। प्रसन्नता का प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर कभी-कभी दवा से भी ज्यादा बढ़िया पड़ता है। उन्होंने अमर से कहा, ‘शाबाश बेटा, शाबाश। आज तुमने अपने बहादुर पिता की लाज रख ली। काश वह आज का तमाशा देखने
के लिए जीवित होते तो कितना बढ़िया होता! भगवान सदा तुम्हारे संग रहे। तुम्हें अत्याचार तथा अन्याय के खिलाफ मुकाबला करने की शक्ति वह सदा इसी तरह प्रदान करता रहे।’ अमर ने वन्दना को नरेन्द्र सिंह के कन्धे पर पलकें उठाकर देखा। वह उसी को देख रही थी। उसकी बड़ी-बड़ी पलकों में तिरछी दृष्टि थी। अमर की दृष्टि मिलते ही उसने अपनी पलकें दूसरी ओर फेर लीं। दिल के अन्दर वह अवश्य अमर की कृतज्ञ थी, परन्तु उसका मुखड़ा गम्भीर था। होंठों परएक हल्की-सी मुस्कान भी नहीं कांपी। शायदइसलिये कि उसकी सारी मुस्कान रोहित के लिए सुरक्षित थी, रोहित के लिए ही उत्पन्न हुई थी तथा उसी के लिए मर भी गई थी, रोहित की हत्या के संग ही। उस रात वन्दना जब अपने दादा के कमरे में पलंग पर निद्रा के लिए लेटी तो ज्यादा देर तक वह सिर्फ अमर के ही विषय में सोचती रही। अमर के असाधारण गुण तथा उसके साहस ने अमर का व्यक्तित्व उसकी दृष्टि में बढ़ाकर उसे पहले से भी कहीं ज्यादा प्रभावित कर दिया था। परन्तु प्रभावित होने का ये अर्थ नहीं था कि उसके दिल में अमर के प्रति प्रेम की कोई चिंगारी उत्पन्न हो गई हो। रोहित से उसका प्रेम अटल था। मन-ही-मन वह तय किए बैठी थी
कि वह रोहित की याद छाती में लिए सारा जिंदगी व्यतीत कर देगी। ये उसके दिल की भावना थी या वह जबरदस्ती स्वयं को ऐसा विश्वास दिला रही थी, वह नहीं जान सकी। वह मानो अपने दिल की इच्छा के खिलाफ अज्ञात तौर पर ऐसा सोच रही थी क्योंकि रोहित उसका एकमात्र प्रेम था। अब तक तो ऐसी ही बात थी। कल क्या होगा उसने सोचने की चिन्ता ही नहीं की। अपने कमरे में पलंग पर लेटा अमर भी करवटें बदलते हुए वन्दना के विचारों में ही तल्लीन था। वन्दना का स्पर्श अब भी उसकी बांहों को गर्म किए हुए था। छाती में अब भी वन्दना के दिल की तेज धड़कनें समाई हुई थीं। वह सोच रहा था, क्या ये सम्भव है कि वन्दना भीइसे टाइमउसी के विषय में सोच रही हो? शायद हां। शायद नहीं। बल्कि बिल्कुल भी नहीं वह उसके बारे में क्यों सोचेगी। वह तो अपने प्रेमी के विचारों में तल्लीन होगी। उसी का बदला लेने के लिए तो वन्दना लन्दन पुनः नहीं गई और उसके आगे हर तरह की शर्त स्वीकार करने का वचन देते हुए उसने उसे अपना रक्षक स्वीकार किया है। वन्दना को तो उसी टाइमशान्ति मिलेगी जब वह शेर सिंह से उसके रोहित का बदला ले लेगा। तभी वन्दना उसकी मुंहमांगी कीमत चुकाने को तैयार हो जाएगी। मुंहमांगी कीमत प्रेम के रूप
में अदा कर सकेगी? प्यार? क्या प्रेम का भी कोई सौदा होता है? शायद प्रेम का सौदा होते-होते भी प्रेम अपनी कीमत भूलकर वास्तविक प्रेम में परिवर्तित हो जाता है। अमर इन्हीं विचारों में तल्लीन था। दोबारा भी उसे सन्तोष था कि उसका खामोश प्रेम आखिर आज रंग लेकर ही रहा। डाकू आ गए और वन्दना उसकी छाती से लिपट गई। काश,इसे तरह डाकू रोज आया करें और वन्दना हर दिन बल्कि हर क्षण उसकी छाती में समाई रहे तथा बांहों के मध्य लिपटी रहे तो कितना बढ़िया हो। अगले दिन नदी किनारे उस डाकू की सर कटी हुई लाश पाई गई जो किसी तरह गांव से निकल भागने में संपन्न हो गया था। शेर सिंह कभी अपने आदमियों की असफलता स्वीकार नहीं करता था। क्षमा भी नहीं करता था बल्कि दंड में मृत्यु देनाएक साधारण-सी बात समझता था। शेर सिंह के आदमियों को आज्ञा थी कि उसका जो भी आदमी असफल लौटे उसे अड्डे में प्रवेश करने से पहले ही मृत्यु के घाट उतार दिया जाए। हां,इसे विशेष असफलता ने उसे क्षण भर के लिए चिंतित अवश्य बना दिया। ऐसा कौन आदमी ठाकुर नरेन्द्र सिंह ने पाल लिया है जिसने उसके खतरनाक डाकुओं को अकेले परास्त कर दिया? उसने जल्दबाजी से काम न लेकर दूरदर्शिता से काम लिया जैसा
कि उसका स्वभाव था। वन्दना का अपहरण करने के लिए उसने कुछ दिन सब्र कर लेना बुद्धिमानी समझी। पुलिसवालों ने हाथ लगे घायल डाकुओं पर सख्ती करके, मार करके, परेशान करके, किसी भी तरह शेर सिंह के अड्डे का पता चलाना चाहा परन्तु संपन्न न हो सके क्योंकि डाकुओं को स्वयं अड्डे का पता नहीं था। पुलिस उनकी मदद के जरिए सुरंग के अन्दर सिर्फ वहीं तक पहुंच सकी जहां से उनकी आंखों पर पट्टियां बांधकर डाकुओं के आदमीउन्को शेर सिंह के अड्डे तक ले जाते थे।
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पुलिसवालों के साथ् अमर भी गया था परन्तु उसे हैरानी थी कि सुरंग के अन्दर डाकू किस तरह और कहां चले जाते हैं क्योंकि बिल्कुल सीधे जाने पर करीब सभी सुरंगें आपस में गुत्थमगुत्था होकर नदी-किनारे निकलती थीं। दोबारा भी अमर ने शेर सिंह के अड्डे का पता लगाने की अवश्य ठान रखी थी। आखिर कभी तो ऐसा मौका जरूर हाथ आएगा जब वह शेर सिंह को जिन्दा या मुर्दा गिरफ्तार करने में अवश्य संपन्न होगा। ये मानो उसके जिंदगी का एकमात्र लक्ष्य बन गया था, शायदइसलिये ताकि वह वन्दना की इच्छा के खिलाफ वन्दना के दिल में प्रेम का ज्यादा न सही थोड़ा-सा ही स्थान प्राप्त कर सके। ये थोड़ा-सा स्थान आगे चलकर उसके दिल में सदा के लिएएक बड़ा स्थान उत्पन्न
कर लेगा, ऐसी आशा उसने की, क्योंकि वन्दना ने उसकी छाती से लगकर उसके दिल में दबी प्रेम की चिंगारी को भड़का कर शोला बना दिया था। ये शोला कब बुझकर ठंडा होगा, होगा भी या नहीं, उसने इसकी चिन्ता नहीं की। कुुछएक दिन और बीत गए। गांव में शांति छाई रही।एक सिपाही की मृत्यु के कारण चौकी में पुलिसवाले और ज्यादा तैनात कर दिए गए थे। परन्तु गांव की शांति में ठाकुर नरेन्द्र सिंह बिल्कुल सम्मिलित नहीं थे। उन्होंने सोचा अब लेकिन गांव की पुलिस चौकी में इतने ज्यादा पुलिस के पुरुष तैनात हैं तथा उनके स्वयं के पास भी अपनाएक गुणी तथा साहसी रक्षक उपस्थित है तो शेर सिंह के आदमियों को आसानी से गांव में आने का साहस भला कैसे होगा?इसे स्थिति में वह अपना बदला भी शेर सिंह से किस तरह ले सकेंगे? वन्दना अब जब भी अमर को देखती तो उसके बदन मेंएक झुरझुरी-सी आ जाती। वह सोचती, क्यों उस दिन अमर की छाती से बुरी तरह लिपट गई थी? रात में जब भी वह अपने पलंग पर होती तो अमर की छाती से लिपटने का दृश्य उसकी आंखों के सामने घंटों छाया रहता। रोहित को याद करने के पश्चात् वह अमर के संग उसकी बांहों में समा जाने का दृश्य नहीं भूल पाती थी। ऐसा लगता था मानो
उसकी इच्छा के खिलाफ अमर उसके मस्तिष्क की खिड़की खोलकर उसके दिल के अन्दर झांक लेता है। तब वह अपनी आंखों को सख्ती के संग बन्द कर लेती। अमर तब भी उसके दिल और दिमाग से नहीं उतरता। आखिर ऐसा क्यों हो रहा था? क्यों? वह स्वयं नहीं समझ पाती। क्या ये उसकेएक नए प्रेम का प्रारम्भ तो नहीं है? क्या अपने प्रेमी की हत्या के पश्चात उसेएक नया जिंदगी प्रारंभ करने का अधिकार पहुंच सकता है? क्या वह कभी रोहित को, रोहित का प्रेम अपने दिल से निकालने में संपन्न हो सकेगी? नहीं। कभी नहीं। रोहित जीवित नहीं रहा तो क्या हुआ परन्तु उसका प्रेम उसके दिल में सदैव जीवित रहेगा। वह रोहित को, उसके प्रेम को कभी धोखा नहीं देगी। नारी का पहला प्रेम ही आखिरी प्रेम होता है। वह नारी ही क्या जो पहला प्रेम भुलाकर दूसरा प्रेम कर बैठे? वन्दना ऐसी बातें सोचकर अपने दिल को तसल्ली देना चाहती थी। कोई हद तक वह ऐसा करने में संपन्न भी थी। परन्तु अमर का विचार उसके मस्तिष्क का पीछा नहीं छोड़ रहा था। इसके पीछे क्या भेद था वह स्वयं नहीं समझ पाती थी। औरएक रात नींद में वन्दना के आगे मानो वह भेद स्वयं ही खुल गया। यहएक सपना था जो वहदेख्ना चाहती थी अपने रोहित के लिए, परन्तु अमर ने सपने में भी उसके
मस्तिष्क की खिड़की खोलकर अपने लिए स्थान बना लिया। सपनों पर किसका अधिकार रहा है? उसने सपने में देखा किएक बार दोबारा शेर सिंह के डाकुओं ने उसका अपहरण करने का प्रयत्न किया है। उसकी सुरक्षा करते हुए अमर बुरी तरह घायल हो गया, परन्तु दोबारा भी उसने अपहरण करते डाकुओं का अपने घोड़े द्वारा पीछा करना नहीं छोड़ा ओर अंत में उसे बचाने में संपन्न हो ही गया। उसे कोठी लाते टाइमअमर पर गश छा रहा था। कोठी के मुख्य दरवाजा में जैसे ही उसने प्रवेश किया, वह घोड़े पर से नीचे गिरकर बेहोश हो गया। वन्दना तुरन्त घोड़े पर से नीचे उतरती हुई चीख पड़ी। ठाकुर नरेन्द्र सिंह तथा गांव के दूसरा वासियों के संग पुलिस भी वहां पहले से ही उपस्थित थी। वन्दना चीखकर अमर से लिपट गई। फूट-फूट कर वह रो पड़ी। चीखकर ही उसने कहा, ‘नहीं---नहीं-’ वह और तेजी के संग चीखी। तड़पकर वह बोली, ‘मैं तुम्हेंइसे तरह हरगिज नहीं जाने दूंगी। तुम मुझेइसे तरह छोड़कर नहीं जा सकते, तुमने मेरी सुरक्षा की है, मेरी जान, मेरी लाज बचाई है---तुम्हें मेरी, मेरे खानदान की लाज बचाने तथा सुरक्षा करने की कीमत लेनी ही पड़ेगी। बोलो-’ वन्दना ने अमर की घायल तथा रक्त से डूबी छाती को उसके कपड़े से पकड़कर बुरी तरह तड़पकर झिंझोड़ दिया। दर्द में डूबी
चीख के संग उसने अपनी बात जारी रखी, ‘बोलो, तुम्हें अपनी कीमत में क्या चाहिए? बोलो। वन्दना अमर की छाती को पूरी ताकत से झिंझोड़ती हुई और भी तेजी के संग चीख पड़ी। उसकी दर्द भरी चीख सुनकर समीप खड़े लोगों का दिल फट गया। और तभी अमर की दम तोड़ती सांसें मानो क्षण-भर के लिए पुनः आ गईं। उसने पूरी ताकत से अपने मस्तक पर बल डाला। आंखें भींचीं। उसके होंठों की हल्की-सी जुम्बिश हुई परन्तु होंठ कुछ कहने को खुल न सके। उसने अपना हाथ वन्दना की ओर बढ़ा दिया। उसकी हथेली रक्त से रंगी हुई थी, दोबारा भी वन्दना को ज्ञात हो गया कि अमर ने उससे उसकी सुरक्षा की कीमत में क्या मांगा है। वन्दना ने सभी कुछ भूलकर उसकी हथेली में अपना हाथ रख दिया। दोनों हाथों से उसकी रक्त भरी हथेली को उसने अपने गालों पर रख लिया। तभी अमर की बांह ढीली होकर झूम गई। वन्दना अमर की छाती पर सिर रखकर फूटती हुई रो पड़ी। अचानक जाने कैसे, शायद सपने में गर्म की अधिकता के कारण, शायद सपने में तड़प की अधिकता के कारण वन्दना की आंखें खुल गईं तो वह चौंक गई। उसकी आंखें आंसुओं से तर थीं। गाल भी आंसुओं से भीगे हुए थे। कानों के गड्ढों में आंसुओं की बूंदें एकत्र थीं। होंठों पर सिसकियां
अब भी कांप रही थीं। वह तुरन्त घुटनों को उपरि समेटती हुई उठ बैठी। कानों के गड्ढों में एकत्र आंसू धार बनकर गर्दन के दोनों ओर बहने लगे। उसने वास्तविकता का आभास किया परन्तु सपना मानो दिल परएक छाप बन चुका था। अपने हाथों को उसने घुटनों के चारों ओर समेटा। दोबारा घुटनों के मध्य मुखड़ा छिपाकर वह फूट-फूट कर रो पड़ी। उप्फ़! या भगवान! ये क्या हो गया? क्या उसके सपने में कोई वास्तविकता तो नहीं छिपी है? दिल और दिमाग की वास्तविकता? प्रेम तो वह रोहित को करती है - सिर्फ अपने रोहित को, दोबारा सपने में अमर के लिए क्यों तड़प उठी? क्यों उसकी छाती पर सिर रखकर सिसक पड़ी? प्रेम के रूपएक नहीं अनेक होते हैं। दोबारा ये उसके प्रेम का कैसा रूप था? वन्दना उसी तरह अपनी बांहों के बीच मुखड़ा छिपाए तथा घुटनों में मुखड़ा धंसाए ज्यादा देर तक चुपके-चुपके आंसू बहाती रही, सिसकती रही। ये आंसू किसके लिए थे? कौन इन्हें पोंछने वाला था? रोहित? वह तो अबइसे संसार में रहा ही नहीं। अमर? उसे स्वयं नहीं मालूम। अचानक वन्दना के कानों में पक्षियों की चूं-चूं सुनाई पड़ी। उसने सिर उठाकर रोशनदान की ओर देखा। सुबह की पौ फट चुकी थी। दूधिया वातावरण झलक रहा था।
उसने गर्दन घुमा कर दूसरे पलंग की ओर देखा। उसके दादा बूढ़ी नींद सो रहे थे। वन्दना ने अपनी अंगुलियों द्वारा अपनी भीगी पलकें पोंछीं। हथेली द्वारा गालों को भी पोंछा। गर्दन पोंछी। दोबारा पलंग से पांव लटकाने के पश्चात वह अपनी मखमली चप्पल पहनती हुई उठ खड़ी हुई। दो सुबह का टाइमथा। सूर्योदय अब तक नहीं हुआ था परन्तु उसकी सफेदी दूर-दूर तक छिटकी हुई थी। अमर कोठी के उजड़े लॉन मेंएक किनारे खड़ा, उन सूखे पौधों को देख रहा था जो शायद वर्षों से फल और पत्तियों को तरस रहे थे।उन्को देखते हुए वह सोच रहा था, क्या इन पौधों में कभी फूल नहीं खिलेंगे? इनका जिंदगी उसे बिल्कुल वन्दना जैसा ही दिखाई दिया। जब से वहइसे कोठी में आया है, आज तक उसने वन्दना को कभी भी मुस्कराते नहीं देखा। क्या वह शबनम बनकर इन पौधों में नाममात्र भी ताजगी की मुस्कान नहीं उत्पन्न कर सकेगा? आखिर उसका अपना जिंदगी भी तोएक प्यासी शबनम है जो फूल की मुस्कराती पंखुड़ियों पर गिरने को तरस रही है। माता-पिता की हत्या के पश्चात वह स्वयं भी तो कहां-कहां भटकता रहा, तड़पता
रहा ओर रोता रहा,एक अनाथ और मासूम बालक के समान। अचानक अपने पीछे, कोठी के बरामदे मेंएक आहट सुनकर वह चौंक गया। उसने पलटकर देखा, वन्दना अपने रेशमी गाउन में खम्भे के सहारे खड़ी उसी को देख रही थी। ऐसा लगता था मानो वह अभी-अभी एकांत में रोकर उठी हो। पलकों में हल्का गीलापन था। दृष्टि बिल्कुल गंभीर थी। अमर ने वन्दना को देखा, दोबारा भी वन्दना ने उसके उपरि से दृष्टि नहीं हटाई। वन्दना की खुली रेशमी लटें हवा के बहाव पर कंधे से उड़ती हुईं उसके मुखड़े पर बिखर जाती थीं। ऐसा लगता था मानो सुबह के फीके और उदास चन्द्रमा पर बदली की परतें चली आई हों, ऐसी परतें जो सुबह के दूधियापन के प्रतिबिम्ब में सुनहरी हो उठती हैं, बिल्कुल वन्दना की लटों के समान। अमर ने वन्दना को पहली बार इतनी सुबह उठते देखा था। वह वन्दना के समीप बरामदे के नीचे आकर खड़ा हो गया। ‘आप।’ अमर ने गंभीरतापूर्वक आश्चर्य से पूछा। ‘हां।’ वन्दना ने गम्भीरता के संग कहा। ‘इतनी सुबह!’ अमर ने दोबारा आश्चर्य प्रकट किया।
‘हां।’ वन्दना ने खोए-से अंदाज में कहा। ‘जाने क्यों इतनी देर में सोने के पश्चात् आज सुबह इतनी जल्दी आंखें खुल गईं। कुछ देर तक पलंग पर यूं ही पड़ी रही। दोबारा मन नहीं माना तो कमरे सेबाहर् निकल आई।’ वन्दना ने पहली बार अमर की बातों में रुचि प्रकट की। ‘मैं जानता हूं आपको देर में क्यों नींद आई होगी।’ अमर ने कहा। वन्दना नेएक क्षण सोचा। दोबारा बरामदे के किनारे उसी स्थान पर पांव लटकाकर नीचे बैठ गई। अपनी उड़ती लटों पपर हाथ फेरते हुए उसने पूछा, ‘क्यों देर में नींद आई मुझे? क्या जानते होइसे विषय में?’ ‘आपको नींदइसलिये नहीं आई क्योंकि---क्योंकि-’ अमर सकुचाया। हां-हां, कहो। वन्दना ने उसे उत्साह दिया। ‘क्योंकि आपको अपने प्रेमी रोहित जी की याद ज्यादा सता रही होगी।’ अमर ने कह ही दिया। वन्दना समय भर के लिए सन्न रह गई। उसका मुखड़ा खिलते-खिलते और गम्भीर हो गया था। अमर की बात उसे अच्छी नहीं लगी। काश, अमर की बात सत्य होती। काश, वह रोहित के विचारों में तल्लीन होकर करवटें बदलती
रहती। काश, उसने अमर के स्थान पर रोहित का ही सपना देखा होता तो कितना बढ़िया होता। वन्दना के दिल को अमर की बात सुनकर चोट भी पहुंची। अमन ने मानो अपनी बात अनजाने में कहकर उसके विवेक को जगाना चाहा था। वन्दना ने सोचा, क्या उसने अनजाने में अमर का सपना देखकर पाप किया है?इसे सपने ने उसके दिल पर जो छाप छोड़ी है उसमें उसके दिल का क्या दोष है? दिल पर आज तक किसका जोर रहा है? अब तक वह जिस तरह घुट-घुट कर जी रही थी उससे क्या ये सिद्ध नहीं होता कि वह अपनी जवानी, अपनी सुन्दरता से अन्याय कर रहा है? जिंदगी की ये लम्बी डगर आखिर कब तकएक पहिए के सहारे चलेगी। कभी-न-कभी तो उसे विवाह करना ही पड़ेगा। भारत में या विदेश में। आखिर वह कोई विधवा तो है नहीं जो पति के वियोग में अपना सारा जिंदगी अकेले ही बिता दे। लेकिन भारत में भी जाने कितनी विधवाएं हैं जिन्हें परिस्थिति से मुकाबला करने के लिए दूसरा विवाह करना ही पड़ता है। दोबारा वह तोएक विदेशी मम्मी की बेटी है। विदेशी वातावरण में रंगी हुई है। वन्दना इन्हीं विचारों में तल्लीन हो गई। अपने मन की संतुष्टि के लिए मानव क्या नहीं सोचता?
अमर ने वन्दना को इतनी देर तक खामोश देखा तो चुप न रह सका। उसने सोचा, उसने व्यर्थ ही रोहित का विषय उठा दिया। वन्दना इसी कारण उदास तथा खोई-सी है। उसने पूछा, ‘मेरी बातों से आपके दिल को ठेस पहुंची है?’ ‘ऊं?’ वन्दना मानो सपने से जागी। ‘यदि मैंने आपके दिल को ठेस पहुंचाई है तो मैं इसके लिए आपसे क्षमा मांगता हूं।’ अमर ने वन्दना के दिल में उठती मौजों की आवाज से बेखबर होकर कहा। ‘नहीं-नहीं-’ वन्दना ने तुरन्त कहा, ‘ऐसी बात बिल्कुल भी नहीं है। दरअसल - दरअसल मैं कुछ और ही सोच रही थी।’ अमर का दिल रखने के लिए वन्दना हल्के से मुस्करा दी। अमर के प्रति वन्दना की ये पहली मुस्कान थी। उसे ऐसा लगा मानो उसके जिंदगी की प्यासी शबनम किसी सूखे पौधे पर गिर पड़ी है। शबनम कीइसे बूंद ने मानो सूखे पौधे मेंएक कली के खिलने की आशा प्रदान कर दी थी। सूर्य की किरणें मुस्कराकर जिंदगी की नई सुबह का पैगाम देने लगीं तो वन्दना का सफेद मुखड़ा फीके चन्द्रमा से बदलकर सूर्य की नई किरणों के समान दमक उठा। हवा काएक हल्का-सा झोंका आया तो इसकी खुली तथा
बिखरी लटों ने शरारत से और बिखराकर उसके कपोलों के संग उसके होंठों का भी चुम्बन ले लिया। वंदना अपनी लटें उंगलियों द्वारा संवार कर पीछे करती हुई वहीं नीचे उठ खड़ी हुई। उसने हवा के बहाव पर अपने गालों का तकिया बनाया। दोबारा बोली, ‘लगभग दस बजे हम शहर चलेंगे। तुम तैयार रहना।’ ‘जी?’ अमर को विश्वास नहीं हुआ। वन्दना इतनी जल्दी उससे घुल-मिल जाएगी। वह कभी सोच भी नहीं सकता था। ‘यदि बंदूक और रिवॉल्वर की गोलियों का स्टॉक कुछ ज्यादा रहे तो क्या बुराई है?’ वन्दना ने कहा। ‘ओह।’ अमर ने सोचा। दोबारा बोला, ‘परन्तु हम यहां ठाकुुर साहब को अकेले कैसे छोड़ सकतें हैं?’ ‘दादाजी की चिन्ता मत करो।’ वन्दना ने कहा, ‘कुछ ही टाइमकी तो बात है। हम जाते टाइमचौकी के पुलिस अफसर से विशेष पक्ष मांग लेंगे कि दादाजी का पूरा ध्यान रखा जाए। यूं भीएक सिपाही की हत्या होने के पश्चात अब चौकी में पुलिस वालों की गिनती पहले से कहीं ज्यादा बढ़ा दी गई है।- अमर खामोश हो गया।
वन्दना उसकी बात की इंतजार किए बिना बरामदे की सीढ़ियां चढ़कर कोठी के दरवाजा की ओर बढ़ गई। दुर्गापुर गांव से दूर, चट्टानों की ओर खुली सड़क परएक छत से खुली गाड़ी ज्यादा तेजी के संग जा रही थी। गाड़ी वन्दना चला रही थी। अमर उसके बगल में समीप ही बैठा हुआ था। ज्यादा खामोश था वह। वन्दना भी ज्यादा खामोशी में जैसेएक जबान थी जिसे दोनों ही समझ रहे थे। अमरइसे खामोश जबान को समझने के पश्चात् कुछ पूछने का साहस न कर पा रहा था। ऐसा न हो कि उसका अनुमान गलत निकल जाए। कनखियों द्वारा वह चुप-चुप वंदना को देख लेता था, जिसनेइसे टाइमआसमानी रंग की रेशमी साड़ी पहन रखी थी। आसमानी रंग की साड़ी में उसका मुखड़ा बिल्कुल उदय होते सूर्य के समान था। गाड़ी चलाते टाइमउसकी साड़ी का आंचल कभी-कभी हवा के झोंके का बहाना लेकर उसकी छाती से सरक जाता था। तब वह ज्यादा लापरवाही से इसेएक हाथ द्वारा छाती पर डालने के पश्चात गर्दन से लपेट लेती थी। लटें बिखरतीं तो इन्हें भी वहएक हाथ द्वारा संवार कर पीछे कर लेती थी। वन्दना की ये निश्चिंत ड्राइविंग की अदा अमर के दिल में उतर गई
और आखिरएक टाइमऐसा आया जब उससे और ज्यादा खामोश रहते नहीं बना। जबएक हसीन हमसफर हो तो बातें करने का मन स्वयं ही करने लगता है। उसने अपना गला खंखारकर स्वच्छ किया। कुछ सकुचाया। दोबारा बोला, ‘वन्दना जी, शायद हम - शहर जाने के लिए निकले थे।’ उसने मानो वन्दना को याद दिलाया। ‘हां।’ वन्दना ने उसकी ओर देखे बिनाएक हल्के मोड़ पर गाड़ी चढ़ाई। ‘लेकिन---शहर तो ज्यादा पीछे छूट चुका है।’ अमर ने उसे रास्ता बताना चाहा। ‘इस टाइमड्राइविंग का मूड आ गया है।’ वन्दना ने उसकी ओर दोबारा नहीं देखा। बात उसने जारी रखी। बोली, ‘विदेश से आने के पश्चात कभी ड्राइविंग का यहां अवसर ही नहीं मिला।’ ‘----------’ अमर खामोश रहा। ‘विदेशों में गाड़ी चलाने का आनन्द ही कुछ और है।’ वन्दना ने ड्राइविंग का आनन्द उठाते हुए कहा, ‘लंदन को छोड़कर करीब सभी विदेशों में बाएं के बजाए दाहिने से चलना पड़ता है। ‘हाईवेज’ पर आने-जाने के लिए अलग-अलग रास्ते हैं, चाहे वह चट्टानों के बीच काटी सुरंगें हों या
खुली सड़क। सड़कों पर तीन ‘ट्रैक्स’ बने हुए हैं। हर ‘ट्रैक्स’ पर कम-से-कम अगल-अलग गाड़ी चलाने की गति अस्सी, सौ तथाएक सौ बीस किलोमीटर होना आवश्यक है। जब मैं मम्मी के साथएक बार विदेश यात्रा पर निकली थी तो मैंने सुरंगों की गिनती गिनी। मुझे सिर्फ तिरसठ सुरंगों के अन्दर से जाने का अवसर मिला। सबसे छोटी सुरंगएक अकेली चट्टान के अन्दर से निकली थी। चट्टान के उपरि केवलएक ही बंगला था।’ वन्दना नेएक मोड़ पर दोबारा अपनी गाड़ी घुमाई। उसने बात जारी रखते हुए अपना एहसास प्रकट किया। बोली, ‘सबसे लंबी सुरंग बारह किलोमीटर की थी। ये सुरंग पांच किलोमीटर तक इटली के अंदर है और सात किलोमीटर फ्रांस के अंदर है। बॉर्डर की जांच इटली की सरहद के अंदर सुरंग में प्रवेश करने से पहले ही हो जाती है। सुरंगों के अन्दर गहरी पीली परन्तु चमकदार बत्तियां दो कतार में दूर-दूर तक देखने में ज्यादा भली लगती हैं। करीब सभी सुरंगों में थोड़ी-थोड़ी दूर पर टेलीफोन और आग बुझाने की सामग्री का पूरा प्रबंध है। चौड़ी सुरंगों के अंदर यात्रा करने में इतना आनंद आया, इतना ज्यादा आनंद आया कि--- वन्दना अपनी धुन में कह रही थी और अमर उसकी बातों का पूरा आनन्द उठा रहा था। आज वन्दना उससे कितना
ज्यादा घुल-मिल गई थी,इसे पर उसे आश्चर्य था तथा प्रसन्नता भी थी। उसका मन करता था कि वन्दना इसी तरह अपनी मीठी जबान द्वारा पक्षी समान चहककर उससे बातें करती रहे और वह उसकी बातों द्वारा अपने कानों में मधुर रस का आभास करता रहे। कितना मधुर टाइमथा यह, कितना सुहाना सफर। अचानकएक चढ़ाई पर गाड़ी मोड़ते हुए गाड़ी के सामने गाय तथा भैंसों काएक झुण्ड आ गया। दुर्घटना से बचने के लिए वन्दना को तुरन्त ‘ब्रेक’ लगा देना पड़ा। गाड़ी की गति बिगड़ गई। वन्दना के मस्तक पर बल पड़ गए। उसने अनेक बार गाड़ी का ‘हॉर्न’ बजाय और आखिर जब रास्ता स्वच्छ हुआ तो उसने गाड़ी की गतिएक बार दोबारा तेज कर दी। अब चढ़ाई पर चढ़ाई आने लगी। मोड़ भी जल्द ही आ जाते थे परन्तु वन्दना गाड़ी चलाने में प्रवीण थी। उसने गति में कमी नहीं की।
ऊंचाई पर आते ही हवाओं का बहाव और ज्यादा तेज होने लगा। हवाओं में कुछ ठण्डक भी आने लगी। झोंके थे कि उन दोनों के मन और मस्तिष्क परएक नई ताजगी बख्श रहे थे। वन्दना की साड़ी का आंचल अब हवा के बहाव पर उसकी छाती से सरक कर उड़ता हुआ कभी-कभी अमर के कपोलों को भी छू जाता था। उसकी गर्दन में प्रेम का हार बनकर ये आंचल छा जाना चाहता था। आंचल ही नहीं उसकी लटें भी कभी-कभी अमर के कपोलों की ओर लहराकर लपक पड़ती थीं। वन्दना अब भीएक हाथ द्वारा अपना आंचल संभाल तथा लटें संवार लेती थी। परन्तु जबएक बार वन्दना नेएक गहरे मोड़ पर गाड़ी चढ़ाई तो उसकी साड़ी का आंचल उसकी छाती से पूर्णतया ढलकर अमर की गर्दन में लिपटता हुआ मानो सदा के लिए प्रेम का हार बन गया। वन्दना की लट उड़कर अमर के गालों को भी छूने लगीं। वन्दना की लटों की प्यारी-प्यारी सुगन्ध अमर के नथुनों द्वारा उसके दिल की गहराई में उतर गई। अमर के बदन में बिजली दौड़ गई। वन्दना गाड़ी चलाने में तल्लीन थी। ध्यान सड़क के हर मोड़ पर जमा हुआ था। छोटी-सी असावधानी भीएक भयानक दुर्घटना का रूप लेकर उनका जिंदगी ले सकती थी। ऐसी स्थिति में उसने अमर की ओरएक बार कनखियों सेदेख्ना तो दूर अपनी छाती से सरके
आंचल को भी ठीक करने की चिंता नहीं की। वह गाड़ी चला रही थी, चलाती रही, निश्चिन्त होकर, मानो ड्राइविंग में वह खो गई थी। चट्टानों के बीच सड़क की चढ़ाई पर अब मोड़ और भी जल्दी-जल्दी आने लगे। गहरे-गहरे मोड़ थे ये जिन पर जब वन्दना जल्दी-जल्दी गाड़ी मोड़ने लगी तो उसकी लटें अमर के मुखड़े पर देर तक छाई रहने लगीं। अमर का मन हुआ कि वह इन रेशमी लटों को हल्के से अपने दांतों के बीच दबा ले या अपने होंठों के बीच पकड़ ले। और आखिरएक बार जब वह दिल के हाथों मजबूर हो गया तो उसने अपने मुखड़े पर छाई वन्दना की लटों को अपने होंठों के बीच दबा ही लिया। वन्दना ने अपनी लटों का खिंचाव महसूस किया तथा वास्तविकता का आभास किया तो अचानक उसका पांव ब्रेक पर सख्ती के संग जाम हो गया। गाड़ी के पहिए रुकने के लिए ज्यादा तेजी के संग चीख पड़े। अमर ने कांप कर वन्दना की लटें छोड़ दीं। कारएक झटका खाकर रुक गई - कुछ बहकती हुई, सड़क के बिल्कुल ही किनारे, जहां मोटे-मोटे पत्थरों की दीवार बनी हुई थी, घुटनों तक ऊंची।इसे तरह अचानकएक झटके से ब्रेक लगने के पश्चात गाड़ी की दुर्घटना भी हो सकती थी।
अमर का दिल ज्यादा तेजी के संग धड़कने लगा। अपने दिल पर काबू न करके वह ये क्या कर बैठा? वन्दना के संग गुस्ताखी? असभ्यता? वन्दना ने गाड़ी का इंजन बंद करने के पश्चात अमर की ओर देखा। अमर लज्जित होकर अपना सिर नीचे झुकाए हुए था, वह सिर जो आज तक किसी मर्द के सामने कभी नहीं झुका था। उसके सिर झुकाने के अन्दाज में बेपनाह शर्मिन्दगी थी। उसकी समझ में नहीं आया कि वह वन्दना से अपनीइसे गलती की क्षमा कैसे मांगे? वन्दना क्षण-भर तक गर्दन घुमाए उसे उसी तरह देखती रही। अमर का दिल अन्दर-ही-अन्दर धक-धक करता रहा। शायद अब वन्दना उससे कुछ कहे, उसे फटकारे, डांटे या विश्वासघाती कहे। परन्तु वन्दना ने उससेएक भी शब्द नहीं कहा। उसनेएक गहरी परन्तु खामोश सांस ली। उसने अपनी ओर गाड़ी का गेट खोला और दोबारा नीचे उतर गई। अमर ने तब भी उसे देखने का साहस नहीं किया। बल्कि दिल की धड़कनें बढ़कर असमंजस में पड़ गईं। वन्दनाएक ओर आगे बढ़ गई। जाकर वह सड़क के किनारे घुटनों तक ऊंची पत्थर की दीवार के समीप खड़ी हो गई। दीवार के उस पार ढाई-तीन फुट बादएक ज्यादा गहरी घाटी थी। घाटी की तह में तारकोल कीएक बलखाई सड़क थी।
सड़कें बल खाकर पहाड़ों की गोद में होने के पश्चात दूसरे किनारे से आंख-मिचौली खेलती हुईं फिरबाहर् निकल आईं थीं। इन सभी सड़कों से होकर ही वन्दना गाड़ी द्वारा यहां इतनी ऊंचाई पर पहुंची थी। हरी-भरी घाटियां, ऊंचे-ऊंचे घने वृक्ष, पक्षी दृष्टि की सतह से ज्यादा नीचे घाटियों में कलाबाजी लगाते हुए चहक रहे थे। घाटियों की ढलवानों पर कहीं-कहीं कच्चे तथा छोटे-मोटे घर थे। कुछेक रंगीन फ्लैट्स या बंगले इन हरी-भरी घाटियों के ढलवान पर वन-विलास बने हुए थे। पहाड़ी इलाकों का ये दृश्य अत्यन्त सुहावना था जिसे वन्दना देख अवश्य रही थी परन्तु उसका मन और मस्तिष्क कहीं और था।एक बार वह लंदन में इसी तरह रोहित के संग सागर किनारे सूर्य स्नान के बहाने लम्बी ड्राइविंग पर निकली हुई थी। उस दिन उसके पास अपनी विदेशी मम्मी कीएक लंबी तथा खुली गाड़ी थी। चौड़ी सड़कों पर लंबी-चौड़ी गाड़ियों को चलाने का आनन्द ही कुछ और प्राप्त होता है। उस दिन भी वह गाड़ी स्वयं ही चला रही थी। तब कमर से नीचे बेलबॉटम पैंट तथा कमर से उपरि कसा हुआ टॉप बिना चोली के उसके तराशे हुए बदन की शोभा में चार चांद लगाए हुए था। आंखों पर मोटा तथा इतना बड़ा रंगीन चश्मा था कि उसकी भवें भी नहीं दिखाई पड़ती थीं। उसके
बगल में रोहित बैठा हुआ था। तब गाड़ी की तेज गति के कारण वन्दना की लटें बिखरकर उसके अपने मुखड़े पर ही नहीं फैलती थीं बल्कि रोहित के मुखड़े तक भी चली जाती थीं। रोहित उसकी लटों की सुगन्ध का पूरा आनन्द उठा रहा था। जब कभी रोहित के मुखड़े पर वन्दना की लटें बिखर आतीं और होंठों की दरारों को छूतीं तो रोहित ज्यादा प्रेम के संग वन्दना की लटों को अपने होंठों के मध्य हल्के से दबा लेता था। तब वन्दना को ज्यादा आनन्द आता था। विदेश में उस दिन वन्दना ने समुद्र के किनारे एकान्त में अपनी गाड़ी रोकी, विदेशी यात्रियों के घने झुरमुट से हटकर, जो यहां आए-दिन मेले समान जमे रहते थे। विदेशी यात्री नहाने के वस्त्रों में कहीं औंधे तो कहीं चित्त पड़े, ठंडी-ठंडी धूप के स्नान का आनन्द उठा रहे थे। यात्रियों के बीच बड़े-बड़े रंगीन छाते समुद्र के किनारे धंसे दूर तक रंगीन फूलों काएक उद्यान बने हुए थे। जिन यात्रियों को धूप की तपिश महसूस हो रही थी उन यात्रियों ने अपने मुखड़े छाते की छांव में छिपा रखे थे। वन्दना तथा रोहित ने गाड़ी के पीछे डिक्की से अपना-अपना आवश्यक सामानबाहर् निकाला। दूसरा सामान के संग वह भी अपनाएक बड़ा रंगीन छाता संग लाए थे। दोबारा दोनों समुद्र की ओर बढ़ गए।
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