Rajsharma Sex Story : प्यासी शबनम लेखिका रानू (Romance Special)
वन्दना अब तक उसी तरह अपनी कोठी की सबसे ऊंची मंजिल पर खड़ी हुई थी। दुर्गापुर का वातावरण देखती हुई वहइसे तरह खोई हुई थी कि मानो आज वह अन्तिम बार अपने गांव को विदाई दृष्टि से देख रही थी। दुर्गापुर में उसका कोई भी अन्तिम दिन हो सकता था क्योंकि वहइसे क्षेत्र,इसे शहर, बल्किइसे देश का छोड़कर किसी भी दिन लंदन के लिए निकल सकती थी। वह दो मास पहले ही लंदन से अपने देश, अपने गांव पुनः आई थी, कुछ ही दिनों के लिए, लंदन की नागरिकता प्राप्त करने के बाद, परन्तु अपनी कोठी में आते ही उसे ऐसी दुर्घटना का सामना करना पड़ गया था कि उसका सब-कुछ लुट गया। यहां से लंदन किसी भी टाइमजाने के लिए उसका अपना पासपोर्ट तैयार था जो वह लंदन से बनवाकर लाई थी परन्तु रुकी हुईइसलिये थी क्योंकि वह अपने संग अपने दादाजी को भी लंदन ले जाना चाहती थी। उनके पासपोर्ट के लिए जांच आ सकती थी, किसी भी टाइमपासपोर्ट भी आ सकता था जिसकी इंतजार वह प्रतिदिन करते हुए हर दिन को ही दुर्गापुर में अपना अन्तिम दिन समझने पर विवश थी। छंटते कोहरे में कोठी से दूर वन्दना की दृष्टिएक बूढ़े ताड़ के वृक्ष पर पड़ी जो चोटी से गंजा था। उसके पत्ते जमाने
की हवा के संग जाने कब झड़ गए थे। ताड़ का तनाएक बल्ली समान दिखाई पड़ रहा था।इसे ताड़ से वन्दना के बचपन की कुछ यादें संबंध रखती थीं। यादें बचपन की थींइसलिये मासूम थीं जिसमें किसी तरह का कोई सपना नहीं सम्मिलित था। तबइसे ताड़ के लम्बे-लम्बे हरे पत्ते हवा के बहाव पर सरसराकर बड़ी शान से झूमते रहते थे। वन्दना तब दस वर्ष की थी।एक दिन वन्दना दुर्गापुर में घोड़े पर सवार होकर घूमने के पश्चात शाम के टाइमइसी ताड़ के वक्ष के समीप से निकल रही थी कि अचानकइसे ताड़ के वृक्ष के नीचेएक बारह तेरह वर्षीय लड़के को अपनी ओर पीठ किए परन्तु सिर पर छाता लगाकर नीचे बैठा हुआ देखकर वह चौंक पड़ी थी। उसे आश्चर्य भी ज्यादा हुआ था। गम का सुहाना वातावरण, वर्षा व धूप, दोबारा वह लड़का छाता क्यों लगाए है? अचानक वन्दना की दृष्टि लड़के के समीप जमीन पर रखे चार-पांच ताड़ी के घड़ों पर पड़ी। वह लड़के को ज्यादा ध्यान से देखने लगी। लड़के ने उसकी उपस्थिति से अज्ञात ज्यादा सन्तोष के संग घड़े में सेएक गिलास में ताड़ी निकाली। तभी वन्दना के कानों में ताड़ के वृक्ष के उपरि से चीखने और चिल्लाने का स्वर सुनाई पड़ने लगा। वन्दना ने उपरि देखा। ताड़ के पत्तों मेंएक ताड़ीवान था। वह नीचे
बैठे लड़के को गन्दे शब्द कहते हुए उसे ताड़ी चुराने से मना कर रहा था। परन्तु ताड़ीवान की बातों का लड़के पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। उसने निश्चिंत होकर अपना ताड़ी से भरा गिलास वहीं पीकर खाली कर दिया। ताड़ी उसने घड़े से दोबारा निकाली। गिलास कोएक बार दोबारा ख़त्म किया। उसके पश्चात वह उसी तरह सिर पर छाता लगाए खड़ा हुआ और दोबारा वन्दना की ओर देखे बिना ही आगे बढ़करएक खपरैलदार घर की ओट में लुप्त हो गया। कुछ देर पश्चात ही लड़कर दोबारा पुनः आया परन्तुइसे बार उसके हाथ में छाता नहीं था। छाता वह कहीं छिपाकर आया था। लड़के ने वन्दना को देखा, परन्तु वह जरा भी नहीं चौंका। उसका विचार था कि ठाकुर नरेन्द्र सिंह की पोती अभी-अभी यहां आई है। उसने ज्यादा भोलेपन से वन्दना को हाथ जोड़कर झुकते हुए नमस्कार कर दिया। लड़का वन्दना से कुछ दूरी पर अनजान बनकर टहलने लगा। उसी टाइमताड़ीवाला भी ताड़ से नीचे उतरा। उसकी कमर से ताजी ताड़ी से भराएक घड़ा लटक रहा था। नीचे आने के पश्चात उसने कमर से बंधा घड़ा नीचे रखा। दोबारा इधर-उधर देखा। उसके पश्चात वह लड़के के पास पहुंचा। कुछ तुनककर उसने लड़के से पूछा, ‘ऐ लड़के, तुमने यहां किसी छाते वाले को इधर से जाते देखा है?’
‘छाते वाले को?’ लड़के ने अनजान बनकर आश्चर्य प्रकट किया। बोला, ‘इस टाइमधूप या वर्षा हो रही है जो कोई छाता लगाकर कहीं निकलेगा?’ ‘अरे धूप या वर्षा के कारण वह छाता नहीं लगाता है।’ ताड़ीवाले ने खिसियाकर कहा, ‘दरअसल वह अकसर मेरी ताड़ी यहां आकर चुराते हुए मुफ्त ही पी जाता है और मैं उसके सिर पर छाता होने के कारण उसे पहचान तक नहीं पाता जो उस बदमाश को पकड़ सकूं।’ ‘तो दोबारा तुम उसे तुरन्त उसी टाइमवृक्ष से उतरकर क्यों नहीं पकड़ लेते हो?’ लड़के ने सब-कुछ जानते हुए उसे सुझाव दिया। ‘अरे मूर्ख, इतनी उपरि से उतरते-उतरते तो मुझे टाइमलग जाता है। इतनी देर में वह भाग नहीं जाएगा?’ ताड़ीवाले ने कहा, ‘और दोबारा दोबारा ताड़ पर चढूंगा तो वह भी दोबारा छाता लिए वहीं आ पहुंचेगा?एक ही बार में तो उपरि चढ़ने में सांस फूल जाती है।’ ताड़ीवाले की सांस फूल रही थी। वन्दना की समझ में आ गया कि ये लड़का छाता लगाकर क्यों ताड़ी चुराने आया था। वहइसे लड़के की बचपन भरी बुद्धिमानी पर मुस्करा दी। ताड़ीवान अपने
ताड़ी के घड़े संभालकर चला गया तो वन्दना ने घोड़े को ऐड़ लगाई और लड़के के पास जा पहुंची। लड़का उसे भयभीत-सा देखने लगा। कहीं उसकी चोरी तो नहीं पकड़ी गई। ‘क्या नाम है तुम्हारा?’ वन्दना ने पूछा। ‘जी?’ लड़के ने सहमकर कहा, ‘अमर - अमर सिंह।’ ‘अमर सिंह?’ वन्दना ने लड़के को आश्चर्य से देखा। ‘जी हां।’ लड़के ने कहा, ‘मैं ठाकुर मोहन सिंह का पुत्र हूं, वही ठाकुर मोहन सिंह जिन्हें अक्सर आपके दादाजी की सेवा करने का सम्मान मिल जाता है।’ मोहन सिंह गांव काएक ऐसा साहसी तथा बहादुर आदमी था जिसने गांव के गिने-चुने साहसी व्यक्तियों के संग मिलकर गांव पर डाकुओं के अनेक आक्रमण असफल बना दिए थे। उन्होंने ठाकुर नरेन्द्र सिंह पर होने वाले आक्रमण में भी डाकुओं के खिलाफ ठाकुर नरेन्द्र सिंह का पूरा संग दिया था। वह अब भी नरेन्द्र सिंह की कोई भी सेवा करने के लिए कोठी में अपनी उपस्थिति दे आते थे। नन्ही वन्दना को वह बेटी कहकर पुकारा करते थे। वन्दना ने कहा, ‘तुम्हारे पिता इतने साहसी तथा ईमानदार आदमी हैं और
तुमएक बुजदिल के समान चोरी करते हो? क्या ऐसा करते तुम्हें शर्म नहीं आती?’ ‘जी?’ अमर चौंक गया। उसे मानो वन्दना से ऐसे शब्दों की आशा नहीं थी। उससे भीएक कम आयु की लड़की उसे समझा रही है! वह मन-ही-मन ज्यादा लज्जित हुआ। उसने कहा, ‘दरअसलएक दिन मुझे विचार आया कि ताड़ी पीने के लिए लोग ताड़ी की दुकान पर इतनी दूर जाते हैं तथा वहां पहुंचने के पश्चात भी पैसे खर्च करके ही ताड़ी पीते हैं, परन्तु मैं ऐसा क्यों करूं लेकिन मुझे यहीं पर ताड़ी पीने को मिल सकती है और वह भी मुफ्त? बस इसीलिए ताड़ी पीने का ये ढंग अपना लिया था। परन्तु अब आप विश्वास कीजिए, आपकेएक ही वाक्य ने मेरी आंखें खोल दी हैं। मैं आपको वचन देता हूं कि अब कभी ऐसा काम नहीं करूंगा। बल्कि जल्दी ही अपने पिता समानएक साहसी तथा ईमानदार आदमी भी बनकर सारे गांव को दिखा दूंगा।’ ‘परन्तु ईमानदार बनने का ये मतलब नहीं कि तुम चोरी छोड़ने के पश्चात अब ताड़ी खरीदकर पियो। तुम्हारी आयु ज्यादा कम हैइसलिये ताड़ी को तुम हाथ भी नहीं लगाओगे वरना साहसी बनने की सारी इच्छाशक्ति यूंही धरी की धरी रह जाएगी।’ वन्दना ने मानो उसे आज्ञा दी।
‘आप विश्वास कीजिए, मैं ताड़ी तो क्या अब किसी भी नशे को जिंदगी भर हाथ नहीं लगाऊंगा।’ अमर ने वन्दना के भोलेपन से प्रभावित होकर अपनी सारी इच्छाएं मानो सदा के लिए उसके आगे भेंट चढ़ा दीं। अपनी बात जारी रखते हुए उसने कहा, ‘आपको अब मुझसे कभी भी कोई शिकायत नहीं होगी।’ वन्दना हल्के से मुस्करा दी। अमर उसे ज्यादा ध्यान से देख रहा था, उसकी दृष्टि में वन्दना के प्रति असीम श्रद्धा थी, शायद प्रेम भी था जिसे वन्दना का नन्हा दिल समझ नहीं सका। उसने घोड़े को ऐड़ लगाई और दोबारा अपनी कोठी की ओर लौट पड़ी। अगले दिन शाम के टाइमवन्दनाएक कमरे से दूसरे कमरे में जा रही थी कि तभी अपने दादा जी के कमरे से अमर सिंह का नाम सुनकर ठिठकती हुई वह रुक गई। स्वर ठाकुर मोहन सिंह का था, वह कमरे के अन्दर चली गई। कमरे में उसके दादा-दादी बैठे हुए थे जिनसे मोहन सिंह बातें कर रहे थे। ‘क्या बताएं जागीरदार साहब-’ मोहन सिंह आश्चर्य से कह रहे थे, ‘मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि अमर सिंह अपना जिंदगी आज से बिल्कुल ही बदल देगा। अब आप
ही देखिए, पहले न कुश्ती में शौक लेता था न कसरत में। जब देखिए तब बस घूमता ही रहता था या गांव के निकम्मे लड़कों के संग गिल्ली-डंडा या कबड्डी खेलता रहता था। समझाऊं लाख परन्तु टाल जाता था। मैं तो समझता था कि हमारी जेनेरेशन के पश्चात गांव में सभी के सभी नवयुवक कायर और डरपोक ही निकलेंगे।’ ‘समझता तो मैं भी यही हूं।’ ठाकुर साहब ने कहा। दोबारा पूछा, ‘परन्तु क्या कोई नई बात हो गई है?’ ‘कमाल हो गया है जागीरदार साहब, कमाल हो गया है।’ मोहन सिंह ने जोर देकर कहा, ‘कल रात उसने मेरे सामने सौगन्ध खाई कि वह साहस और बल में इतना नाम कमाएगा कि दूर-दूर के गांववाले भी उसका लोहा मानेंगे और देखिए, अपनी सौगन्ध पूरी करने के लिए उसने आज सुबह तड़के से ही मेहनत प्रारंभ कर दी।’ ‘चलो लड़का देर में संभला तो सही’, ठाकुर नरेन्द्र सिंह ने अपनी छाती फुलाकर छाती पर हाथ मारा। अपनी बात उन्होंने जारी रखी। बोले, ‘आखिर उसकी रगों में खून किसका है? मेरा -एक ठाकुर का।’ ‘यदि गांव के सभी लड़कों के दिल में इसी तरह की लगन समा जाए तो गांव का कल्याण हो जाए।’ सहसा
बीच में ठाकुर नरेन्द्र सिंह की पत्नी ने कहा, ‘वर्ना डाकू आएंगे और ज्यादा आसानी से सारा गांव लूटकर ले जाया करेंगे।’ ‘हमारा क्या है। बस भगवान हमें इतनी आयु दे दे कि हम अपने जीते जी पोती का विवाहएक अच्छे घराने में कर दें।’ ठाकुर नरेन्द्र सिंह ने वन्दना की ओर देखते हुए कहा, ‘उसके पश्चात पोती अपने पति के संग यहां नहीं रहे तो बढ़िया है।इसे गांव से दूर किसी शहर में रहकर कम-से-कम वह डाकुओं के डर से तो दूर रहेगी। दोबारा हमें अपने जिंदगी की कोई चिन्ता नहीं रहेगी। हां, शमशेर सिंह से बदला लिए बिना यदि हम मर गए तो मुझे अफसोस ज्यादा होगा।’ वन्दना ने सुना तो हल्के से मुस्करा दी - मन-ही-मन। सोचा, जब वह घड़ी होगी तो जाने किससे उसका विवाह होगा। दस वर्षीय वन्दना विवाह का अर्थ समझती थी। वह उस कमरे सेबाहर् निकलने लगी तो उसने सूना। ‘यदि आपको कुछ हो गया जागीरदार साहब तो विश्वास कीजिए आपका बदला, यदि भगवान ने चाहा, तो मैं लूंगा - मैं।’ मोहन सिंह ने छाती ठोंक कर ‘मैं’ शब्द पर जोर दिया। बोला, ‘यदि मैं भी किसी कारण आपका बदला लेने में असमर्थ रहा तो मेरा बेटा आपका बदला लेगा। हमने
आपका नमक खाया है। आप स्वयं जानते हैं कि ठाकुरों के लिए नमक का मूल्य उसकी जान से बढ़कर होता है। वन्दना अपने कमरे में पहुंची और खिड़की द्वाराबाहर् गांव का वातावरण देखने लगी। वह सोचने लगी कि उसकीएक छोटी-सी बात ने अमर के अन्दर कितना बड़ा परिवर्तन उत्पन्न कर दिया है। भगवान करे वह अपने प्रयत्न में संपन्न रहे। उसकी इच्छाशक्ति उसका संग दे। वन्दना के सोचने में सिर्फ बचपन की भावना थी। और किसी भी बात का इसमें दखल नहीं था। क्या यदि वह गांव के सभी लड़कों को इसी तरह समझाए तो वे सभी सुधर कर बड़े होने के पश्चात अपने गांव की रक्षा करने को तैयार हो जाएंगे? उनमें बल का साहस उत्पन्न हो सकेगा? उसने सोचा, प्रयत्न करने में हर्ज ही क्या है? उसने प्रयत्न करने का फैसला भी कर लिया। परन्तु अगले ही दिन लंदन से उसकी अंग्रेज मम्मी आ गई।इसे बार उसकी मम्मी चार वर्ष पश्चात आई थी। संग में अपने दूसरे पति को लाई थी। पति भारत पहली बार आया था, भारत का कोना-कोना देखने की योजना बनाकर। वन्दना के लिए उसकी मम्मी सदैव समानइसे बार भी उसकी आयु अनुसारएक सेएक बढ़कर विदेशी खिलौने, कपड़े, टॉफियां आदि लेकर आई थी। वन्दना अपनी मम्मी से इतने वर्षों पश्चात मिली थीइसलिये प्रसन्नता का ठिकाना न रहा।
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मां को उसनेएक क्षण के लिए भी न छोड़ा।इसलिये उसे गांव के दूसरा बालकों का सुधार करने या शिक्षा देने का टाइमही नहीं मिला। ठाकुर नरेन्द्र सिंह तथा उनकी पत्नी ने अपनी बहू के दूसरे पति - अंग्रेज पति - को पहली बार देखा था। पति अंग्रेज था परन्तु सगी बहू के कारण उसके दूसरे पति को देखने के बादउन्को अपना बेटा याद पहुँचना स्वाभाविक था। उन्होंने उसका ऐसा स्वागत किया मानो उनका अपना बेटा वर्षों पश्चात लंदन से आया है। मम्मी ने उसकी बलाइयां लीं। ठाकुर नरेन्द्र सिंह ने उसको जी भरकर आशीर्वाद दिया। उसके लम्बे जिंदगी की कामना की। उसके स्वागत में उन्होंने दो दिन बादएक शानदार पार्टी दी जिसमें गांव के ही नहीं शहर के भी प्रतिष्ठित लोगों को आमंत्रित किया। शाम को अपने निश्चित टाइमपर जब पार्टी प्रारंभ हुई तब देखते ही लगता था। रंगीन बल्बों से कोठीइसे तरह सजी थी कि आंखें चौंधिया जाती थीं। पार्टी में गांव के गिने-चुने प्रतिष्ठित व्यक्तियों के संग मोहनसिंह का परिवार भी आमंत्रित था। जिस टाइममोहनसिंह अपनी धर्मपत्नी के संग पार्टी में पधारे तो दरवाजा पर स्वागत करते टाइमठाकुर नरेन्द्र सिंह उपस्थित थे। उस टाइमवन्दना भी वहीं समीप ही अपनी सहेली के संग खड़ी बातें कर रही थी। ठाकुर नरेन्द्र सिंह
ने मोहन सिंह तथा उनकी पत्नी को पार्टी में सम्मिलित होते देखा तो स्वागत करने के पश्चात पूछा, ‘अरे, सिर्फ आप ही दोनों आए हैं क्या? आपका लड़का नहीं आया?’ नरेन्द्र सिंह ने अमर के लिए इधर-उधर देखा। ‘क्या बताएं जागीरदार साहब, अब वह सुबह तो सुबह, शाम को भी कुश्ती लड़ने अवश्य जाता है।’ मोहन सिंह ने विवशता प्रकट की। बोले, ‘कहता है कि अब दूर-दूर के गांव तो क्या दूर-दूर के शहर भी मेरे साहस, मेरे दांव-पेंच तथा बल का मुकाबला नहीं करने पाएंगे। जब तक मैंइसे लगन को पूरा नहीं कर लूंगा, चैन की सांस नहीं लूंगा।’ वन्दना के कान मोहन सिंह केइसे वाक्य को सुने बिना नहीं रह सके। परन्तु उसके दिल में किसी तरह की धड़कन नहीं उत्पन्न हुई। दस वर्ष की लड़की वह अवश्य थी। प्रेम का थोड़ा-बहुत अर्थ तो समझती थी, परन्तु प्रेम की भावना लेकर उसका दिलएक बार भी नहीं धड़क सका। उसे खुशी हुई - सिर्फ खुशी, जिसका प्रेम से कोई सम्बन्ध नहीं था। उसने सोचा अगले दिन वह अवश्य गांव के दूसरा बालकों में ऐसी ही जागृति उत्पन्न करने का प्रयत्न करेगी। परन्तु तभी प्रसन्नता के सुनहरे मौके पर अचानक गम काएक तूफान उमड़ पड़ा। शेर सिंह के आदमियों ने नरेन्द्र सिंह की कोठी पर चढ़ाई कर दी। यानीएक युद्ध छिड़ गया। गोलियां
चलीं। मोहन सिंह ही नहीं उसकी बहादुर पत्नी ने भी नरेन्द्र सिंह के घराने की रक्षा करने में पूरा संग दिया। दोनों ही मारे गए। वन्दना के सौतेले तथा विदेशी पिता नेएक डाकू पर काबू पाना चाहा तो घायल हो गया। गोली बाएं कन्धे पर लगीइसलिये जान बच गई। डाकुओं को मुकाबला उनकी ताकत से ज्यादा मिला था। नरेन्द्र सिंह की दी गई पार्टी में गांव के साहसी आदमी भी सम्मिलित थेइसलिये डाकू भाग खड़े हुए। परन्तु कोठी में कोहराम मच गया था, कोहराम मचा रहा। चीखें-चिल्लाहट जारी रहीं। मोहन सिंह की हत्या क्या हुई मानो नरेन्द्र सिंह का ही नहीं गांव का भी दाहिना हाथ कट गया। अमर सिंह को पता चला तो वह दौड़ा-दौड़ा कोठी पहुंचा। आकर पिता की छाती से लिपट गया। फूट-फूट कर वह रो पड़ा। बच्चा ही तो था। अब उसकाइसे संसार में कौन था जो उसे पालता-पोसता? कुछेक मेहमान उसे तसल्ली दे रहे थे परन्तु उसे तसल्ली मिलती भी कैसे? वह तो अनाथ हो चुका था। वन्दना वहीं भयभीत-सी खड़ी अमर को देख रही थी। उसका सौतेला पिता घायल हुआ था। मम्मी दूसरे कमरे में उसकी मरहम पट्टी कर रही थी। वहीं ठाकुर नरेन्द्र सिंह तथा उनकी पत्नी भी थी। परन्तु वन्दना अमर के पास से नहीं
हटी। उससे अमर के आंसू देखे नहीं जा रहे थे। अब ये अनाथ बालक अपने जिंदगी में क्या करेगा? कहीं ये अपने बढ़ते साहस के पगों को पीछे न खींच ले? अपने उद्देश्य से मुंह न मोड़ ले? बुरे रास्ते की ओर दोबारा न चल पड़े? वन्दना अमर की रोती स्थिति को देखकर यही सोच रही थी। ‘वन्दना डार्लिंग-’ तभी उसकी मम्मी ने उसका हाथ पकड़ कर उसे अपनी ओर खींचते हुए मिली-जुली हिन्दी तथा अंग्रेजी में कहा, ‘कम ऑन, अब हमइसे घर मेंएक मिनट भी नहीं रहेगा।’ ‘जी मम्मी?’ वन्दना मानो कुछ समझी नहीं। ‘हम इसी वक्त लन्दन के लिए ये स्थान छोड़ देगा।’ उसकी मम्मी ने कहा, ‘और संग में तुमको भी ले जाएगा। तुम्हारे डैडी को हम पहले ही खो चुके हैं। अब यहां छोड़ तुम्हें नहीं खो सकता। वन्दना की मम्मी उदास हुई थी। आज वह उसी ढंग पर अपना दूसरा पति भी खो सकती थी जिस ढंग पर उसने अपना पहला पति करीब दस वर्ष पहले यहीं खोया था। आज वहएक बार दोबारा विधवा बन सकती थी जैसे दस वर्ष पहले विधवा बनी थी।
वन्दना ने जाते-जाते पलटकर अमर को देखा। वह अपनी मम्मी के पगों पर आंसू बहाता हुआ सिसक रहा था। वन्दना के मन में टीस उठी - ऐसी टीस जिसमें अमर के प्रति संवेदना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। वह अपनी मम्मी के संग दूसरे कमरे में चली गई। उसके पिता के कंधे पर पट्टी बंध चुकी थी। उसने अपने दादा-दादी जी को देखा। सारा बचपन उसने उनकी छाया में बिताया था। उनसे बिछड़ने का अहसास करके वह अपने दादाजी से लिपट गई। दादी ने भी उसे अपनी छाती से लगा लिया। दादाजी ने उसके सिर पर प्रेम से हाथ रखा। दोबारा भर्राए स्वर में कहा, ‘तेरा जिंदगी लंदन में ही सुरक्षित है बेटी, वर्ना मैं स्वयं बहू से तेरी भीख मांग लेता। जा, और सुखी रहना।’ उन्होंने उसे दिल की गहराई से आशीर्वाद दिया। वन्दना अगली सुबह ही अपने माता-पिता के संग शहर के लिए रवाना हो गई थी ताकि हवाई अड्डे से लन्दन जाने वाला पहला जहाज पकड़ सके। लंदन पहुंचने के पश्चात जिस तरह की शिक्षा उसने प्राप्त की उसने उसे बिल्कुल ही अंग्रेज बना दिया। प्रारंभ से ही अंग्रेज मम्मी पर उसका रंग-रूप गया था, आयु के संग रंग-रूप उभरा तो वह मिसरी की सफेद डली बन गई। सत्रह
वर्ष की आयु में उस पर दृष्टि ठहरना कठिन हो गया। दृष्टि ठहरती तो दोबारा चिपक कर ही रह जाती। लम्बा कद, छरेरा शरीर, अंग-अंग फूटता हुआ, सुनहरी रेशमी लटें, नीली आंखेंइसे तरह मानो नील नदी का गहरा पानी, सुर्ख कलियों जैसे पतले होंठ, गोल मुखड़ा, पतली गर्दन भगवान ने मानो स्वयं अपनी कला का प्रदर्शन करते हुउ उसे सफेद संगमरमर में छांटकर मूर्ति बनाने के पश्चात उसमें आत्मा फूंक दी थी। वन्दना के दिल में प्रेम की पहली कली ने उस टाइमअंगड़ाई ली जब वहएक शाम वर्डलैण्ड (होटल) में अपने माता-पिता के संग नृत्य उत्सव में सम्मिलित होने गई हुई थी। यूं तो वहां करीब सभी दिन संगीत तथा नृत्य का प्रोग्राम होता था परन्तु वह रात चौबीस दिसम्बर की रात थी जिसके बारह बजने के पश्चात क्रिसमस (ईसाइयों का त्योहार, बड़ा दिन) प्रारंभ होता है। उस दिन होटल के नृत्य हॉल में जैम सैशन था। भीड़ इतनी थी कि ऑर्केस्ट्रा की धुन पर नृत्य करते जोड़े एक-दूसरे से कदम-कदम पर टकरा जाते थे। यही कारण था कि वन्दना अपने माता-पिता के साथएक किनारे खामोश बैठी हुई थी। उसके पिता के सामने मेज पर व्हिस्की का जाम रखा हुआ था। मम्मी के सामने भी वाइन (सॉफ्रट ड्रिंक) का जाम था। परन्तु वन्दना केवल
कॉफी द्वारा ही अपना काम चला रही थी। अंग्रेज मम्मी से उत्पन्न होने तथा इतने वर्षों लन्दन में रहने के पश्चात् वह उस वस्तु को होंठों से लगाना पाप समझती थी जिसमें नाममात्र भी मदिरा मिली हो। परन्तु इसका ये अर्थ नहीं कि उसे ऊंचा समाज पसन्द नहीं था। ऊंचा समाज किसे पसन्द नहीं यदि वह वास्तव मेंएक ऊंचा समाज है। ऊंचा समाज वास्तव में सिर्फ वही होता है जिसमें ऊंची हस्तियों का संगठन होता है चाहे वह मनोरंजन के लिए हो या किसी और बात के लिए। ऑर्केस्ट्रा की सुरीली धुन हॉल के वातावरण में तैर रही थी। जवान जोड़े एक-दूसरे की बांहों में बांहें डाले थिरक रहे थे। हॉल के अन्दर का प्रकाश अपने नए-नए सुन्दर रगों का लिहाफ बदल रहा था। रात के बारह बजने में अभी बहुत देर थी। अचानक प्रकाश नीला हुआ - दोबारा गहरा नीला। नृत्य करते जोड़े छाया बन गए। अचानक ऑर्केस्ट्रा की धुन ड्रम की तेज गूंज में परिवर्तित हो गई। दोबारा अचानक ही संगीत ठहर गया। इसके संग ही हॉल जगमगाहट से प्रकाशमान हो उठा। हॉल के अन्दर लोगों की आंखें चकाचौंध हो उठीं। ज्यादा जोर की ताली बजी। नृत्य का ये भाग ख़त्म हो चुका था। लोग अपनी-अपनी जगहों पर पुनः चले गए।
कुछ देर पश्चात ऑर्केस्ट्रा की धुन दोबारा प्रारंभ हुई। स्वर में साज की प्राथमिकता सेक्सोफोन की थी। सेक्सोफोन की मधुर धुन ने जोड़ों को फर्श पर आकर हल्का नृत्य करने के लिए आमंत्रित किया। नवयुवक अपने हसीन साथियों के संग फर्श की ओर बढ़ गए। वन्दना उसी तरह खामोश बैठी हुई थी। अचानक अपने समीपएक स्वर सुनकर वह चौंक गई। ‘मे आई हैव द प्लेजर ऑफ डांस विद यू?’ कोई उससे कह रहा था। वन्दना ने देखा, उसके सामनेएक भारतीय नवयुवक खड़ा है। वह झुककर ज्यादा अदब के साथ, अपनाएक हाथ शहजादों के समान अपनी कमर के सामने फैलाते हुए उसने निवेदन किया था। देखने में भी वह किसी राजकुमार से कम नहीं था। लम्बा कद, घनी लटें, चौड़ी कलमें, बिल्कुल गोरा-चिट्टा । उसकी आंखों मेंएक मुस्कराती चमक थी, होंठों पर हल्की परन्तु बड़ी सुन्दर और आकर्षक मुस्कान जिससे वन्दना प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। उसने नवयुवक को उपरि से नीचे तक देखा, उसके बदन पर राजकुमारों जैसा ही कोट था, लाल, गुलाब समान, जिसके कॉलर परएक सफेद गुलाब टंका हुआ था। क्रीम रंग की पैंट, क्रीम रंग के पेरिस के बने जूते वह पहने हुए
था जिनका सारे संसार में कोई मेल नहीं। उसकी पैंट के रंग से ही मेल खाती गर्दन की टाई थी जिस पर लहरदार पतली धारियों का रंग उसके कोट समान लाल था। ऐसे सुन्दर तथा ‘मैचिंग’ पहनावे में उस नवयुवक का व्यक्तित्व निखरकर और प्रभावशाली बन गया था। वन्दना के बदन में भारतीय पिता का रक्त था। इतने सुन्दर भारतीय नवयुवक को देखकर उसकी इच्छा हुई कि वह तुरन्त उसके संग नृत्य के लिए खड़ी हो। परन्तु उसके अन्दरएक भारतीय नारी की आत्मा के संग लाज भी जीवित थी। वह तुरन्त नहीं उठ सकी, उसने अपनी मम्मी की ओर देखा। ‘गो अहेड माई डॉटर।’ अंग्रेजी सभ्यता में रंगी वन्दना की अंग्रेज मम्मी ने वन्दना को उत्साहित किया। वन्दना उठी, बिल्कुलइसे तरह मानो कली बहारों का हल्का-सा झोंका पाकर फूल बन जाना चाहती हो। खड़ी होने पर वन्दना का कद उस नवयुवक को शायद कुछ ऐसा ही लगा था। वन्दना ने बड़ी कोमलता के संग अपने कंधे पर से ‘केप’ उतारकर कुर्सी पर टांगा। दोबारा नवयुवक के संग वह नृत्य के लिए फर्श की ओर बढ़ गई। नवयुवक ने भी बड़ी कोमलता से अपने हाथों को आगे फैलाया तो फूलों से लदी टहनी के समान वन्दना नवयुवक की बांहों में चली गई। नवयुवक ने उसके मुखड़े के फूल को अपने कोट
के कॉलर से लगा लिया। बांहों में लेकर वह उसे ज्यादा प्रेम के संग हल्के-हल्के ‘फोक्स-ट्राट’ करने लगा। नवयुवक की सांसों की गर्मी वन्दना को ज्यादा अच्छी लगी। ‘क्या मैं आपका शुभ नाम जान सकता हूं?’ कुछ देर उसी तरह नृत्य के पश्चात नवयुवक ने पूछा। ‘वन्दना।’ वन्दना ने छोटा-सा उत्तर दिया। ‘मुझे रोहित कहते हैं।’ नवयुवक ने अपना परिचय दिया। ‘आप भारत से आए हैं?’ वन्दना ने अपने स्वर में कंपन के संग पूछा। ‘जी नहीं। रोहित ने कहा, ‘मैं तो लन्दन का ही निवासी हूं यहीं उत्पन्न हुआ, यहीं पढ़ा-लिखा तथा जवान हुआ हूं। हां, मेरे माता-पिता कभी अवश्य भारतवासी थे। परन्तु अब उन्होंने भी यहां की राष्ट्रीयता प्राप्त कर ली है।’ ‘परन्तु मैं तो भारत की उत्पत्ति हूं।’ वन्दना ने कहा। ‘अरे!’ रोहित ने आश्चर्य प्रकट किया। बोला, ‘देखने में तो आप बिल्कुल अंग्रेज लगती हैं। क्या आपके माता-पिता भारत के दौरे पर थे जब आप वहां उत्पन्न हुईं?’ ‘जी नहीं। मेरे पिताजी भारतीय थे। भारत में ही रहते थे वह-’ वन्दना ने अपने विदेशी तथा सौतेले पिता की ओर
इशारा करते हुए कहा, ‘मेरी मम्मी के दूसरी पति हैं। ये मेरा दुर्भाग्य है कि मेरे उत्पन्न होने से पहले ही मेरे पिताइसे संसार से चल बसे।’ वन्दना गम्भीर हो गई। ‘आई एम सॉरी।’ रोहित ने खेद प्रकट किया। दोबारा नृत्य के मध्य उसने वन्दना को अपनी छाती के और भी करीब कर लिया। ऐसा न हो कि वन्दना ऐसे सुन्दर उत्सव में अपने पिता की याद द्वारा उदास हो जाए। वन्दना से उसेएक अलग संवेदना भी हो गई। नृत्य के मध्य दोनों ज्यादा घुलमिल गए। बॉल-डांस अपरिचित लोगों में परिचय बढ़ाने का ज्यादा बड़ा कर्त्तव्य अदा करता है। शायद खाने के पश्चात टहलने का बहाना नृत्य द्वारा पूरा करके स्वास्थ्य बनाने का मकसद पूरा करने के साथ-साथ परिचय बढ़ाना भी बॉल-डांस काएक विशेष मकसद है। ऑर्केस्ट्रा की मीठी धुन हॉल के वातावरण में तैर रही थी। रंगीन वस्त्रों में हसीन जोड़े एक-दूसरे की बांहों में बांहें डाले ज्यादा प्रेम से नृत्य कर रहे थे। ऐसा लगता था मानो आकाश से अप्सराएं उतरकर धरती के युवकों के संग नृत्य कर रही हों। पहले समान हॉल के अन्दर धीमे-धीमे रंगों का वातावरण दोबारा नीला हुआ - नीला - और नीला -
और गहरा नीला।एक बार दोबारा नृत्य करते जोड़े छाया बन गए।एक ओर दीवार पर टंगी घड़ी की दोनों सुइयां अंक बारह की ओर बड़ी अधीरता के संग बढ़ रही थीं। उत्सव रात की अंगड़ाई लिए अपने भरपूर यौवन पर था। रोहित ने वन्दना को अपनी छाती के बिल्कुल ही समीप कर लिया। वन्दना के दिल की धड़कनें ऑर्केस्ट्रा की धुन की गति के संग ज्यादा तेज हो गईं। वन्दना ही क्या, रोहित तथा सभी जोड़ों के दिल की धड़कनें ऐसे रंगीन वातावरण में अपनी चरम हद पर पहुंच चुकी थीं। वन्दना की इच्छा हुई कि ये टाइमकभी ख़त्म न हो। धुन इसी तरह बजती रहे। टाइमअपने स्थान पर ठहर जाए। परन्तु टाइमकभी अपने स्थान पर नहीं ठहरता।इसे बात को ज्ञात करके वन्दना को ज्यादा देर नहीं लगी। घड़ी की दोनों सुइयांएक बनकर अंक बारह पर पहुंच चुकी थीं। दिन ख़त्म हो चुका था जिसकी घोषणा ऑर्केस्ट्रा की तेज धुन तथा क्षण भर के उस घने अंधकार ने कर दी जिसे हॉल के अन्दर सारी ही बत्तियां बुझाकर प्रवेश करने का अवसर दे दिया गया था।इसे क्षण भर के अंधकार में किस किस कली या फूल से कुछ कहा या चुम्बन लिया किसी को अपने अतिरिक्त दूसरे के विषय में कुछ पता नहीं चला। परन्तु वन्दना को अपने विषय में इतना अवश्य ज्ञात हो गया कि उसके भंवरे
ने उससे कुछ न कहकर भी ज्यादा कुछ कह दिया था। उस क्षण भर के अंधकार में रोहित की बांहें सिर्फ क्षण भर के लिए ही उसके बदन पर सख्त होकर रह गई थीं। तभी ऑर्केस्ट्रा की धुनएक गूंज के संग ख़त्म हो गई। इसके संग ही हॉल नीअन लाईट्स से प्रकाशमान हो उठा। नृत्य करते जोड़े अचानक चौंककर एक-दूसरे से अलग हो गए। बड़े दिन का प्रारम्भ हो चुका था। लोगों ने दिल खोलकर जोर और हंगामा से ताली बजाते हुएइसे शुभ दिन का स्वागत किया। उसके पश्चात नृत्य के और भी अनेक दौर चले। वन्दना हर क्षण रोहित की बांहों में ही रही। दोनों एक-दूसरे के और भी समीप आ गए,इसे तरह मानो वर्षों से एक-दूसरे को जानते हों। नृत्य रात के दो बजे तक चलता रहा परन्तु वन्दना के पग इतना टाइमहोने के पश्चात् जरा भी नहीं थके। दोबारा जब नृत्य ख़त्म हो गया तो वन्दना को रोहित ने उसकी मेज के समीप छोड़ा। वन्दना के लिए रोहित ने उसकी कुर्सी कुछ पीछे खींचकर मेज से अलग की। वन्दना ने कुर्सी पर रखा ‘केप’ उठाकर अपने बदन पर डाला। दोबारा कुर्सी पर बैठ गई और मुस्कराती दृष्टि से रोहित को देखा।
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‘थैंक यू वेरी मच फॉर द कम्पनी।’ रोहित ने उसी सभ्यता के संग झुककर कहा जिस तरह उसने आकर उसे नृत्य के लिए पूछा था। वन्दना कुछ कहना चाहकर भी कुछ नहीं कह सकी। शायद दिल में अचानक समाई मीठी धड़कन ने उसके अन्दर लाज भर दी थी। उसके स्थान पर उसकी मम्मी को रोहित से कहना पड़ा, ‘यू आर वेल्कम माई बॉय।’ रोहित चला गया। उस दिन के पश्चात वन्दना की रोहित से इसी होटल में इकत्तीस दिसम्बर, अर्थात् नए वर्ष सेएक रात पहले दोबारा मुलाकात हुई। वह रात भी जश्न की थी जो अपने यौवन पर आने की इंतजार कर रही थी ताकि नए वर्ष का शुभ दिन प्रारम्भ करे। उस दिन भी वन्दना हर क्षण रोहित की बांहों में रही। उस रात रोहित ने दूसरे ढंग का रंगीन वस्त्र पहन रखा था। परन्तु उसके कॉलर पर लगे गुलाब का रंग वही सफेद था जोइसे बार उसकी सफेद रंग के फूल में रुचि का प्रमाण दे रहा था। यद्यपि आज के सूट में उसका वह व्यक्तित्व नहीं झलक रहा था जोएक सप्ताह पहले इसी होटल में चौबीस दिसम्बर की रात को लाल कोट तथा क्रीम रंग की पैंट के संग लाल तथा पतली लहरदार टाई में झलका था फिर
भी देखने में ये किसी भारतीय राजकुमार से कम नहीं था। वन्दना को उसकी संगति में प्रेम का अगाह सागर प्राप्त हो गया था। दोबारा मुलाकातें बढ़ीं, बढ़ती ही चली गईं, हर आने वाले दिनों में, कुछइसे तरह कि अब दोनों एक-दूसरे के बिना रह ही नहीं पाते थे। मुलाकातों के मध्य वन्दना को पता चला कि रोहित काइसे संसार में कोई नहीं है। मम्मी का निधन ज्यादा पहले हुआ था। पिता का निधन छह मास पहले ही हुआ था। कभी उसके पिता का बढ़िया बड़ा कारोबार था। लन्दन में इमारतें बनाने वालीएक कम्पनी के वह छोटे-से भागीदार थे परन्तु आमदनी अच्छी थी। अपने बेटे रोहित को वह इंजीनियरिंग दिलाकर आर्कीटेक्ट की स्पेशल ट्रेनिंग दिलाना चाहते थे, क्योंकि रोहित को बचपन से ही इसका ज्यादा शौक था। रोहित की शिक्षा पूरी होने के पश्चात वह लन्दन की कम्पनी में अपना शेयर ख़त्म करके स्वाधीन काँट्रैक्टर बनना चाहते थे। रोहित सेउन्को ज्यादा सारी आशाएं बंधी हुई थीं। रोहित ने अपनी शिक्षा के मध्य अपनी योग्यता का कमाल ऐसा दिखाया था कि उसके अंग्रेज शिक्षक भी दंग रह जाते थे। प्रायः मकान के जिस नक्शे को वहएक बार देख लेता था उसे दोबारा देखने की आवश्यकता उसे कम ही पड़ती थी। आवश्यकता
उस टाइमदेखने की पड़ती थी जब उसके ‘ट्रेसर्स’ नक्शे की कापियां बनाकर अन्तिम मिलान के लिए उसके सामने रखते थे। रोहित की तेज समझदारी मेंएक विशेष गुण था। वह गुण ये था कि किसी भी नक्शे को देखने के पश्चात नक्शे की कापी उसके दिल और दिमाग के कैनवास पर अंकित हो जाती थी। ऐसे लोग संसार में ज्यादा कम होते हैं। ऐसे बुद्धिमान लोगों को युद्ध में अच्छी पदवी के लिए विशेष प्राथमिकता दी जाती है। इन्हें शत्रु के या नष्ट करने वाले अड्डे का नक्शा अच्छी तरह दिखाकर उनकी बटालियन के संग युद्ध में भेजा जाता है। रास्ते में यदि सतर्क शत्रु के अचानक हमले के कारण नक्शा नष्ट हो जाता है तो बटालियन का वह बुद्धिमान इंजीनियर अपनी स्मृति के सहारे अपनी बटालियन के बचे-खुचे फौजियों को शत्रु के अड्डे तक ले जाने में कामयाब हो जाता है क्योंकि नक्शा नष्ट होने के पश्चात् नक्शे की छाप उसके दिल और दिमाग पर उसी तरह बनी रहती है। छह मास पहले पिता की मृत्यु हुई तो रोहित ने स्वयं को संसार में पहली बार बिल्कुल तन्हा पाया। परन्तु दोबारा परिस्थितियों पर काबू पाकर उसने लन्दन की कम्पनी में अपने पिता का शेयर ख़त्म कर लिया। जो पैसे मिला उसे बैंक में डाल दिया और अपनी शिक्षा जारी रखी। शिक्षा
ख़त्म करने के पश्चात वह अब भी अपने स्वर्गवासी पिता की इच्छा का आदर करते हुएएक स्वाधीन काँट्रैक्टर बनना चाहता था तथा इमारतों के नक्शे अपनी पसन्द से बनाना चाहता था। ये उसकाएक ज्यादा बड़ा स्वप्न था जिसे वह अपनी तेज समझदारी के कारण ज्यादा आसानी से पूरा कर सकता था। यही कारण था कि वह लंदन की बड़ी-बड़ी फर्मों में नौकरी का प्रस्ताव आकर्षक होते हुए भी सदा ठुकराता चला आया था। वन्दना को पता चला कि रोहित अनाथ है तो उसे उससे संवेदना भी हो गई। उसकी योग्यता के विषय में जब उसे जानकारी प्राप्त हुई तो उसने अपने भाग्य को धन्य कहा। उसने ही नहीं उसकी अंग्रेज मम्मी ने भी भगवान को धन्य कहा जिसने वन्दना के जिंदगी में प्रेम की डोर रोहित जैसे गुणी नवयुवक से बांध दी थी। रोहित को उसने मम्मी का प्रेम दिया। यूं भी रोहित के विषय में सब-कुछ जने बिना उसकी अन्तरात्मा रोहित को बेटी के लिए पहले ही पसन्द कर चुकी थी। वन्दना के सौतेले पिताजी भी वन्दना तथा अपनी पत्नी की प्रसन्नता में पूर्णतया सम्मिलित थे।
धूप और चढ़ गई। दुर्गापुर गांव में अपनी कोठी की ऊपरी मंजिल पर वन्दना को अच्छी धूप लग रही थी परन्तु उसका दिल ज्यादा उदास था। पिछली बातें याद करके जब उसका मन और भी भारी हो गया तो उसने मंजिल से नीचे उतर जाना चाहा। अभी वह सीढ़ियों की ओर पलटी भी नहीं थी कि तभी उसने देखाएक नवयुवक ज्यादा ध्यान से उस ताड़ के तने की चोटी को देख रहा है जिससे वन्दना के बचपन कीएक मासूम याद सम्बन्धित थी। युवक अपरिचित था। वह गांव में पहली बार दिखाई दे रहा था। लंदन से दस वर्ष पश्चात वहां लौटने पर गांव के सभी वासियों ने उससे मुलाकात भी की। भारत को स्वतन्त्र हुएएक युग बीत गया था दोबारा भी ‘छोटी रानी-छोटी रानी’ कहकर सभी ने उसका आदर किया था। उससे हार्दिक संवेदना प्रकट की थी। संवेदना दिखाने उसके यहां आने के अगले ही दिन से उससे उसके गम कम हो गए थे। गम? कैसा गम था उसको? उसने वहां क्या खो दिया था? अपने जिंदगी की सारी प्रसन्नताएं। लंदन से दस वर्ष पश्चात लौटी थी, अकेली नहीं, रोहित के साथ, अपने दादाजी के सैक्रेटरी का तार प्राप्त करके, क्योंकि उसकी दादी का निधन हो गया था। उधर उसके सौतेले पिताजी का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं थाइसलिये मम्मी नहीं आ सकी थी। सौतेले पिता का स्वास्थ्य
अचानक ही खराब हो जाने के कारण ही मम्मी संसार की लंबी यात्रा पर भी नहीं निकल सकी थीं जिसका प्रबन्ध वह पहले ही पासपोर्ट तथा वीसा लेकर कर चुकी थीं। यात्रा के मध्य भिन्न-भिन्न देशों में ठहरने का टाइमसीमित थाइसलिये वहइसे सीमित टाइमका उपयोग अपने पति के स्वस्थ होते ही तुरन्त करने के पक्ष में थी। पता नहीं दोबारा संसार की ऐसी सुन्दर यात्रा का अवसर कब मिलता या कभी नहीं भी मिलता?इसे संसार में कुछ ऐसे ऐतिहासिक देश हैं जहां यात्रा का नियम बदलते ज्यादा देर नहीं लगती। वन्दना की विदेशी मम्मी भारत नहीं आई परन्तु उदार मन की होने के कारण वन्दना के कहने से उसने रोहित को उसके संग जाने की आज्ञा दे दी थी। यूं भी वन्दना की मम्मी को अपने भारतीय सास ससुर से कोई लगाव नहीं था जिनकी व्यक्तिगत शत्रुता के कारण उसने भारत आते ही अपना पहला पति खो दिया।’ दस वर्ष पश्चात वन्दना रोहित के संग दुर्गापुर पहुंची थी तो शाम ढल चुकी थी। गहरा अन्धकार था। गहरी खामोशी थी। गांववासी ज्यादा संतोष की नींद सो रहे थे। वन्दना अपनी दादी की मृत्यु के दस दिन पश्चात ही दुर्गापुर पहुंची थी क्योंकि लंदन में अनथक प्रयत्न करने के पश्चात् पासपोर्ट या दूसरा आवश्यक कागजात प्राप्त करने में इतना टाइमलग
गया था। तब तक तो उसकी दादी की चिता की राख भी ठण्डी हो चुकी थी। दुर्गापुर में आकर वन्दना जब अपनी कोठी में प्रविष्ट हुई तो उसके दादाजी बेहोश थे, जिंदगी से थके-हारे। कोठी का वही प्राचीन सैक्रेटरी था जो वर्षों से उसके दादाजी की सेवा ज्यादा वफादारी से कर रहा था। दादाजी की दिन-रात देखभाल के लिए सैक्रेटरी नेएक नर्स भी रखी थी जो नियमित टाइमसेउन्को दवा और इंजेक्शन देती रहती थी। परन्तु वन्दना के दादाजी को कोई भी लाभ अब तक नहीं हुआ था। बेहोशी में वह अपनी पत्नी के संग बेटे का नाम भी ले रहे थे। बेहोशी में कभी-कभी दांत पीसकर वह शेर सिंह से भी बदले की भावना प्रगट कर रहे थे। शायद ऐसाइसलिये था क्योंकि उनकी पत्नी ने मरने से पहले स्वयं भी बेटे को ज्यादा याद किया था जिसकी हत्या का सदमाउन्को ज्यादा बड़ा पहुंचा था। बेटे की हत्या के पश्चात वह सदा अन्दर ही अन्दर घुटती रहती थीं। नर्स के संग सैक्रेटरी भी कोठी के अलग कमरे में दिन-रता रहता था। कोठी में तो वह प्रारंभ से ही रहता आया था परन्तु उसका परिवार शहर में उसके सास-ससुर के यहां था, जहां कभी-कभी वह अपने परिवार से मिलने चला जाता था क्योंकि उसके बच्चे शहर के ही स्कूल में पढ़ते थे। कोठी में खाना पकाने के लिए एक
महाराजिन भी थी, जो सुबह आती थी और शाम को चली जाती थी। वन्दना ने अपने दादाजी की दयनीय स्थिति देखी तो दिल फट गया। दादाजी की छाती से लिपटकर वह फूट-फूटकर रो पड़ी। उसने तय कर लिया कि वह अपने दादाजी कोएक बड़े शहर के बड़े अस्पताल में ले जाकर उनका पूरा इलाज करवाएगी, रोहित से भी वन्दना के दादाजी की हालत देखी नहीं गई। उसने वन्दना के इरादों में पूरा संग देना आवश्यक समझा। वन्दना के दिल की शांति में ही उसका अपना प्रेम सुरक्षित था। उसी रात जब वन्दना अपने दादा के कमरे में लेटी हुई थी तोएक युग के पश्चात डाकू शेरसिंह के आदमियों ने अचानक हमला किया। हमला करने का कारण था, शेर सिंह को अपने सूत्रों द्वारा पता चल गया था कि ठाकुर नरेन्द्र सिंह की खूबसूरत पोती अपने दादा से मिलने आई है। यही कारण था कि उसने उसका अपहरण करने के लिए अपने आदमियों को सुबह होने से पहले ही भेज दिया था। हमला अचानक था। इतने वर्षों पश्चात था। दोबारा भी गोलियों का धमाका सुनकर गिने-चुने साहसी युवक कोठी की ओर दौड़ पड़े थे। हमले का मुकाबला रोहित तथा नरेन्द्र सिंह के सैक्रेटरी ने भी बन्दूकों द्वारा किया, जिसमें निर्दोष नर्स भी
अकारण ही मारी गई। नरेन्द्र सिंह के सैक्रेटरी को भी अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। दोबारा भी अपहरण असफल रहा। डाकू भाग खड़े हुए तो रोहित ने उनका पीछा किया लेकिन ज्यादा दूर से। उस दिन के पश्चात से रोहित कभी नहीं जीवित लौटा। आक्रमण के दो दिन बादएक गली-सड़ी लाश समीप की नदी में पाई गई थी जिसका सिर काटकर धड़ से अलग कर दिया गया था। यदि उसके बदन पर रोहित के कपड़े नहीं होते तो वन्दना भी उसे नहीं पहचान सकती थी। रोहित के लिए वन्दना ही सभी कुछ थी और वन्दना के लिए रोहित। वन्दना कोइसे बात ने ज्यादा सहारा दिया कि रोहित के लिए आंसू बहानेवालाइसे संसार में उसके अतिरिक्त कोई नहीं था। संसार में रोहित का और था भी कौन? वन्दना अपने दिल पर सब्र का मनोबोझ पत्थर रखकर चुप हो गई थी। उसे तसल्ली देने के लिए वहां सिर्फ गांववासी ही रह गए थे, दादाजी तो अब अर्द्ध बेहोश थे।उन्को तो ये भी पता नहीं था कि उनके सिर पर से कयामत का इतना बड़ा तूफान निकल गया है। यदि वन्दना के सामने शेर सिंह पड़ जाता तो वह अपनी जान की चिन्ता न करते हुए उसका मुंह नोच लेती। उसे पेड़ से बंधवाती और दोबारा अपने हाथों से उस पर पैट्रोल छिड़ककर आग लगा देती। कमबख्त के बाप ने
उसके पिता को उसके उत्पन्न होने से पहले ही मृत्यु के घाट उतार दिया था। उसी के कारण ही आज उसके दादाजीएक जीती-जागती लाश बने हुए थे। और अब उसके बेटे शेर सिंह के कारण उसके प्रेमी, उसके होने वाले मंगेतर को भी अपनी जान से हाथ धोना पड़ गया था। वन्दना के अन्दर शेर सिंह के प्रति इतनी ज्यादा घृणा भर गई थी कि वह उसे मरवाने के लिए अब अपने जिंदगी की हर बाजी लगाने को तैयार थी। रोहित की लाश के अन्तिम संस्कार में गांव के सभी वासी सम्मिलित हुए थे। कुछ दिनों के पश्चात शेर सिंह के आतंक से परेशान होकर सरकार ने दुर्गापुर मेंएक पुलिस चौकी का प्रबन्ध कर ही दिया परन्तु अब क्या होता है? सभी कुछ तो उसका लुट गया। रोहित की हत्या के पश्चात वन्दना तुरन्त अपनी मम्मी के पास चली जाना चाहती थी परन्तु बीमार दादाजी को छोड़ने का साहस नहीं हुआ। मम्मी को भी उसने रोहित की हत्या के विषय में तुरन्त बताना उचित नहीं समझा था। मम्मी उसे तुरन्त भारत छोड़कर आने की आज्ञा दे देती। अपने पति की हत्या के पश्चात अब वह अपनी एकमात्र बेटी के जिंदगी पर किस तरह डर मोल ले सकती थी? वन्दना अपने दादाजी को लेकर शहर के अस्पताल पहुंच गई थी। अस्पताल में
दादाजी की स्थिति कुछ सुधरी तो उन्होंने इच्छा की कि वह अपनी अन्तिम सांसें उसी कोठी में तोड़ना चाहते हैं जहां उनके बेटे तथा पत्नी ने दम तोड़ा है, अपने खानदानी स्तर का ध्यान रखते हुए। परन्तु वन्दना की जिद के आगे उनकीएक भी नहीं चली। आखिर वह स्वस्थ हो ही गए। स्वस्थ होकर वह कोठी में आराम करने दोबारा चले गए ताकि कुछ दिनों पश्चात जब पासपोर्ट बन जाए तो वह अपनी पोती के संग लंदन चले जाएं। वहां जाकर यदि इच्छा हुई तो वह अपने भारतीय परिचित लोगों द्वारा कोठी को बेच देंगे या दोबारा यहां पुनः चले आएंगे। जिंदगी के अब दिन ही कितने शेष थे? इसके पश्चात् शेर सिंह से बदले की भावना अब भी ज्वाला समान उनके दिल के अन्दर भड़क रही थी। रोहित की हत्या हुए आज दो मास से भी ज्यादा हो चले हैं। वन्दना को अपने दादाजी के लिए पासपोर्ट की इंतजार है परन्तु दादाजी की अस्वस्थता के कारण पासपोर्ट मिलने में विलम्ब हो रहा है। दोबारा भी पासपोर्ट तो मिल ही जाएगा। आखिर लोग अस्वस्थ होने के कारण इलाज कराने के लिए भी तो लंदन जाते हैं। ठाकुर नरेन्द्र सिंह की अस्वस्थ कमजोरी का ये हाल था कि अभी अपने बदन का भार संभालकर चलना भी उनके लिए कठिन था। दोबारा भी कोठी के अन्दर वह दो चार पग चल ही लेते थे। आखिर
एक स्थान पर बैठे-बैठे भी तो पुरुष का मन उकता जाता है।इसे बीच वन्दना को अपनी विदेशी मम्मी से केवलएक पत्र आया। उसका पति स्वस्थ हो चुका है और अब वह जल्दी ही उसके संग विदेश कीएक लम्बी यात्रा पर जा रही है। वहएक प्रयोगात्मक जिंदगी पर विश्वास करती थीइसलिये उसने इतनी लम्बी यात्रा द्वारा टाइमनष्ट करके इतना पैसे खर्च करके भारत आने के पश्चात दुख में सिर्फ दो शब्द कहना बिल्कुल मूर्खता समझा । रोहित की हत्या से अनभिज्ञ उसने नरेन्द्र सिंह की पत्नी की मृत्यु पर खेद प्रकट करते हुए अपने पत्र में सिर्फ दो पंक्तियों से ही काम चला लिया था। अपने पत्र का उत्तर देने के लिए भी उसने वन्दना को मना कर दिया था क्योंकि अपने पति की इच्छा पर वह किस देश में कितने टाइमतक रहेगी, पहले से स्वयं नहीं जानती थी। उसने लिखा था कि आवश्यकता पड़ने पर वह कभी-कभी उसे स्वयं पत्र डाल दिया करेगी। वन्दना के पक्ष में ये बढ़िया ही सिद्ध हुआ। न वह अपनी मम्मी को पत्र लिखेगी और न उसे रोहित की हत्या के विषय में कुछ बताने का अवसर ही मिलेगा।
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