Rajsharma Sex Story : प्यासी शबनम लेखिका रानू (Romance Special)
उसने कहा - ‘वाह, ये टाई तो वास्तव में बड़ी सुन्दर है। जो सूट तुमने मुझे अभी-अभी दिखाया है उस पर तो ये ज्यादा ही ज्यादा शोभा देगी।’ वन्दना अमर की प्रसन्नता में सम्मिलित होकर खिल उठी।इसे टाइमउसके दिल में चोर नहीं समाया क्योंकि ये टाई वैसी नहीं थी जैसीएक बार चौबीस दिसम्बर की रात के उत्सव में रोहित ने अपने लाल कोट के संग पहन रखी थी। यद्यपिइसे टाई में क्वालिटी का अन्तर ज्यादा था परन्तु डिजाइन का जो अन्तर था वह सिर्फ इतना था कि रोहित की टाई में पतली लाल धारियां लहरदार थीं और इसमें धारियां सीधी थीं। दोबारा भी ये अन्तर वन्दना के लिए ज्यादा बड़ा था जिसने उसके दिल को ज्यादा संतोष दिया। अमर को वह हर वस्तु रोहित समझकर नहीं पहना रही है - उसने ऐसा सोचा। इसके पश्चात वन्दना ने अमर के लिए और भी ज्यादा वस्त्र खरीदे, रंगीन ‘फैशनेबल’ कपड़े, कोट, पैंट तथा एकरंगी सूट भी। इन कपड़ों को खरीदते टाइमउसने अपनीपस्न्द का ध्यान रखा परन्तु रोहित कीपस्न्द का इसमें कोई दखल नहीं था। अमर नेइसे बात का एहसास वन्दना की निश्चिंत चहक में पाया तो उसे खुशी हुई, बल्कि उसने सोचा कि वन्दना इससे पहले जब भी कपड़ों को देखकर खोई तो उस टाइमनिश्चय ही उसके खोएपन में रोहित की पसन्द का
कोई दखल नहीं था। उसने अनुमान लगाया कि उस टाइमकपड़े देखकर वन्दना ये सोच रही होगी कि ये कपड़े उसके अमर पर कैसे लगेंगे? उस पर शोभा देंगे भी या नहीं? अमर सांवला हैइसलिये कपड़ों का चुनाव करते टाइमरंगों का ध्यान रखना आवश्यक है। अमर मन-ही-मन अपने दिल में रोहित के खिलाफ आए विचारों पर ज्यादा लज्जित हुआ परन्तु अपने मन की बातइसे टाइमवन्दना को बताकर क्षमा मांगना उसने उचित नहीं समझा। वन्दना ने हर कपड़े का बिल बनाकर तैयार रखने की आज्ञा दुकानदार को दी। दोबारा अपनी गाड़ी दुकानदार को दिखाकर वहां छोड़ते हुए वह अमर के संग पैदल ही समीप की दुकानों में शॉपिंग के लिए निकल पड़ी। शहर का सबसे बड़ा मार्केट था यह। सभी वस्तुएं यहां आसानी से मिल जाती थीं। अमर के संग चलते-चलते उसकी निगाह घड़ी कीएक बड़ी दुकान पर पड़ी। अमर को लेकर वह उस दुकान में प्रविष्ट हो गई। काउण्टर पर दुकानदार से जब उसने पुरुषों की कलाई घड़ी निकालने को कहा तो अमर ने वन्दना को आश्चर्य से देखा। ‘यह घड़ी किसके लिए ली जा रही है?’ उसने पूछा। ‘तुम्हारे लिए।’ वन्दना ने लापरवाही से कहा।
‘लेकिन मैं तो पहले हीएक घड़ी पहने हूं।’ अमर ने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी वन्दना को दिखाते हुए कहा। ‘कपड़े भी तो तुम पहले से ही पहने थे। दोबारा मैंने तुम्हें कपड़े क्यों दिलाए?’ अमर ने उससे कुछ कहना चाहा परन्तु समझ में नहीं आया कि इन्कार में उसे कैसे समझाए। तभी दुकानदार ने अनेक घड़ियां बहुमूल्य तथा सस्ती भी, अत्यन्त सुन्दर तथा सादी भी, उन दोनों के सामने शीशे के काउण्टर पर रख दीं। वन्दना ने खूबसूरत, बहुमूल्य तथा थोड़ी घड़ियांएक के बादएक अमर की चौड़ी कलाई पर रखकर देखीं। आखिरएक घड़ी अपनी कलाई पर रखकर देखी। आखिरएक घड़ी अपनी कलाई पर उपरि नीचे खिसका कर जब अमर ने उसमें अपनी रुचि प्रकट की तो वन्दना ने उसे तुरन्त खरीद लिया। अमर का दिल कृतज्ञ होकर वन्दना के कदमों तले झूल गया, इतना ज्यादा कि वह शुक्रिया में उससेएक शब्द भी नहीं कह सका। परन्तुएक विचार उसके मन में अवश्य आ गया। अपनी पैंट के पॉकेट पर हाथ फेरते हुए उसने तय कर लिया कि वन्दना जब उसे इतनी ज्यादा वस्तुएं दिला रही है तो वह भी वन्दना के लिए कुछ-न-कुछ अवश्य खरीदेगा, उसे भेंट में देने को। तब क्या वन्दना उस
गरीब की दी हुई वस्तु को स्वीकारने से कभी इन्कार कर सकेगी? कभी नहीं। उसके पश्चात वन्दना ने अमर कोएक जूतों की दुकान से दो जोड़े जूते अलग-अलग डिजाइन तथा रंग के दिलाए जिसे अमर ने स्वयं पसन्द किया था।एक लाल कोट से मैच खाता जूता था तो दूसरा करीब हर रंग के कपड़ों पर चलने वाला काला जूता था। अमर के लिए उसने अनेक मोजे भी अलग-अलग रंग तथा डिजाइन के लिए। बाजार की दूसरा बची-खुची शॉपिंग करने के पश्चात दोनों अपनी गाड़ी के पास पहुंचे। सारा सामान गाड़ी में रखने के पश्चात उन्होंने गाड़ी को दोबारा ‘लॉक’ किया। उसके पश्चात जब वन्दना कपड़ों का बिल अदा करने के लिए दुकान में प्रविष्ट हुई तो अमर उसके संग ही था। वन्दना जब काउण्टर पर बिल का चेक काटने लगी तो दुकानदार ने उससे कहा - ‘मैडम, आखिर इन कपड़ों को आप कहीं-न-कहीं तो सिलवाएंगी ही। दोबारा क्यों न इसे सिलाने के लिए आप हमारी ही दुकान के टेलर मास्टर को दे दें। कपड़ा हमारी मिल का हैइसलिये हम जानते हैं कि इसे काटते टाइमकिन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए।’
वन्दना नेएक समय सोचा। आखिर कहीं-न-कहीं तो उसे ये कपड़े वास्तव में सिलवाने हैं। दोबारा ये तो सिले-सिलाए कपड़ों की सबसे फैशनेबल दुकान है। कपड़े सिलवाने के लिए इससे अच्छी दुकान और क्या हो सकती है? उसने पलटकर काउण्टरमैन से कहा - ‘ठीक है, जो सूट अभी-अभी आपने सिला है उसको छोड़कर बाकी कपड़े आप सिलने के लिए रख सकते हैं। हम दोबारा कभी आकर ‘कलेक्ट’ कर लेंगे।’ काउण्टरमैन ने बगैर सिले कपड़ों का पैकिट पुनः लेते हुए अमर से कहा - ‘आप ड्रेसिंग केबिन में पहुंचिए। मैं सम्पूर्ण नाप के लिए टेलर मास्टर को भेजता हूं।’ अमर ड्रेसिंग केबिन की ओर बढ़ा। ये दूसरा ड्रेसिंग केबिन था, पहले ड्रेसिंग केबिन से कुछ दूर। यहांएक नहीं अनेक ड्रेसिंग केबिन थे जो शाम के टाइमज्यादातर भरे रहते थे। अमर के केबिन में टेलर मास्टर आया। उसने उसके कपड़ों की फिटिंग का नाप लिया। अमर आगे-पीछे घूम-घूमकर अपना नाप देने लगा। अचानक उसकी दृष्टि केबिन के शीशे द्वारा दुकान के लेडीज डिपार्टमेंट के दरवाजा पर पड़ी जो शीशे का बना हुआ था।एक बार दोबारा उसे वन्दना
का ध्यान आया तो उसने अपनी पॉकेट पर हाथ फेरा। टेलर मास्टर नाप लेकर चला गया तो वह अपने इरादे को साकार रूप देने के लिए अपने केबिन से निकलने के पश्चात तुरन्त लेडीज डिपार्टमेंट में प्रविष्ट हो गया।एक काउण्टर पर जाकर उसने वन्दना के लिए अनेक वस्त्र देखे। वन्दना के रूप को दृष्टिकोण में रखते हुए कोई भी वस्त्र उसे बढ़िया नहीं लग रहा था। दोबारा भी उसने अन्त मेंएक ज्यादा ही सुन्दर हल्के रंग की रेशमी ‘मैक्सी’ चुन ही ली। मैक्सी का ब्लाउज-नुमा ऊपरी भाग पीठ से कुछ खुला हुआ था। कमर से नीचे चोगा समान ढीला-ढाला वस्त्र था ये पूरी ‘मैक्सी’ उसी रंग के रेशमी कपड़े के सुन्दर झालर से भरी पड़ी थी। उसने उसे निकालकर अलग रख दिया और दूसरा मैक्सी देखने लगा। शायद यहां उसे वन्दना के दिल इससे भी अच्छी मैक्सी या दूसरे वस्त्र मिल जाएं जिससे वन्दना का रंग रूप और खिल उठे। वन्दना के रंग-रूप के आगे सभी रंग, सभी डिजाइन फीके पड़ सकते थे। इयर वन्दना ने बिल-काउण्टर पर अपना हिसाब किया। दोबारा वह अमर की इंतजार करने लगी। अमर तब भी नहीं आया तो वह अपने कपड़ों का पैकेट वहीं बिल-काउण्टर पर छोड़कर लेडीज डिपार्टमेंट की ओर बढ़ गई। उसने सोचा, यदि लेडीज डिपार्टमेंट में उसके पसन्द की कोई वस्तु
मिल गई तो वह उसे अपने लिए खरीद लेगी। परन्तु जैसे ही वह लेडीज डिपार्टमेंट के शीशे के दरवाजा पर पहुंची,बाहर् से ही उसकी दृष्टि अंदर अमर पर पड़ गई। अमर का यहां पहुँचना उसे कुछ भी समझ में नहीं आया। उसने दरवाजा खोला। डिपार्टमेंट के अन्दर प्रविष्ट हुई। चुपचाप जाकर वह अमर के पीछे खड़ी हो गई। अमर हरे रंग की मैक्सी को अलग किए उस पर हाथ रखे हुए था। आखिरइसे मैक्सी के अतिरिक्त उसे और कोई मैक्सीपस्न्द नहीं आई। उसनेइसे मैक्सी में टांके हुए मूल्य के कार्ड को देखा तो वन्दना की दृष्टि ने भी मूल्य को पढ़ लिया। वह चुपचाप पीछे सरक गई। अमर मैक्सी पैक करने लगा। वन्दना बिल काउण्टर पर पहुंची। उसने अमर की खरीदी हुई मैक्सी का दाम चुकाया। अमर का रंग-रूप काउण्टरमैन को उसने समझा दिया कि ये मूल्य हरे रंग की उस मैक्सी का है जो अमर ला रहा है। काउण्टर मैन बिल की अदायगी पाकर चुप हो गया। दोबारा वन्दना ने बिल काउण्टर पर खड़ेएक नौकर से उसके वस्त्रों का पैकिट गाड़ी में रखने को कहा। नौकर पैकिट समेटने लगा तो वन्दना दुकान का दरवाजा खोलकर गाड़ी की ओर बढ़ गई। उसने स्टेयरिंग के समीप गाड़ी के दरवाजा का लॉक खोला। स्टेयरिंग के सामने सीट पर बैठने के पश्चात उसने हाथ बढ़ाकर
पिछला गेट खोला। नौकर ने सारे पैकिट पिछली सीट पर रख दिए। वन्दना ने गेट बन्द कर दिया। दोबारा अपनी सीट पर बैठे-ही-बैठे वन्दना ने अपनी ओर के गेट का शीशा नीचे किया, अपनी बाईं ओर के गेट का भी शीशा नीचे किया जिधर अमर बैठता था। दोबारा उसने हाथ बढ़ाकर सामने के छोटे दर्पण का कोणइसे तरह बनाया कि पीछे कपड़े की दुकान का निकास दरवाजा स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा। अब वह उसी तरह बैठे-बैठे अमर को दुकान से निकलता देख सकती थी, बिना पीछे मुड़े हुए। अनजान बनती हुई वह चुपचाप सामने के दर्पण में अमर को देखती हुई उसकी इंतजार करने लगी। उसके होंठों परइसे टाइमशरारत-भरी बड़ी मीठी मुस्कान थी। कुछ टाइमपश्चात अमर दुकान के गेट सेबाहर् निकला। उसके हाथ में वस्त्र काएक पैकिट था। वह तुरन्त गम्भीर हो गई मानो कुछ जानती ही न हो। अमर भी गम्भीर था। कुछ उदास भी था। आकर वह वन्दना के बाएं दरवाजा की खिड़की पर झुका। दोबारा अन्दर उसकी ओर झांकते हुए उसने पूछा, ‘वन्दना जी, क्या मैं पूछ सकता हूं कि आपने मेरी खरीदी हुई मैक्सी का दाम अपने पास से क्यों अदा किया?’
‘क्यों?’ वन्दना ने उसे देखते हुए पूरे अधिकार से कहा, ‘क्या मुझे तुम्हारी खरीदी हुई वस्तु का मूल्य चुकाने का कोई अधिकार नहीं है?’ ‘वह तो है लेकिन---’ अमर ने सोचा। तभी अचानक उसे भीएक शरारत सूझी। वह दबे होंठों हल्के-से मुस्करा दिया। दोबारा बोला, ‘लेकिन आप कहां तक और कब तक मेरे लिए उन वस्तुओं का मूल्य चुकाती रहेंगी जो मैं किसी दूसरे के लिए खरीदता रहूंगा?’ ‘किसी दूसरे के लिए?’ वन्दना ने मानो स्वयं से कहते हुए सोचा। अमर को उसने ज्यादा ध्यान से देखा। उसके मुखड़े की सारी दबी शरारत गुल हो गई। ‘जी हां।’ अब अमर के लिए वन्दना को मूर्ख बनाने की बारी थी। उसने लापरवाही प्रकट करते हुए कहा, ‘दरअसल यह---’ उसने अपने हाथ के पैकिट की ओर संकेत किया, ‘यह मैंने अपनेएक दोस्त की बहन के लिए खरीदा है। ज्यादा प्रेम करती है मुझे वह। ज्यादा ज्यादा चाहती है।’ अमर ने उसी लापरवाही के संग अपनी ओर का गेट खोला। दोबारा अन्दर सीट पर बैठ गया। पैकिट उसने अपनी गोद में रख लिया।
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वन्दना ज्यादा गम्भीर हो गई - ज्यादा उदास। अमर ने मानो उसके सपनों कोएक ही झटके में तोड़कर चकनाचूर कर दिया था। उसके किस दोस्त की ये कौन बहन उत्पन्न हो गई जिसके विषय में अमर ने आज तक उससे जिक्र नहीं किया था? उसका मन किया कि तुरन्त अमर को धक्का देकर गाड़ी सेबाहर् निकाल दे। उसके मुंह पर वह सारे पैकिट दे मारे जो उसने अभी-अभी उसके लिए कितने प्रेम से खरीदे थे। शायद वह ऐसा कर भी देती। नारी सब-कुछ सहन कर सकती है परन्तु उस पुरुष के दिल में किसी पराई नारी का प्रेम देखकर कभी सहन नहीं कर सकती जिसे वह प्रेम करती है। ‘अब आप चलेंगी भी या दोबारा मार्केट में कोई तमाशा बनाने का विचार है?’ अमर ने वन्दना के इरादों को भांपते हुए कहा परन्तु वास्तविकता नहीं खोली। वन्दना की बेरुखी देखकर उसे आनन्द आने लगा था। वन्दना ने अनिच्छुक होकर गाड़ी आगे बढ़ा दी। मार्केट नहीं होता तो वह वास्तव में यहांएक तमाशा बनाने से कभी नहीं चूकती। आते-जाते लोगों के अतिरिक्त सामने का दुकानदार भी क्या कहता? अभी-अभी दोनों उसकी दुकान में कितने प्रेम से खरीदारी कर रहे थे और अबबाहर् जाकर झगड़ा कर रहे हैं। वन्दना की उदासीनता और बढ़ गई।
गला अन्दर-ही-अन्दर सूखने लगा। दिल के अन्दर प्रेम की जलन का एहसास उसने पहली बार किया था।इसलिये दिल में उठती टीस पर काबू पाना कठिन हो गया। दोबारा भी काबू पाने के प्रयत्न में वह अपने निचले होंठ के किनारे को अन्दर दबाकर दांतों द्वारा काटने लगी। परन्तु जब दिल की चुभन तब भी कम नहीं हुई तो उसकी पलकें भीग गईं। उसने अमर को नहीं देखा। परन्तु अमर उसे देख रहा था, कनखियों से। उसके जिंदगी का ये पहला प्रेम थाइसलिये वन्दना की स्थिति देखकर उसे आनन्द भी आ रहा था और तरस भी। उसने कुछ देर और खामोश रहना उचित समझा। वंदना की तड़प में उसके प्रति कितना प्रेम है? कुछ ही दूर पश्चात वन्दना ने उस सड़क पर गाड़ी मोड़ दी जो दुर्गापुर गांव को पुनः जाती थी तथा जिधर से वह दोनों शहर आए थे।इसे सड़क पर आते ही वन्दना ने गाड़ी की गति अचानक इतनी तेज कर दी मानो तुरन्त ही दुर्गापुर पहुंच जाना चाहती हो - या दोबारा वह कोई दुर्घटना करने पर अचानक तुली बैठी हो। ‘आप इधर कहां चल रही हैं?’ अमर ने कहा, ‘इधर तो हम गांव पुनः जा रहे हैं।’
वंदना ने तुरन्त ब्रेक पर अपना पांव जमा दिया गाड़ी के पहिए चीख पड़े। कारएक झटके से रुक गई। पीछे से गर्द काएक गुब्बार उड़कर सामने आया और दोबारा फैलकर हवाओं में लुप्त हो गया। वंदना ने पलटकर अमर को देखा - कुछ घूर कर। अमर का दिल धड़क गया। वंदना से मजाक करके उसने कोई अनुचित काम तो नहीं किया? वन्दना अन्दर ही अपने दर्द भरे क्रोध की आग मेंइसे तरह जल रही थी कि उसने अमर के मुखड़े की चिंता पर ध्यान नहीं नहीं दिया। उसने तड़पकर कहा, ‘हां, मैं गांव ही पुनः जा रही हूं। तुम नहीं जाना चाहते तो मत जाओ। यहीं उतर जाओ, अभी और इसी समय। ऐसा न हो कि तुम्हारे दोस्त की बहन तुम्हें मेरे संग देख ले।’ वन्दना ने हाथ बढ़ाकर पीछे से वस्त्रों के पैकिट उठाना चाहे परन्तु उसके नन्हें हाथ में केवलएक ही पैकिट आया। पैकिट उठाकर उसने गाड़ी के अन्दर ही अमर के मुंह पर मारते हुए कहा, ‘यह लो, इन कपड़ों का पहनकर तुम उससे मिलने जाओगे तो वह और दीवानी हो जाएगी।’ ‘अरे-अरे!’ अमर ने अपना बचाव करना चाहा परन्तु पैकिट उसके मुखड़े पर लग चुका था। पैकिट को उसने गोद में गिरने के पश्चात संभाल लिया।
वन्दना ने अमर की चिंता नहीं की। हाथ बढ़ाकर वह पीछे की सीट से दूसरा पैकिट उठाने लगी। पैकिट उठाते हुए उसने कहा, ‘इन कपड़ों में से कुछ अपने दोस्त को भी दे देना ताकि उसे भी तुमसे कोई शिकायत नहीं रहे।’ उसने क्रोध में ये पैकिट भी अमर के मुंह पर दे मारा। ‘लेकिन---’ अमर नेइसे पैकिट को भी अपनी गोद में संभालकर अपनी सफाई देनी चाही। बात यहां तक बढ़ जाएगी उसने जरा भी नहीं सोचा था। वन्दना के दिल में उठी टीस अब उसे चुभने लगी। परन्तु वन्दना ने उसे कुछ कहने का अवसर नहीं दिया। वह पीछे सेएक पैकिट और उठाने लगी। बात जारी रखते हुए उसने उसी क्रोध में कहा, ‘यह सारी ही वस्तुएं तुम साले-बहनोई एक-दूसरे में बांट लेना। ये लो।’ वन्दना नेइसे बार दोबारा अमर के मुखड़े पर पैकिट पटक देना चाहा। उसका स्वर कांपने लगा था। गला भर्रा रहा था। शायद वह रो पड़ना चाहती थी। परन्तुइसे बार अमर ने अपने मुंह पर पैकिट लगने से पहले ही हाथों द्वारा रोककर थाम लिया। उसने कहा, ‘वन्दना!’ प्रेम के जाने किस बहाव में आकर अमर के मुंह से वन्दना का खड़ा नाम निकल गया। वन्दना चौंककर
क्षण-भर के लिए रुक गई। परन्तु दोबारा उसने दोबारा शक्ति लगाकर अमर के हाथ में पैकिट छुड़ा लेना चाहा ताकि अमर के मुंह पर ये पैकिट अवश्य दे पटके परन्तु उसके क्षण भर के रुक जाने से ही अमर को अपनी बात कहने का अवसर मिल चुका था। उसने तुरन्त कहा, ‘वन्दना, वह सभी मैंने तुमसे मजाक में कहा था।’ वन्दना के हाथ अमर के हाथ से पैकिट छुड़ाते-छुड़ाते रह गए। पकड़ जैसी थी, जहां थी वहीं स्थिर रह गई। अपने कानों पर मानो उसे विश्वास नहीं हुआ। उसने मस्तक पर बल डालकर अमर को ज्यादा ध्यान से देखा। ‘मैं ठीक कह रहा हूं वन्दना, मेरा मतलब---वन्दना जी।’ अमर ने बात सुधारकर कहा, ‘जो मैक्सी मैंने ली है उसे मैं सिर्फ आपको ही भेंट देना चाहता हूं। परन्तु आपनेइसे गरीब को उसका मूल्य भी चुकाने नहीं दिया।’ वन्दना तब भी अमर को उसी तरह देखती रही। परन्तु उसके मस्तक के बल अवश्य कम हो गए। ‘आप ही सोचिए-’ अमर ने दोबारा कहा, ‘जब से मैं दुर्गापुर आया हूं केवलएक ही रात गांव के चाचा के यहां ठहरा था। उनके पास न कोई लड़का है न लड़की। दोबारा मेरी मित्रता यहां होती किससे? उसके अगली सुबह ही से तो
मैंने आपके यहां नौकरी कर ली है। दिन-रात आपके ही संग तो छाया बनकर रहता हूं। आखिर आपने आज तक मुझे गांव में या कहीं अकेले जाते कभी देखा है?’ वन्दना का मस्तक ढीला पड़ गया। उसकी आंखों के आंसू मोती बनकर चमक उठे। होंठों परएक मुस्कान आते-आते रह गई। पैकिट उसने वापिस लेकर अपनी गोद में डाल लिया। दोबारा सीधे बैठकर उसने अपना बांया हाथ स्टेयरिंग पर रखा। दोबारा अपने दाहिने हाथ की कोहनी मोड़ते हुए उसने बगल में गाड़ी की खिड़की पर टिका दी, कोहनी को खिड़की से थोड़ाबाहर् निकालकर। अपनी गर्दन को बाहिने मोड़ते हुए उसने अपना सिर थोड़ा नीचे झुकाते हुए ठोड़ी दाहिने कंधे के कोने पर टेक दी और दोबारा पलकें उठाकर वह खिड़की द्वाराबाहर् के संसार में देखने लगी - ज्यादा ही खामोशी के साथ। ‘आप मुझसे नाराज है क्या?’ अमर ने वन्दना को खामोश देखकर पूछा। वन्दना ने कोई उत्तर नहीं दिया। अमर की ओर उसने दृष्टि उठाकर देखा तक नहीं। दूर क्षितिज में देखती वह उसी तरह खामोश रही।
‘आपने मेरी बात का उत्तर नहीं दिया।’ अमर ने दोबारा कहा। उसके स्वर में पश्चाताप का दर्द था। बात जारी रखते हुए उसने पूछा, ‘क्या मैं ये समझ लूं कि मेरेएक छोटे-से मजाक के कारण अब आप मुझसे कभी बात नहीं करेंगी?’ वन्दना ने अपना मुखड़ा उठाकर अमर को देखा। वन्दना की पलकें अब भी भीगी हुई थीं। आंखों के किनारे अब भी आंसुओं से तर हो रहे थे। अमर से वन्दना के ये आंसू देखे नहीं गए। उफ! कितना दर्द था उसकी नीली आंखों की नदी में। यदि उसकी कही बात मजाक न होकर सत्य होती तो वन्दना का दिल ही टूट जाता। स्पष्ट प्रकट था कि वन्दना के पहले प्रेम ने उसे धोखा नहीं दिया था। धोखा दिया था उसे प्रकृति ने, रोहित की हत्या का बहाना लेकर। ऐसी स्थिति में वह अमर से धोखे की आशा कैसे कर सकती थी। जिस हाल कि उसने अपना भविष्य उसके सहारे छोड़ रखा था। अमर ने उसी पश्चात्तापी स्वर में कहा, ‘मुझे क्षमा कर दीजिएगा। अब मैं आपसे कभी ऐसा मजाक नहीं करूंगा। मैं भूल गया था कि मुझे आपसे मजाक करने का कोई अधिकार नहीं है।’ ‘क्यों तुमने मुझसे ऐसा मजाक किया था?’ वन्दना ने सीधे बैठकर उसकी आंखों में झांका।
‘यूं ही, बस मन के अन्दर स्वयं हीएक इच्छा उत्पन्न हो गई थी।’ अमर ने कहा। ‘फिर भी इच्छा के पीछे कोई कारण तो होगा ही?’ वन्दना ने कुरेद की। ‘शायद----’ अमर ने सोचते हुए कहा, ‘अपने मजाक की प्रतिक्रिया देखकर आपके प्रेम की थाहजान्ना चाहता था।’ ‘थाह मिली?’ वन्दना ने पूछा। ‘आपके प्रेम की कोई थाह नहीं।’ अमर ने कहा, ‘आप सचमुच मुझे प्रेम करती हैं।’ वन्दना खामोश हो गई। सोचने पर विवश हो गई कि क्या वह वास्तव में अमर को ज्यादा प्रेम करती है? यदि वास्तव में ऐसा है तो वह अमर की संगति में रहकर भी रोहित के विचारों में क्यों खो जाती है? क्या ये अमर के प्रेम का अपमान नहीं है? उसके संग वह धोखा नहीं कर रही है? जिस तरह अमर की संगति में रहने के पश्चात् वह रोहित के विचारों में खो जाती है उसी तरह संगति में रहकर यदि अमर किसी पराई लड़की के विचारों में तल्लीन हो जाए तो उस पर क्या बीतेगी? अमर के प्रेम की गहराई का अनुमान लगाकर वन्दना अपनी ही दृष्टि में गिरने लगी
तो उसने तय कर लिया कि वह अपने दिल और दिमाग को अमर के अधिकार मेंइसे तरह सुपुर्द कर देगी कि अमर उसकी एक-एक सांस पर छा जाएगा। तब दिन-रात वह अमर के ही सपनों में खोई रहेगी। अनिच्छुक होकर भी जब रोहित उसे याद आएगा तो वह उसके विचारों में तल्लीन न हो सकेगी। परन्तु ऐसा होगा किस प्रकार? किस तरह वह रोहित को सदा के लिए भूलकर दिन-रात के सपनों में सिर्फ अमर को ही देखने में संपन्न होगी? रोहित उसका पहला प्रेम था । रोहित की बांहों में रहकर उसने प्रेम के अगणित सुन्दर सपने देखे थे, परन्तु जो भाग्य को स्वीकार था वह तो होकर ही रहा। ऐसी स्थिति में वन्दना के लिए रोहित को भूलना आसान काम नहीं था परन्तु असम्भव भी नहीं था क्योंकि अब रोहितइसे संसार में नहीं था। और जोइसे संसार में नहीं रहते उनकी याद में तड़पने तथा आंसू बहानेवाला समाज के संग मिलाकर आगे नहीं बढ़ पाता है। वन्दना दिल की गहराई से अमर को पहले ही अपना बना चुकी थी। अब उसने स्वयं भी दिल की गहराई से अमर की बन जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया। ‘अब आप दुर्गापुर चलेंगी या---’ अमर ने उसे खोया देखा तो पूछा।
वन्दना चौंक पड़ी। दोबारा हल्के से मुस्करा दी। उसने अपनी गोद में पड़ा पैकिट पीछे सीट पर फेंका तो अमर ने भी अपनी गोद के सारे पैकिट उठाकर पीछे की सीट पर डाल दि। वन्दना ने गाड़ी बैक की और दोबारा वापसी की ओर चलते हुए कुछ दूर पश्चात गाड़ी ‘फिरदौस’ के रास्ते पर मोड़ दी। दोबारा इत्मीनान के संग गाड़ी चलाती हुई वह सीट पर पीछे पीठ टेककर आराम से बैठ गई। ‘वैसे---’ अमर ने कुछ देर पश्चात थोड़ा सकुचाते हुए पूछा, ‘एक बात पूछने का अधिकार मिल सकता है?’ ‘तुम्हें मुझसे हर बात पूछने का अधिकार है। बातें पूछने का क्या, तुम्हें आज्ञा देने का भी पूरा अधिकार है।’ वन्दना ने कहा, ‘पूछो, क्या पूछना चाहते हो?’ ‘यही कि---’ अमरएक क्षण रुका। दोबारा बोला, ‘क्याइसे गरीब ने आपके लिए अपनी पसन्द की मैक्सी लेकर कोई अपराध या अनुचित बात कर दी थी जिसे स्वीकार न करते हुए आपने मुझे बिना बताए ही इसकी कीमत चुपचाप बिल-काउण्टर पर चुका दी?’ ‘नहीं, ऐसी बात नहीं हे।’ वन्दना ने तुरन्त कहा, ‘बल्कि दरअसल मैं नहीं चाहती थी कि तुम अपनी गाढ़ी कमाई का रुपया इतनी आसानी से उस जैसी बहुमूल्य वस्तु पर खर्च
करो। कम-से-कम अभी नहीं चाहती। पश्चात की बात और हे। जब मैं तुमसे स्वयं ही नई-नई ऐसी फरमाइशें करूंगी कि तुम पूरा करते-करते थक जाओगे।’ पश्चात की बात? अमर ने वन्दना की बात पर ध्यान दिया तो उसकी आंखों मेंएक सपना जागा। वन्दना उसके संग मिलकर अपने प्रेम को साकार रूप देने का फैसला पहले ही किए बैठी है। अमर को इसके अतिरिक्त चाहिए भी क्या था? ‘अभी यदि तुम मुझे कुछ देना ही चाहते हो तो इतनी बहुमूल्य वस्तु मत दो, कोई छोटी-मोटी वस्तु दे देना - बतौर तोहफा, या निशानी के तौर पर कोई ऐसी वस्तु जिसे मैं सदा अपनी आंखों के सामने रखकर दिन-रात तुम्हारे विचार में खोई रहूं। वैसेएक बात याद रखना - तोहफा देने या लेने का आनन्द तब ही है जब तोहफा लेनेवाले को मालूम ही न हो कि उसे क्या मिल रहा है?’ अमर खामोश हो गया। सोच में डूब गया कि वन्दना को वह ऐसी वस्तु तोहफे में क्या दे जो उसे पसन्द आ जाए तथा जो हर क्षण उसकी आंखों के सामने रहकर उसे उसकी याद दिलाती रहे? तीन
वन्दना ने जब अपनी गाड़ी ‘फिरदौस’ की चारदीवारी के अन्दरएक ओर रंग-बिरंगी कारों की पंक्ति में पार्क की तो शाम ढल रही थी। क्षितिज पर दूर-दूर तक बादलों के टुकड़े छिटके हुए थे जिनके होंठों पर डूबते सूर्य की लालिमा मुस्करा रही थी, शायद रात के टाइमआने वाले तूफानी वातावरण से अनभिज्ञ जिसका अभी किसी को भी अनुमान नहीं था। फिरदौस की वातानुकूल मकान के अन्दर प्रविष्ट होकर वन्दना अमर को लिए सबसे पहले रिसेप्शनिस्ट के काउण्टर पर पहुंची। वहां उसने दो अलग-अलग ‘सिंगिल’ कमरों की मांग की। परन्तु सिंगिल रूमएक भी नहीं मिल सका। सभी कमरे पहले ही बुक थे। फिरदौस की रजत-जयंती तो दूर की बात थी, यहां यूं भी आजकल विदेशी यात्रियों का मेला-सा लगा रहता था क्योंकि यात्रियों के लिए शहर और उसके आस-पास के दृश्य देखने का सबसे बढ़िया मौसम यही था। अब? वन्दना सोच में पड़ गई। परन्तु जब वन्दना को पता चला कि होटल मेंएक डबल-रूम खाली है तो उसने इसे लेने में जरा भी देर नहीं की। ऐसा न हो कि ये कमरा भी हाथ से निकल जाए। कमरा लेने के पश्चात दोनोंएक ही कमरे में कैसे रहेंगे ये बात उसने पश्चात के लिए छोड़ दी। अमर से उसे किसी भी तरह का कोई डर नहीं
था। आखिर आज नहीं तो कल, कभी-न-कभी तो अवश्य ही उसे अमर के संग हर क्षण बिताना ही था, उसके सामने खुलकर पहुँचना ही था, उसकी बांहों में समाकर उसकी सांसों में रचना ही था। दोबारा आज की केवलएक ही रातएक कमरे में उसके संग अलग-अलग पलंग पर सोने में हर्ज ही क्या था? कमरे की चाभी लेकर उसनेएक वेटर को अपने संग अपनी गाड़ी के पास ले जाना चाहा ताकि गाड़ी से सारा सामान निकालकर वह उसके कमरे तक पहुंचा दे। परन्तु तभी अमर ने उसे मना करते हुए कहा, ‘आप क्यों कष्ट कर रही हैं? गाड़ी की चाभी मुझे दीजिए और आप कमरे में पहुंचिए। मैं सारा सामान गाड़ी से निकलवाकर आ रहा हूं।’ वन्दना नेएक क्षण सोचा। दोबारा गाड़ी की चाभी अमर को थमाते हुए उसने कहा, ‘ठीक है, मैं चल रही हूं। तुम सामान निकलवाकर लाओ।’ वन्दना होटल केएक गलियारे से होकर लिफ्ट की ओर बढ़ गई। उसका कमरा होटल की सबसे ऊंची मंजिल पर था, मकान केएक किनारे। अमर गाड़ी के समीप पहुंचा। वेटर द्वारा उसने सारा सामान उठवाया - वन्दना का सूटकेस तथा आज के खरीदे हुए कपड़ों तथा दूसरा वस्तुओं के पैकिट। अमर ने गाड़ी लॉक की और जब वेटर होटल के प्रवेश दरवाजा की ओर बढ़ा तो अमर भी उसके पीछे-पीछे चल पड़ा। होटल के अन्दर
लिफ्ट से पहले वही गलियारा था जिधर से वन्दना अपने कमरे के लिए गई थी। अचानक अमर की दृष्टि गलियारे मेंएक आभूषणों की दुकान पर पड़ी। शो-केस में अनेक हीरे-जवाहरात से जड़े सोने के सेट सजे रखे जगमगा रहे थे। अगल-बगल साधारण तथा असाधारण सोने की अंगूठियां भी रखी हुई थीं। अंगूठी? अमर का मस्तक अचानक ही ठनक गया। वन्दना की बातें उसे याद आ गईं जो उसने उससे गिफ्ट लेने के विषय में कहीं थीं। वन्दना ने कहा था - अभी यदि तुम मुझे कुछ देना ही चाहते हो तो इतनी बहुमूल्य वस्तु मत दो, कोई छोटी-मोटी वस्तु दे देना - बतौर तोहफा या निशानी के तौर पर कोई ऐसी वस्तु जिसे मैं सदा अपनी आंखों के सामने रखकर दिन-रात तुम्हारी याद में खोई रहूं।’ अमर के बढ़ते पग धीमे पड़ गए। उसने अपने संग सामान लेकर चलते वेटर को भी आवाज देकर रोक दिया। दोबारा वह दो पग मुड़कर आभूषणों की दुकान के शो-केस के सामने जा खड़ा हुआ। आभूषणों के संग उनका मूल्य भी लिखा हुआ था। अमर ने सोचा - वन्दना को गिफ्ट या बतौर निशानी देने के लिए अंगूठी से अच्छी क्या वस्तु हो सकती है? अंगूठी पहनने के पश्चात अंगूठी का स्वर्ण हर क्षण उसे याद दिलाता रहेगा कि ये किसकी दी हुई निशानी है। इस
तरह उसके विचारों से कभी आजाद नहीं हो सकेगी। अमर ने अपनी पॉकेट कोएक बार यहां भी टटोला। दोबारा दुकान के शीशेदार दरवाजा में प्रविष्ट हो गया। कुछ देर पश्चात जब अमर दुकान सेबाहर् निकला तो उसके होंठों परएक भेद-भरी मीठी मुस्कान थी। वेटर को उसने चलने की आज्ञा दी और दोबारा उसके साथ-साथ लिफ्ट की ओर बढ़ गया। जब अमर अपने कमरे में प्रविष्ट हुआ तो वन्दना यात्रा तथा शॉपिंग की थकान दूर करने के लिएएक सोफे पर धंसी तथा सामने की मेज पर पांव फैलाए आराम कर रही थी। अमर को देखने के पश्चात् वह थकावट के कारण उसी तरह बैठी रही। अमर के पीछे-पीछे सामान लिए वेटर भी कमरे में प्रविष्ट हुआ था। उसने कमरे केएक कबर्ड के अन्दर सारा सामान ठीक से रख दिया। कबर्ड केबाहर् पलड़े पर मानव कद का दर्पण जड़ा हुआ था।
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वेटर ने कमरा छोड़ने से पहले पूछा, ‘इस टाइमकुछ खाना है साहब?’ ‘हां-’ वन्दना ने कहा, ‘दो सेट कॉफी ले आना।’ अमर ने कमरे का निरीक्षण किया। कमरा अच्छा-खासा और बड़ा था - वातानुकूल। दीवार के कोने-कोने तक
कालीन बिछी थी। सोफा सेट, श्रृंगार मेज अतिरिक्त, मेज कुर्सी आदि सभी आवश्यकताओं की वस्तुएं उपस्थित थीं। कमरे के बादएक बालकनी थी जिसका दरवाजा ताजी हवा प्राप्त करने के लिए वन्दना पहले ही खोल चुकी थी। अमर ने वन्दना के आराम में बाधा डालना उचित नहीं समझा। वह बालकनी पर निकल आया। सहसा दरवाजे पर किसी ने थपकी दी। वन्दना ने अपने पैरों को सामने की मेज पर से हटाकर नीचे करते तथा ठीक से सोफे पर बैठते हुए कहा, ‘कम इन।’ उसे ज्ञात था किइसे टाइमकमरे में आने वाला कौन हो सकता है। दरवाजा खुला। सामने वेटर कॉफी की ट्रे लिए उपस्थित था। अन्दर आकर उसने वन्दना के सामने वाली मेज पर ट्रे रखी तो अमर भी बालकनी छोड़कर उसके सामने आ बैठा। दोनों कॉफी पी रहे थे कि अचानक कमरे में रखे फोन की घंटी बजी। वन्दना ने कॉफी का प्याला तश्तरी में रखने के पश्चात टेलीफोन रिसीव किया। वह बोली, ‘यस?’ ‘आपको आज के फंक्शन के लिए कोई टेबल तो रिजर्व नहीं करानी है?’ कॉल होटल के मैनेजर की ओर से आया था। उसने कहा, ‘हम अपने होटल में ठहरे यात्रियों को ऐसे रिजर्वेशन में मिलना प्राथमिकता देते हैं।’
‘क्या टाइमपर हॉल के अन्दर पहुंचने के पश्चात टेबल का मिलना कठिन होगा?’ वन्दना ने पूछा। ‘कुछ कहा नहीं जा सकता कि बैठने के लिए कुर्सियां भी मिलेंगी। क्योंकि आज होटल का विशेष उत्सव है।’ मैनेजर ने कहा, ‘यदि आपको फंक्शन में भाग लेना है तो अभी से टेबल रिजर्व करा लेने में सुविधा होगी।’ ‘ठीक है।’ वंदना ने कहा, ‘आप दो कुर्सियों के साथएक टेबल रिजर्व कर दें।’ ‘थैंक्यू मैडम।’ मैनेजर ने कहा। दोबारा दोनों की ओर से फोन कट गया। कॉफी पीने के पश्चात वंदना की ही थकावट दूर नहीं हुई बल्कि अमर भी ताजगी महसूस करने लगा। दोबारा कुछ देर के लिए वह दोनों बालकनी पर चले आए। ‘लगता है आज रात बहुत वर्षा होगी।’ वन्दना ने ठण्डी सांस लेकर कहा। ‘जी हां।’ अमर उससे सहमत हुआ। उसने कहा, ‘बल्कि मुझे तो ऐसा लगता है मानो आज रात कोई तूफान आने वाला है।’
तूफान? वन्दना का दिल हल्के से कांप गया। उसने अमर को ध्यान से देखा। परन्तु अमर उसकी ओर से निश्चिंत था। अमर ने अपनी बात अनजाने में कही थीइसलिये वहइसे बात की ओर से निश्चिंत हो गई। वन्दना को ‘फिरदौस’ की रजत-जयंती के फंक्शन में भाग लेना थाइसलिये उसने स्नान करते टाइमअपनी लटों को पानी से भीगने से बचाए ही रखा। भीगने के पश्चात लटों को सूखने में टाइमलग सकता था। स्नान के पश्चात जब वह स्नान कक्ष सेबाहर् निकली तो उसके बदन के उपरि टावल काएक गाउन था जिससे उसका बदन पूर्णतया ढंका हुआ था। कमरे में आकर वह श्रृंगार मेज के सामने बैठी तो अमर अपने कपड़े निकालकर स्नान कक्ष में प्रविष्ट हो गया। दरवाजा अन्दर से बन्द करके वह स्नान करने लगा तो वन्दना भी निश्चिंत होकर रात के फंक्शन में जाने की तैयारी पूरी सुन्दरता के संग करने लगी। स्नान करने के पश्चात अमर ने आज शाम के प्रोग्राम में पहनने वाली पैंट तथा कमीज आदि पहनी। दोबारा स्नान-कक्ष से जब वहबाहर् निकला तो वन्दना उसकी पसन्द की खरीदी हुई मैक्सी को पहनकर श्रृंगार मेज के सामने बैठी अपने होंठों पर लिपस्टिक लगाती हुई अपनी असीम सुन्दरता को आखिरी टच दे रही थी।बाहर् वर्षा का समां
था परन्तु अमर को लगा मानो वन्दना की सुन्दरता की बिजली अभी से ही सारे होटल पर गिर पड़ना चाहती हो। अमर के बढ़ते पग जहां-तहां रुक गए। आंखें वन्दना परइसे तरह चिपक गईं मानो वन्दना की सुन्दरता मकनाती सी थी। वन्दना को अपनी पसन्द की मैकसी में देखकर उसे अत्यधिक प्रसन्नता हुई। ऐसे महत्त्वपूर्ण अवसर पर भी वन्दना ने उसकी पसन्द की मैक्सी पहनकर उसके प्रेम की लाज रख ली थी। वर्ना वन्दना के पास तो पहले ही विदेश से लाई एक-से-एक बढ़कर मैक्सी थीं।
‘क्या देख रहे हो?’ वन्दना ने अपने होंठों पर लिपस्टिक लगाने के पश्चात दर्पण में उसे देखते हुए पूछा। अमर कबर्ड छोड़कर वन्दना के समीप आया - बिल्कुल समीप। उसने वन्दना की आंखों में झांका। पूछा, ‘बता दूं?’ ‘हां-हां।’ वन्दना ने बैठे-बैठे आंखें ऊंची करके उसकी ओर देखते हुए कहा। ‘इस टाइमआपइसे वस्त्र में ज्यादा ज्यादा सुन्दर लग रही हैं।’ अमर नेएक गहरी सांस ली। वन्दना हल्के से मुस्कराकर खड़ी हो गई। नारी सुन्दर हो या कुरूप, अपनी तारीफ सुनकर फूली नहीं समाती है। परन्तु वन्दना पर अमर की बात का ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा। अमर ने तो उसेइसे तरह बना-संवरा अपने जिंदगी में पहली बार देखा था। उसने अमर से कहा, ‘तुम्हारी पसन्द की मैक्सी है ना,इसलिये सुन्दर तो लगूंगी ही। अब तुम भी जल्दी से तैयार हो जाओ। फिरदेख्ना तुम भीइसे लाल कोट में कितने अच्छे लगोगे।’ अमर मुस्कराकर कबर्ड की ओर दोबारा बढ़ गया। वन्दना पूरी तरह तैयार हो चुकी थी। उसने सोचा, वह अमर के कोट के कॉलर में टांकने के लिएबाहर् लॉन से एक
फूल क्यों न तोड़कर ले आए? इसी बीच अमर भी अपने कपड़े पहनकर तैयार हो जाएगा। परन्तु उसने तय किया कि वह अमर के कोट में टांकने के लिए गुलाब का कोई भी रंग का फूल अवश्य ले आएगी परन्तु सफेद फूल हरगिज नहीं लाएगी। ऐसा उसने अपने दिल को प्रेम का सच्ची प्रमाण देने के लिए सोचा था, वह प्रेम जो वह अब अमर से कर रही थी। उसने अमर से कहा, ‘तुम तैयार होओ मैं अभी आती हूं।’ कुछ देर पश्चात उसके कमरे का दरवाजा खुला। अमर कबर्ड के दर्पण के सामने से हटने ही वाला था कि उसने पलटकर देखा दरवाजे में वन्दना प्रविष्ट हो रही थी, बिल्कुल परियों के समान मुस्कराती, बल खाती,इसे तरह मानो फर्श पर काली बिछी होने के पश्चात् उसके नन्हें पैरों में लोच न आए। वन्दना के हाथ में गुलाब काएक सुन्दर फूल था - पीला गुलाब, अमर के पैंट के क्रीम रंग से बहुत मेल खाता हुआ। गुलाब भी वन्दना के समान ही मुस्करा रहा था। अमर ने सोचा, वन्दना को अंगूठी भेंट करने के लिए इससे बढ़िया टाइमऔर कोई नहीं हो सकता। भेद भरे ढंग में वह मुस्कराया। अंगूठी भेंट करने से पहले ही उसका दिल प्रसन्नता से अन्दर-ही-अन्दर उछलने लगा। वन्दना स्वयं सरप्राइज पाकर प्रसन्नता से खिल उठेगी।
उसने अंगूठी निकालने के लिए अपने कोट की पॉकेट में हाथ डालना चाहा, परन्तु तभी वन्दना का खिला मुखड़ा अचानक गम्भीरता में परिवर्तित देखकर वह चौंक गया। वन्दना के मुखड़े की सारी मुस्कानइसे तरह गुम हो गई थी मानो किसी खिले हुए फूल को अचानक पतझड़ के झोंके ने अपनी लपेट में लेकर मुर्झा दिया हो। उसके बढ़ते पग जहां-तहां रुक गए - अमर से कुछ ही दूरी पर। उसके हाथ का पीला गुलाब वहीं छूटकर कालीन पर गिर पड़ा। अमर कुछ समझा नहीं। बल्कि वन्दना की अचानक बदली हुई स्थिति को देखकर वह चिंतित होते हुए अपने कोट की पॉकेट से अंगूठी निकालना भूल गया। उसने वन्दना को उपरि से नीचे तक देखा। वन्दनाएक मूर्ति समान खामोश थी। उसने वन्दना के समीप पग बढ़ाते हुए पूछा, ‘क्या बात है वन्दना जी? आप अचानकइसे कदर गम्भीर क्यों हो गईं? आपका स्वास्थ्य तो ठीक है ना?’ ‘यह---’ वन्दना ने बड़ी कठिनाई से कांपते स्वर में कहना चाहा परन्तु दोबारा खामोश हो गई। उसकी दृष्टि अमर के कोट के कॉलर पर जमी हुई थी। अमर के लाल कोट के कॉलर मेंएक गुलाब टंका हुआ था - सन सफेद गुलाब। उसने गर्दन झुकाकर अपने कोट
के कॉलर में लगे फूल को देखा। दोबारा आश्चर्य से पूछा, ‘यह क्या?’ वह वन्दना की बदली हुई स्थिति का कारण समझ नहीं सका। ‘यह फूल---’ वन्दना ने सफेद गुलाब को देखते हुए दोबारा कहना चाहा, ‘परन्तु दोबारा खामोश हो गई। उसके दिल के अन्दर चोर थाइसलिये वह सोच रही थी कि अमर को कैसे ज्ञात हुआ कि रोहित अपने कोट के कॉलर में सदा सफेद ही गुलाब लगाया करता था? जहां तक लाल कोट का प्रश्न था, अमर को लाल कोट पर रोहित की पसन्द का सन्देह हो सकता था क्योंकि कोट को आज दुकान से खरीदते टाइमवह बिना अधिकार ही रोहित के विचारों में खो गई थी,इसे तरह कि उसे अपने समीप खड़े अमर तथा दुकान का भी ध्यान नहीं रह गया था। पैंट को खरीदते टाइमभी वह क्रीम रंग के पैंट पर अंगुलियां रखकर क्षण भर के लिए गम्भीर होती हुई अवश्य खो गई थीइसलिये यदि अमर ने उस पर किसी तरह का सन्देह किया होगा तो कोई अनुचित बात नहीं की होगी। यही बात पतली लाल रंग की सीधी धारीदार क्रीम रंग की टाई पर भी लागू हो सकती थी, यद्यपिइसे टाई में तथा रोहित की टाई में डिजाइन का अन्तर था, परन्तु अमर को रोहित की सफेद गुलाब वाली
पसन्द का कैसे ज्ञान हुआ, वन्दना कोई अन्दाजा नहीं लगा सकी। ‘आपइसे फूल के विषय में सोच रही हैं?’ अमर ने वन्दना को इतनी देर तक चिंतित तथा खामोश देखा तो पूछना ही पड़ा। ‘---’ वन्दना ने होंठों से कुछ नहीं कहां सूखे गले में थूक अटका हुआ था। थूक घोंटने के पश्चात् जब वह कुछ न कह सकी तो उसने ‘हां’ के संकेत पर अपना सिर धीरे-से हिला दिया। ‘यह फूल मुझे कपड़ों के उस दुकानदार ने दिया था जहां से आज हमने ढेरों कपड़े लिए हैं।’ अमर ने भोलेपन से कहा। ‘दुकानदार ने?’ वन्दना मानो कुछ समझी नहीं।? ‘जी हां - सोवेनीअर (स्मारिका) के रूप में। क्यों?’ अमर ने आश्चर्य से पूछा। ‘कुछ नहीं, कुछ भी नहीं।’ वन्दना नेएक गहरी सांस ली। मुस्कराई। दोबारा दृष्टि नीचे बिछा दी जहां उसके कदमों के समीप कालीन पर उसका लाल पीला गुलाब पड़ा हुआ था।
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