फ़िर से.
दोस्तों : चलिए “फिर से” कहानी कहानी खेलें!
कोई सात महीने हो गए कुछ लिखे हुए, तो मन में लिखने का कीड़ा कुलबुलाने लगा। तो हाज़िर हैएक रोमांटिक और फंतासी प्रसंगों पर आधारित ये नई कहानी, “फिर से”!
कहानी में ज्यादा सी बातें मेरे परिचित अंदाज़ वाली होंगी (तो शायद ज्यादा से पाठकों को थोड़ा बोर भी कर सकती हैं), और ज्यादा सी बातें नई भी होंगी। कुछ बातें समसामयिक विषयों पर भी होंगी, और कुछ बातें चिरंतन विषयों पर भी।
कोशिश यही रहेगी कि मनोरंजन होता रहे। आशा है कि धीरे-धीरे धीरे कर के ही सही, कुछ नियमित पाठक मिलेंगे।
स्वागत है सभी का!
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दोस्तों -इसे अपडेट सूची को स्टिकी पोस्ट बना रहा हूँ!
लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि सिर्फ पहनी पढ़ कर निकल लें। ये सिर्फ आपकी सुविधा के लिए है। चर्चा बंद नहीं होनी चाहिए 
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अपडेट 1
“अंकल जी,” अजय अंदर ही अंदर पूरी तरह से हिला हुआ था, लेकिन दोबारा भी उपरि से स्वयं को संयत दिखाने का पूरा प्रयास कर रहा था कि उस बूढ़े पुरुष को डर न महसूस हो, “आप चिंता मत करिए. मैंने इमरजेंसी पर कॉल कर दिया है. एम्बुलेंस बस आती ही होगी!”
बूढ़ा पुरुष ज्यादा मुश्किल से साँसे ले पा रहा था। उसका पूरा बदन पसीने से भीगा हुआ था और उसके चेहरे पर पीड़ा वाले जज्बातों थे। अजय ने उसको अपनी बोतल से पानी पिलाने की कोशिश करी भी थी, लेकिन वो बस दो तीन छोटी घूँट भर कर रह गया।
दोपहर की कड़ी, चिलचिलाती धूप उसके चेहरे पर पड़ रही थी,इसलिये वो अपनी आँखें भी ठीक से नहीं खोल पा रहा था। अजय ने ये देखा। घोर आश्चर्य की बात थी कि इन पंद्रह मिनटों में कई सारी गाड़ियाँ उनके सामने से चली गई थीं, लेकिन अभी तकएक ने भी अपना गाड़ी रोक कर माज़रा जानने की ज़हमत नहीं उठाई थी। दुनिया ऐसी ही तो है!
यह देख कर अजय समझ गया कि जो करना है, उसको स्वयं से ही करना है। उसका स्वयं का दाहिना कन्धा अपने जोड़ से थोड़ा हट गया था, लेकिन दोबारा भी उसने अपनी सारी ताक़त इकट्ठा करी और बूढ़े को अपनी बाँहों में उठा लिया। पीड़ा कीएक तीव्र लहर उसके दाहिने कन्धे से उठ कर मानों पूरे बदन में फ़ैल गई। लेकिन उसने कोशिश कर के अपनी ‘आह’ को दबा लिया।
‘बस पाँच छः स्टेप्स (कदम), और दोबारा कोई प्रॉब्लम नहीं!’ उसने सोचा और बूढ़े को अपनी बाँहों में लिए अपना पहला कदम बढ़ाया।
अजयएक ‘क्लासिक अंडरअचीवर’ था। उसको अपने जिंदगी में अपनी प्रतिभा और क्षमता के हिसाब से ज्यादा ही कम सफ़लता मिली थी - इतनी कि उसको समाजएक ‘असफ़ल’ आदमी या फिरएक ‘फेलियर’ कहता था। कम से कम उसके मित्र तो यही कहते थे!
एक टाइमथा जब उसके कॉलेज में उसके मित्र और उसके शिक्षक सभी सोचते थे कि यदि आईआईटी न सही, वोएक दिन किसी न किसी अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज - जैसे रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज - में तो जाएगा ही जाएगा! उसके आस पड़ोस की आंटियाँ सोचती थीं कि उनके बच्चे अजय के जैसे हों। लेकिन ऊपरवाले ने उसकी तक़दीर न जाने किस क़लम से लिखी हुई थी।एक के बादएक विपत्तियों और असफ़लताओं ने उसको तोड़ कर रख दिया था। ठीक कॉलेज से इंजीनियरिंग करना तो छोड़िए, इंजीनियरिंग कर पाना भी दूर का सपना बन गया। लिहाज़ा, मन मार कर उसको बीएससी और फ़िर ऍमसीए की डिग्री से ही समझौता करना पड़ा। आज तक उसकीएक भी ढंग की नौकरी नहीं लगी -एक आईटी कंपनी में नौकरी लगी थी, लेकिन वो दुर्भाग्यवश छूट गई। फिर, कभी किसी स्कूल में टीचर, तो कभी इंश्योरेंस एजेंट, तो कभी एमवे जैसी स्कीमें! कुछ बड़ा करने की चाह, कुछ हासिल कर पाने ही चाह दिन-ब-दिन बौनी होती जा रही थी।
वो बूढ़े को अपनी बाँहों में उठाये पाँच छः कदम चल तो लिया, लेकिन अभी भी छाँव दूर थी। ऐसी चटक धूप में छाँव भी चट्टानों और पेड़ों के ठीक नीचे ही मिलती है। उसको लग रहा था कि अब उसका हाथ टूट कर गिर जाएगा। लेकिन वैसा होने पर उस बूढ़े को अभूतपूर्ण हानि होनी तय थी। जैसे तैसे तीन चार ‘और’ कदम की दूरी तय करनी ही थी। अजय ने गहरी साँस भरी, और आगे चल पड़ा।
संयोग भी देखिए - आज 'एमवे' की मीटिंग थी मुंबई में। उसी के सिलसिले में वो अपने पुणे वाले घर से निकला था मुंबई को। जब उसने मुंबई-पुणे एक्सप्रेस वे पकड़ा, तब उसको लगा था कि आज तो आराम से पहुँच जाएगा वो! सामान्य दिनों के मुकाबले आज ट्रैफिक का नामोनिशान ही नहीं था जैसे। लेकिन दोबारा उसने अपने सामने वाली गाड़ी को देखा - ज्यादा अजीब तरीक़े से चला रहा था उसका ड्राइवर। कभीइसे लेन में, तो कभी उस लेन में। लोगों में ड्राइविंग करने की तमीज़ नहीं है, लेकिन ऐसा गड़बड़ तो कम ही लोग चलाते हैं। कहीं ड्राइवर को कोई समस्या तो नहीं है - ये सोच कर न जाने क्यों अजय उस गाड़ी से कुछ दूरी बना कर उसके पीछे ही चलने लगा।
कुछ ही क्षणों में उसकी शंका सच साबित हुई।
अचानक से ही सामने वाली गाड़ी सड़क के बीचों-बीच चीख़ती हुई सी रुक गई - कुछ ऐसे कि लेन के समान्तर नहीं, बल्कि लेन के लंबवत। ये स्थिति ठीक नहीं थी। फिलहाल ट्रैफिक ज्यादा हल्का था - बस इक्का दुक्का गाड़ियाँ ही निकली थीं उसके सामने से, लेकिन ये स्थिति कभी भी बदल सकती थी। उसने जल्दी से अपनी गाड़ी सड़क के किनारे पार्क करी और भाग कर अपने सामने वाली गाड़ी की तरफ़ गया। ये ज्यादा ही डरावनी स्थिति थी - सौ किलोमीटर प्रति घण्टे वाली सड़क पर पैदल चलना - मतलब जानलेवा दुर्घटना को न्यौता देना। लेकिन क्या करता वो!
जब उसने उस गाड़ी में झाँक कर देखा तो पाया किएक बूढ़ा पुरुष पसीने पसीने हो कर, अपना सीना पकड़े, पीड़ा वाले जज्बातों लिए अपनी सीट पर लुढ़का हुआ था। उसकी साँस उखड़ गई थी और दिल की धड़कन क्षीण हो गई थी। उसको देख कर लग रहा था कि उसको अभी अभी हृदयघात हुआ था। अजय ने जल्दी से बूढ़े को ड्राइवर की सीट से हटा कर पैसेंजर सीट पर बैठाया, और ख़ुद उसकी कर को ड्राइव कर के अपनी गाड़ी के ही पीछे पार्क कर दिया।एक मुसीबत कम हुई थी. अब बारी थी बूढ़े को बचाने की। हाँलाकि अजय को थोड़ा ही ज्ञान था, लेकिन उसने बूढ़े को कार्डिओपल्मोनरी रिसुसिटेशन चिकित्सा, जिसको अंग्रेज़ी में सीपीआर कहा जाता है, दिया।
जैसा फ़िल्मों में दिखाते हैं, वैसा नहीं होता सीपीआर! उसमें इतना बल लगता है कि कभी कभी चिकित्सा प्राप्त करने वाले की पसलियाँ चटक जाती हैं। वो बूढ़ा पुरुष कमज़ोर था -इसलिये उसकी भी कई पसलियाँ चटक गईं। नुक़सान तो हुआ था, लेकिन फिलहाल उसकी जान बच गई लग रही थी।इसे पूरी चिकित्सा में अजय के दाहिना कन्धा अपने स्थान से थोड़ा निकल गया!
छाँव तक जाते जाते अजय की स्वयं की साँसें उखड़ गईं थीं। उसको ऐसा लग रहा था कि कहीं उसको भी हृदयघात न हो जाए! उसने सावधानीपूर्वक बूढ़े को ज़मीन पर लिटाया। बूढ़ा दर्द के मारे दोहरा हो गया। अजय की हालत भी ठीक नहीं थी। लेकिन,
“अंकल जी,” उसने बूढ़े से पूछा, “अब आपको कैसा लग रहा है?”
“ब. बेटा.” बूढ़े ने बड़ी मुश्किल से टूटी फूटी आवाज़ में कहा, “तुम.ने ब.चा. लिया म.मुझे.”
“नहीं अंकल जी,” अजय ने सामान्य शिष्टाचार दिखाते हुए कहा, “ऐसा कुछ नहीं है! . और आप भी. थोड़ा आराम कर लीजिए।”
बूढ़ा अल्पहास में हँसा और जल्दी ही अपनीइसे हरक़त पर उसको पछतावा हो आया। हँसी के कारण उसको अपने पूरे बदन में तीव्र पीड़ा महसूस हुई। लेकिन दोबारा भी वो बोला,
“अबइसे बूढ़े की ज़िन्दगी में आराम ही आराम है बेटे,” उसने मुश्किल से कहा, “बयासी वर्ष का हो गया हूँ. अपना कहने को कोई है नहीं यहाँ! . जो अपने थे, वो विदेश में हैं।”
“आपके पास उनका नंबर तो होगा ही न!” अजय ने उत्साह से कहा, “मैं कॉल कर देता हूँ? आपका मोबाइल गाड़ी में ही होगा न?”
वो मुस्कुराया, “नहीं बेटे. तुम मेरे पास बैठो। उनको मेरी ज़रुरत नहीं है अब! . तुमने बीस मिनट में मेरे लिए इतना कुछ कर दिया, जो उन्होंने मेरे लिए बीस वर्ष में नहीं किया!”
अजय फ़ीकी हँसी में हँसा। यही तो नियम है संसार का। काम बन जाए, तो क्या बाप? क्या माँ?
लेकिन उसको अपने मम्मी बाप की कमी महसूस होती थी। उनको गए करीब पंद्रह वर्ष होने को आए थे अब! दोनों के इंश्योरेंस थे और अजय को उनकी मृत्यु पर इंश्योरेंस के रुपए भी मिले। लेकिन ज्यादातर रक़म उसके पापा के देनदारों को अदा करने में चली गई। अपने जीते जी, वो अपने मम्मी बाप का नाम ख़राब नहीं कर सकता था।
“. और मेरी बदक़िस्मती देखिए न अंकल जी,” उसने निराशापूर्वक कहा, “मैं अपने मम्मी बाप के लिए कुछ कर नहीं सकता!”
“क्या हुआ उनको बेटे?”
“अब वोइसे दुनिया में नहीं हैं अंकल जी,”
“दुःख हुआ जान कर!”
“कोई बात नहीं अंकल जी,” उसने गहरी साँस भरी, “. आपका नाम क्या है?”
“प्रजापति.” बूढ़े ने बताया, “मैं प्रजापति हूँ,” दोबारा उसने पूछा, “और तुम बेटे?”
“जी मेरा नाम अजय है.” अजय ने कहा, और पानी की बोतल बूढ़े के होंठों से लगाते हुए बोला, “लीजिए, थोड़ा पानी पी लीजिए.”
“अजय बेटे, तुम ज्यादा अच्छे हो!” बूढ़े नेइसे बार अच्छी तरह से पानी पिया, “माफ़ करना, ज्यादा प्यास लगी थी. तुम्हारे लिए कुछ बचा ही नहीं!”
अजय ने मुस्कुरा कर कहा, “अंकल जी, आप सोचिए नहीं! वैसे भी आपकी ज़रुरत मुझसे ज्यादा थी।”
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Dear dosto, As you yourself have seen, the website iss still fucked. So, I will not post the next updates of the kahani, till the server/stability of this site iss sorted. In the meantime, I will keep writing the kahani, for later, quick updates. Stay tuned. Love