The Rajsharma Sex Story of जलती चट्टान/गुलशन नंदा (Romance Special)
‘मनुष्य टाइमके ढाँचे में ढलता रहता है, जहाँ उसके दिल में आग है वहाँ दर्द भी है। आज वह देवता का रूप है तो कल शैतान भी हो सकता है। परंतु तुम्हारे देवता जो कल थे, वही आज भी पत्थर के पत्थर।’
‘तो दोबारा इंसानों से पत्थर ही भले।’
राजन से जब कोई उत्तर न बन पड़ा तो मौन हो गया। बातों-ही-बातों में दोनों यूँ खो गए कि वे जान भी न पाए कि कब अंधकार छा गया। दोनों चुपचाप जा रहे थे। शीतल पवन पार्वती के बालों से खेल रही थी, वह बार-बार चेहरे पर आ-आकर बिखर जाते थे। वह हर बार अपनी कोमल उंगलियों सेउन्को हटा देती थी। परंतुएक हवा का झोंका था, जो उसे बराबर तंग किए जा रहा था और अंत में पार्वती को ही हार माननी पड़ी। लट उसके चेहरे पर आकर जम गई। राजन ने मुस्कुराते हुए अपने हाथों से हटा दिया औरइसे तरह पीछे की ओर बिछा दिया कि वायु के लाख यतन करने पर भी वह माथे पर दोबारा न आई।
‘तुम्हारे हाथों में चमत्कार है।’ पार्वती ने उसकी ओर देखते हुए कहा।
‘हाथों में नहीं, दिल में।’
‘कैसा जादू?’
‘प्रेम का, पार्वती क्या तुम्हारे दिल में भी प्रेम बसता है?’
‘क्यों नहीं? और जिस दिल में प्रेम न हो वह दिल ही क्या?’
‘तो तुम्हें भी किसी-न-किसी से अवश्य प्रेम होगा।’
‘है तो-बाबा से, भगवान से और. और।’
‘और मुझसे?’ राजन पार्वती के समीप होकर बोला।
‘तुमसे।’ कहकर वह काँप गई।
‘हाँ पार्वती! अब मुझसे भेद कैसा। मैं तुम्हारे मुख से यही सुनने को बेचैन था।’ कहते-कहते राजन ने उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया।
पार्वती काँप रही थी-वह लड़खड़ाती बोली-
‘प्रेम? कैसा प्रेम? राजन ये तुम?’
‘अपने मन की कह रहा हूँ-मेरी आँखों में देखो, इनमें तुम्हें जिंदगी कीएक झलक दिखाई देगी।’
‘राजन मुझे कुछ दिखाई नहीं देता-फिर तुम कहना क्या चाहते हो?’
‘तुम्हारे दिल की कहानी, जो तुम्हारी पुतलियों में लिख गई है, वह मुझे सभी कुछ बता रही है।’
पार्वती मौन होकर उसे देखने लगी-राजन उस पर झुकते हुए बोला-
‘देखो-इन दो प्यालों में प्रेम रस छलक रहा है। तुम्हारे दिल की ये धड़कन बार-बार मेरे कानों में कह रही है कि तुम राजन की हो।’
पार्वती ये सुनते ही चिल्लाई-
‘राजन।’ और वह गाँव की ओर भागने लगी-राजन ने उसे रोकना चाहा, परंतु वह न रुकी-उसने पुकारा भी, पर कोई उत्तर न मिला।
राजन किनारे केएक पत्थर पर बैठ गया और अपने कहे पर विचारने लगा-कहीं पार्वती ये सभी अपने बाबा से तो नहीं कह देगी। यदि कह दिया तो वहउन्को मुँह कैसे दिखाएगा? इसी विचार में डूबा-डूबा आधी रात तक वह वहीं बैठा रहा।
जब वह घर पहुँचा तो हर ओर सन्नाटा छाया हुआ था-सब सो चुके थे। वह धीरे-धीरे अपने कमरे में पहुँचा और चुपचाप अपने पलंग पर लेट गया, परंतु नींद न आई।
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प्रातःकाल जब वह अपने कमरे सेबाहर् निकला तो आँगन के उस पार बरामदे में पार्वती खड़ी पालतू चकोर को बाजरा खिला रही थी। राजन को देखते ही उसने मुँह फेर लिया, पर राजन धीरे-धीरे बढ़ता हुआ उसके पास आ पहुँचा। पार्वती बिना कुछ सुने मुँह मोड़कर अंदर चली गई। राजन कोइसे बात पर ज्यादा क्रोध आया और वह जल्दी-जल्दी पांव उठाताबाहर् चला गया। उसने निश्चय किया कि जैसे भी हो आज उसे अलग रहने का प्रबंध करना ही होगा, आखिर कब तक दूसरों के घर रहेगा। कंपनी पहुँचते ही वह मैनेजर से मिला, उसने विश्वास दिलाया कि उसे जल्दी ही कोई घर दिला देगा।
सारा दिन वह बेचैन सा रहा। उसे रह-रहकर पार्वती पर क्रोध आ रहा था। आखिर उसने किया ही क्या था, वह उससे बिगड़ गई।
सायंकाल जब वह घर लौटा तो बाबा घर पर न थे। राजन धीरे-धीरे पग रखते हुए अपने कमरे तक पहुँचा। पार्वती अकेली बैठी थी। वह बेचैन दिखाई देती थी। राजन को देखते ही उसने अपनी आँखें झुका लीं।
राजन दबी आवाज में कहने लगा-‘पार्वती! मैं जानता हूँ कि तुम मुझसे रुष्ट हो और मेरे कारण दुखी भी हो। आज प्रातःकाल ही मैनेजर से मिला हूँ। आराधना की छुट्टियों के पश्चात् घर मिल जाएगा। लाचारी है, नहीं तो कब का चला गया होता।’
यह सुनकर भी पार्वती मौन रही। जब राजन नेइसे पर भी कोई उत्तर न पाया तो नाक सिकोड़ता हुआबाहर् चला गया और मंदिर की सीढ़ियों पर जा बैठा। आज वह क्रोधाग्नि में जल रहा था।
आज भी प्रतिदिन की तरह मंदिर की घंटियाँ बज रही थीं, देवताओं के पुजारी हाथों में आराधना के पुष्प तथा थालियों में जलते हुए दीप लेकर मंदिर की ओर जा रहे थे, राजन की दृष्टि बार-बार सीढ़ियों पर पड़ती, परंतु पार्वती के पाँव न देख पाता। उसे विश्वास था, वह अवश्य आएगी, क्योंकि राजन उससे रुष्ट है और वह इंतजार किए जा रहा था।
पार्वती की इंतजार ही उसकी आराधना थी।
परंतु वह न आई। आज आराधना पर क्यों न आई, ये सोचकर उसके मस्तिष्क में भांति-भांति के विचार आने लगे। कहीं उसे मुझसे घृणा तो नहीं। नहीं. ऐसा नहीं हो सकता। ये सोचते ही वह बरामदे की ओर बढ़ा और वहाँ से सारे मंदिर की ओर नजर घुमाई, परंतु पार्वती को न देख पाया। मंदिर में पहले से भी ज्यादा सजावट थी। शायद आराधना की तैयारी हो रही थी। कल से उसकी भी दो दिन की छुट्टियाँ थीं और वह तन्हा होगा। आज उसे मंदिर के देवता भी उदास खड़े दिखते थे, मानो वह भी अपनी पुजारिन की इंतजार में हों।
कल की तरह राजन आज भी घर देरी से लौटा। घर में सभी सो चुके थे। वह धीरे-धीरे अपने कमरे तक पहुँचा और चुपचाप अंदर चला गया। प्रकाश होते ही उसने देखा कि सामने बिछावन पर फूल फैले हुए थे।
उसके मुख की आकूति प्रसन्नता में विलीन हो गई। वह पलंग के पास गया वहीं फूलों में पड़ाएक पत्र पाया, राजन ने झट से उसे उठा लिया और पढ़ने लगा।
‘आशा करती हूँ तुम मुझे यूँ तन्हा छोड़कर न जाओगे।
-पार्वती’
राजन ने पत्र प्रेमपूर्वक दिल से लगा लिया और उसी शैय्या पर लेट गया।
प्रातःकाल आराधना की छुट्टी थी। उसने चाहा कि आज देर तक सोएगा, परंतु बेचैन दिल को चैन कहाँ, तड़के ही उठ बैठा।बाहर् अभी बहुत अंधेरा था, आकाश पर सितारे चमक रहे थे। राजन ने थोड़ा किवाड़ खोला औरबाहर् झांकने लगा। आँगन में ठाकुर बाबा खड़े शायद कहीं जाने की तैयारी में थे। आज आराधना के दिन वह मुँह अंधेरे ही नदी नहाने जा रहे थे। रामू भी उनके संग था।
जब दोनोंबाहर् चले गए तो राजन शीघ्रता सेबाहर् आ गया और ड्यौढ़ी के किवाड़ खोल अंदर देखने लगा। दोनों शीघ्रता से नदी की ओर बढ़े जा रहे थे, जब वे बहुत दूर निकल गए तो राजन ने ठंडी साँस ली और दबे पाँव पार्वती के कमरे में पहुँचा।
किवाड़ खुले पड़े थे और पार्वती संसार से बेखबर मीठी नींद सो रही थी। राजन चुपके से उसके पलंग के समीप जा रुका।
प्रातःकाल की शीतल वायु खिड़की से आ-आकर पार्वती के बालों से खिलवाड़ कर रही थी। आज भी उस दिन की तरह उसकी लटें उसके माथे पर आ रही थीं। राजन से न रहा गया और लट सुलझाने लगा। माथे पर उंगलियों का छूना था कि पार्वती चौंक उठी। राजन को अपने समीप देखकर घबरा-सी गई तथा लपक कर पास रखी ओढ़नी गले में डाल ली।
‘शायद तुम डर गईं?’ राजन ने उसे घबराए हुए देखकर कहा।
‘नहीं तो. परंतु।’
‘बात ये हुई कि आज नींद टाइमसे पहले खुल गई। सोचा बाबा कथा कर रहे होंगे चलकर दो घड़ी उनके पास हो आऊँ, परंतु वे चले गए।’
‘नदी स्नान को गए होंगे। आराधना का त्यौहार है। हाँ तुम्हें आज कथा की क्या सूझी?’
‘समय बदल रहा है, लोग देवताओं को छोड़ इंसानों पर फूल चढ़ाने लगे हैं, तो मैंने सोचा आज मैं भी जरा देवताओं की लीला सुन लूँ।’
पार्वती लजा कर बोली-‘कहीं सुनते-सुनते देवता बन बैठे तो?’
‘तो क्या? फूल चढ़ाने तो प्रतिदिन आया करोगी।’
‘न बाबा, मेरे फूल मुरझाने के लिए नहीं, ये तो उसे भेंट होंगे जो मुरझाने न दे।’
‘कोई ग्रहण करने वाला मिला भी?’
‘ऊँ हूँ।’
‘पार्वती! आज रात न जाने कोई भूले से मेरे बिछावन पर फूल रख गया। पहले तो मैं देखते ही असमंजस में पड़ गया।’
‘सो क्यों?’
‘यूँ लगता था मानो मुझे डाँट रहे हों परंतु जब मैं उनके समीप गया तो जानती हो उन्होंने क्या कहा।’
‘यही कि इतनी देर से क्यों लौटे?’
‘नहीं. पहले तो वह मुस्कराए और दोबारा बोले-राजन! हमें यूँ तन्हा छोड़कर न जाना।’
‘चलो हटो!’ पार्वती ने लजाते हुए उत्तर दिया और उठकरबाहर् जाने लगी। राजन रोकते हुए बोला-
‘जानती हो, लिखने वाले को लेखनी न मिली तो कोयले की कालिमा से ही लिख दिया।’
‘अच्छा आपकी दृष्टि वास्तविकता को न पहचान सकी।’
‘तो क्या?’
‘हाँ वह कालिमा न थी, बल्कि किसी के नेत्रों से निकला काजल था।’
राजन ने बात बदलते हुए पूछा-‘नदी स्नान करने चलोगी?’
‘तुम्हारे संग!’ इतना कहकर जोर-जोर से हँसने लगी।
‘इसमें हँसने की क्या बात है? यानि हम दोनों नहीं जा सकते तो जाओ अकेली।’
‘ऊँ हूँ।’
‘अकेली भी नहीं, किसी के संग भी नहीं, क्या अनोखी पहेली है।’
‘नहीं, नहीं मुझे जाना ही नहीं।’
‘अरे आज तो आराधना है।’
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‘हाँ राजन, आराधना का नृत्यदेख्ना हो तो आज.।’
‘तो तुम नाचोगी क्या?’ वह बात काटते हुए बोला।
‘हाँ परंतु देवताओं के सम्मुख।’
‘तो इंसान क्या करेंगे?’
‘लुक-छिपकर मंदिर के किवाड़ों से झाँकेंगे।’
‘यदि अंदर आ गए तो?’
‘तो क्या? देवताओं को प्रणाम कर कहीं कोने में जा बैठेंगे।’
‘नर्तकी नृत्य में बेसुध हो कहीं देवताओं को छोड़ मनुष्यों की ओर न झुक जाएँ।’
‘असंभव! शायद तुम्हें ज्ञात नहीं कि पायल की रुन-झुन, मन के तार और देवताओं की पुकार मेंएक ऐसा खिंचाव है, जिसे तोड़ना मनुष्य के बस का नहीं। मनुष्य उसे नहीं तोड़ पाता।’
‘तो दिल को बस में रखना, कहीं भटक न जाए।’
‘ओह शायद बाबा आ गए!’ पार्वती संभलते हुए बोली। ड्यौढ़ी के किवाड़ खुलने का शब्द हुआ। राजन जल्दी अपने कमरे की ओर लपका। पार्वती ने अपनी ओढ़नी संभाली और बरामदे में लटके बंद चकोर को बाजरा खिलाने लगी। अब राजन कमरे से छिपकर उसे देख रहा था।
बाबा को देखकर पार्वती ने नमस्कार किया।
‘क्या अब सोकर उठी हो?’ बाबा ने आशीर्वाद देते हुए पूछा।
‘जी, आज न जाने क्यों आँख देर से खुली।’
‘पूजा का दिन जो था। गाँव सारा नहा-धोकर त्यौहार मनाने की तैयारी में है और बेटी की आँख अब खुली।’
‘अभी तो दिन चढ़ा है बाबा!’ वह झट से बोली।
‘परंतु नदी स्नान तो मुँह अंधेरे ही करना चाहिए।’
‘घर में भी तो नदी का जल है।’
‘न बेटा! आज के दिन तो लोग कोसों पैदल चलकर वहाँ स्नान को जाते हैं। तुम्हारे तो घर की खेती है। जल्दी जाओ, तुम्हारे संग के सभी स्नान करके लौट भी रहे होंगे।’
‘बाबा! दोबारा कभी।’
‘तुम सदा यही कह देती हो, परंतु आज मैं तुम्हारीएक न सुनूँगा।’
‘बाबा!’ उसने स्नेह भरी आँखों से देखते हुए कहा।
‘क्यों? डर लगता है?’
‘नहीं तो।’
‘तो फिर?’
बाबा का ये प्रश्न सुन पार्वती मौन हो गई और अपनी दृष्टि फेर ली, दोबारा बोली-‘बाबा सच कहूँ?’
‘हाँ-कहो।’
‘शर्म लगती है।’ उसने दाँतों में उंगली देते हुए उत्तर दिया।
बाबा उसके ये शब्द सुनकर जोर-जोर से हँसने लगे और रामू की ओर मुँह फेरकर कहने लगे-
‘लो रामू-अब ये स्त्रियों से भी लजाने लगी, पगली कहीं की, घाट अलग है, दोबारा भी यदि चाहती हो तो थोड़ी दूर कहीं एकांत में जाकर स्नान कर लेना।’
‘अच्छा बाबा! जाती हूँ, परंतु जब तक एकांत न मिला नहाऊँगी नहीं।’
‘जा भी तो-तेरे जाने तक तो घाट खाली पड़े होंगे।’
‘हाँ-लौटूँगी जरा देर से।’
‘वह क्यों?’
‘मंदिर में रात को आराधना के लिए सजावट जो करनी है।’
‘और फल?’
‘पुजारी से कह रखे हैं।’
पार्वती ने सामने टँगीएक धोती अपनी ओर खींची-बाबा ने बरामदे में बिछीएक चौकी पर बैठकर इधर-उधर देखा और कहने लगे-‘क्या राजन अभी तक सो रहा है?’
‘देखा तो नहीं-उसकी भी आज छुट्टी है।’ पार्वती ने धोती कंधे पर रखते हुए उत्तर दिया।
बाबा ने राजन को पुकारा-वह जल्दी आँगन में जा पहुँचा, उसके हाथों में वही रात वाले फूल थे। ‘पार्वती उसे देखते हीएक ओर हो ली।’
राजन ने दोनों को नमस्कार किया।
‘मैं समझा शायद सो रहे हो।’
‘नहीं तो मंदिर जाने की तैयारी में था।’
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