The Rajsharma Sex Story of जलती चट्टान/गुलशन नंदा (Romance Special)
‘होना क्या है, बचपन कहाँ से लाएँ?’
‘बचपन? तो क्या यौवनावस्था खेलने की नहीं।’
‘तो यौवन में भी खेला जाता है?’
‘क्यों नहीं, परंतु दोनों में भेद है।’
‘कैसा भेद?’
‘यही कि बचपन में मनुष्य अपने हाथों मिट्टी के घर बनाता है और खेलने के पश्चात् अपनी ठोकर से उसे तोड़-फोड़ देता है परंतु युवावस्था के खेलों में मिट्टी के एक-एक कण को बचाने के लिए अपने जिंदगी की बाजी लगा देनी होती है। यदि दोबारा भी वह टूट जाए तो उसकी आँखों की नींद मिट जाती है। पलंग पर पड़ा छटपटाता रहता है। जिंदगी की वह निराशा आँखों की राह आँसू बनकर बह निकलती है।’
‘यह तो कवियों की बात है। यौवन का एक-एक समय अमूल्य होता है। इसे खेल-कूद में खो दिया तो आयु-भर पछताना पड़ेगा। बाबा कहते हैं-बचपन खेल-कूद और यौवन पूजा-पाठ में बिताना चाहिए।’
‘और बुढ़ापा खाट पर।’ राजन ने पार्वती की बात पूरी करते हुए कहा।इसे पर दोनों हँस पडे़। राजन दोबारा बोला-
‘परंतु मैं तुम्हारे बाबा की बातों में विश्वास नहीं करता।’
‘कल के बच्चे हो! तुम भला बाबा की बातें क्या समझो।’
‘तुम तो समझती हो?’
‘क्यों नहीं, तुमसे अधिक। ये सभी बाबा ने ही तो सिखाया है-समय पर उठना, टाइमपर सोना, पूजा-पाठ, घर का काम-काज.।’
‘और कभी-कभी मुझसे बातें करना।’
‘हाँ, परंतु वह तो बाबा ने नहीं सिखाया।’
‘स्वयं ही सीख गईं न। इसी तरह बढ़ती यौवनावस्था में कई ऐसी बातें हैं, जो कोई नहीं सिखाता, बल्कि मनुष्य स्वयं ही सीख जाता है।’
‘तो क्या मुझे और भी कुछ सीखना है?’
‘बहुत कुछ।’
‘परंतु मुझे और कुछ नहीं सीखना।’
‘वह क्यों?’
‘इसलिए कि बाबा ने कहा है कि अंधकार के पश्चात् कुछ सीखना नहीं चाहिए, बल्कि घर पहुँचना चाहिए।’
‘ओह! बातों में भूल ही गया।’
और दोनों घर की ओर चल पड़े।
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रास्ते में राजन बोला-
‘पार्वती! जानती हो आज कंपनी से मैंने पहला वेतन पाया है।’
‘मुँह अब खुला।’
‘अवसर ही कब मिला, खेल-कूद की बात जो आरंभ हो गई थी।’
‘तो क्या वह इससे ज्यादा आवश्यक थी। वहाँ कह दिया होता तो मंदिर में तुम्हारे नाम का प्रसाद ही.।’
‘वह कार्य तो तुम्हारे बाबा कर चुके।’
‘आखिर बाबा की ही मानी, मैं होती तो कहते मैं इन बातों में विश्वास नहीं रखता।’
बातों-ही-बातों में दोनों घर पहुँच गए। बाबा पहले ही इंतजार में थे। देखते ही बोले-
‘कब से आरती के लिए राह देख रहा हूँ।’
‘बाबा! दीनू की चाची मिल गई थी और बातों में देर हो गई.।’
‘और राजन तुम खाना खा आए?’
‘जी! अभी सीधा होटल से आ रहा हूँ।’
बाबा और पार्वती ने आरती आरंभ की, राजन को भी विवश हो उनका संग देना पड़ा। आरती के पश्चात् जब पार्वती बाबा के संग रसोईघर की ओर गई तो राजन होठों पर जीभ फेरते हुए अपने कमरे में आ लेटा। भूख के मारे पेट पीठ से लगा जा रहा था और पेट में चूहे उछल-कूद कर रहे थे। आज बाबा से झूठ बोला कि वह भोजन कर चुका है।
वह ये सोच ही रहा था कि किवाड़ खुले और पार्वती ने अंदर प्रवेश किया-उसके हाथों में गिलास था।
‘यह क्या?’
‘दूध।’
‘किसलिए?’
‘तुम भूखे हो न।’
‘तुम्हें किसने कहा?’
‘तुम्हारी आँखों ने-तुमने बाबा से झूठ कहा था न!’
‘हाँ पार्वती. और तुम भी तो.।’
‘हाँ राजन आज से पहले मैं कभी झूठ नहीं बोली-न जाने.।’
‘कोई बात नहीं, यौवन के उल्लास में अकसर झूठ बोलना ही पड़ता है।’
‘अच्छा, बढ़िया दूध पी लो, मैं चली.।’
‘ठहरो तो-देखो, तुम्हारे लिए मैं कुछ लाया हूँ।’
‘चॉकलेट!’ पार्वती ने प्रसन्नता से हाथ बढ़ाया और कुछ टाइमतक चुपचाप खड़ी रही, आँखें छलछला आईं।
राजन घबराते हुए बोला, ‘क्यों क्या हुआ?’
‘यूँ ही बाबूजी की याद आ गई-बचपन में वह भी मुझे हर साँझ को कैंटीन से चॉकलेट लाकर दिया करते थे।’
‘ओह.! बढ़िया ये आँसू पोंछ डालो और लो.।’
‘परंतु तुमने बेकार पैसे क्यों गँवाए?’
‘एक चवन्नी की तो है।’
‘चवन्नी-चवन्नी से ही तो रुपया बनता है, और हाँ-तुम तो कह रहे थे कि कलकत्ता सेएक चीज मँगाई है।’
‘हाँ पार्वती, मिण्टो वायलिन-एक अंग्रेजी साज मुझे बजाने का ज्यादा शौक है।’
‘और मुझे नृत्य का।’
‘सच! तुम नाच भी सकती हो?’
‘क्यों नहीं, परंतु सिर्फ अपने देवता के सामने।’
‘मनुष्य के लिए नहीं?’
‘नहीं इनमें क्या रखा है?’
‘तो इन बेजान निर्जीव पत्थरों में क्या रखा है?’
‘राजन ये तुम नहीं समझ सकते।’
‘पारो! ओ पार्वती!’ बाबा की आवाज सुनाई दी। वह जल्दी ही भागती हुई कमरे सेबाहर् चली गई। राजन ने दूध का गिलास उठाया और उसे पीने लगा। पार्वती शायद शक्कर मिलाना भूल गई थी, परंतु राजन के लिए मिठास बहुत थी, पार्वती के हाथों ने जो छुआ था।
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दूसरी सायंकाल ठीक पूजा के समय राजन मंदिर की सीढ़ियों पर पहुँच गया। जब तक छुट्टी के पश्चात् वह पार्वती से मिल नहीं लेता, उसे चैन नहीं आता था। वह उससे प्रेम करने लगा था और उसे विश्वास था कि पार्वती भी उसे हृदय से चाहती है।
राजन जब कभी उसे अपना प्रेम जताना चाहता था तो वह पूजा और देवताओं के किस्से ले बैठती। वह जानता था कि वह जो कुछ अनुभव करती है या तो समझती नहीं अथवा स्वयं मुख से कह नहीं सकती।
उसने निश्चय किया, आज कुछ भी हो वह उसके हृदय को टटोलेगा।
वह इन्हीं विचारों में मग्न प्रेम के मधुर स्वप्न देख रहा था कि पायल की रुन-झुन ने उसे चौंका दिया। पार्वती मुस्कुराती हुई सीढ़ियों से उतर रही थी।
तो आज भी उसने राजन को सीढ़ियों पर पाया।
राजन उसे देखते ही बोला-‘नदी किनारे चलोगी?’
‘क्यों?’
‘घूमने।’
‘ऊँ हूँ-देर हो जाएगी।’
‘आज पहली बार कहा है, सोचा था-मना नहीं करोगी।’
‘अच्छा चलती हूँ-परंतु देर.।’
‘वह मैं जानता हूँ, तुम चलो तो।’
दोनों नदी की ओर चल दिए।
राजन बोला-‘एक बात पूछूँ?’
‘क्या?’
‘यह प्रतिदिन पूजा के फूल अपने देवताओं पर चढ़ाती हो, उससे तुम्हें क्या मिलता है?’
‘बहुत कुछ।’
‘फिर भी?’
‘मन की शांति।’
‘क्या तुम्हें विश्वास है, यह फूल देवता स्वीकार कर लेते हैं?’
‘क्यों नहीं, श्रद्धापूर्वक जो कुछ चढ़ाया जाता है, वह स्वीकार्य ही है।’
‘यह सब कहने की बातें हैं-जानती हो इन फूलों का क्या होता है?’
‘क्या?’
‘पत्थर के देवताओं के चरणों में पड़े-पड़े अपने सौंदर्य को खो देते हैं।’
‘परंतु कुछ पाकर।’
‘क्या?’
‘शांति अथवा अंत।’
‘अंत ही कहो-सौंदर्य का अंत.।’
‘तो!’ पार्वती कहती-कहती रुक गई।
राजन कहे जा रहा था-‘इन फूलों की तरह तुम्हारा यौवन सौंदर्य भी समाप्त हो जाएगा, मन मुरझा जाएगा, फिर तुम कहोगी-मेरा मन शांत हो गया।’
‘तो क्या मुझे मुरझाना होगा।’
‘हाँ पार्वती! अगर तुम यूँ ही पत्थर से दिल लगाती रहीं तो एक दिन तुम्हें भी मुरझाना ही होगा। जीवन अर्पित ही करना है तो किसी मानव को ही दो, जो तुम्हें मुरझाने न दे।’
‘तो क्या मनुष्य कभी देवता जैसा हो सकता है?’
‘क्यों नहीं, पुजारी चाहे तो मनुष्य को भी देवता बना सकता है।’
‘तो देवता और मनुष्य में अंतर ही क्या है?’
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