The Rajsharma Sex Story of जलती चट्टान/गुलशन नंदा (Romance Special)
उसके हाथ तेजी से बर्फ उठाकर किनारे पर फेंक रहे थे। जब बर्फ हटाकर उसने मम्मी कोबाहर् निकाला तो उनका बदन बर्फ के समान ठण्डा हो रहा था। उसने मम्मी को हाथों से उठा लिया और उन्हीं कदमों से पुनः अपने घर लौट आया। आग अब तक जल रही थी। उसने बदन को गर्मी पहुँचाने के लिए मम्मी को आग के समीप लिटा दिया और उसके हाथ अपने हाथों से मलने लगा। उसने एक-दो बार मम्मी को पुकारा भी, परंतु वह खामोश थी। जब बहुत देर तक बदन में गर्मी न आई तो वह डरा और एकटक मम्मी की आँखों में देखने लगा-वे पथरा चुकी थीं। दोबारा अपने कान उसके दिल के समीप ले गया और ‘माँ-माँ’ पुकार उठा।
माँ तो सदा के लिए जा चुकी थी, उसकी साँस सदा के लिए बंद हो चुकी थी। कमरे की दीवारों से टकराकर ये शब्द गूँज रहे थे।
‘तुम्हारा प्रेमएक धोखा है,एक भूख है, जो तुम्हें जानवर बनने को विवश कर रहा है। लगन आत्मा से होती है,इसे नश्वर बदन से नहीं।’
वह मम्मी के मृत बदन से लिपटकर रोने लगा।
**
जब रात्रि के अंधियारे में वह बर्फ के सफेद फर्श पर अपनी मम्मी की चिता लगा रहा था-तब सारी ‘वादी’ रंगरलियों में मग्न थी। बारात के बाजे बज रहे थे और नीले आकाश पर उसके दिल के टुकड़े रंगीन सितारों के रूप में बिखर रहे थे। उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। आज भी उसके हर संकट में दुःख बटाने वाला कुंदन उसका हाथ बटा रहा था। वह कभी राजन को और कभी उस जगमगाते घर की ओर देखता-जहाँ पार्वती की शादी हो रही थी।
दूसरी साँझ जब हरीश के घर के सामने पार्वती की डोली रुकी तो मजदूरों काएक जत्था नाचता-गाता पीछे आ रहा था। माधो थैली से पैसे निकाल उस समूह पर न्यौछावर करता और जब वह उन पैसों को उठाने दौड़ते तो वह फूला न समाता। प्रसन्न भी क्यों न होता-सफलता का सेहरा भी उसी के सिर पर था।
डोली का पर्दा उठा तो पार्वतीबाहर् आई। कुछ स्त्रियाँ, जो शायद हरीश के घर से आई हुई थीं, दुल्हन के समीप आ गईं और उसे अंदर की ओर ले जाने लगीं। माधो ने थैलियों से कुछ पैसे निकाले-कहारों की ओर हाथ बढ़ाया तो चौंक उठा-उसके मुँह से निकला-‘राजन’ और हाथ पुनः लौटा लिए। डोली के सारे कहारों में राजन भीएक था, जिसके मुख पर उदासी के बादल छाए हुए थे। राजन का नाम सुनते ही हरीश मुड़ा-जाती हुई दुल्हन के कदम भी समय भर के लिए रुक गए। सबके मुख पर हवाइयाँ सी उड़ने लगीं। हरीश संभलते हुए बोला-‘आओ राजन! तुम कब आये?’
‘मैनेजर साहब-आप चाहे मुझे अपनी शादी में न बुलाते, परंतु पार्वती की शादी में मुझे पहुँचना ही था-डोली में कंधा कौन देता।’
‘हाँ, क्यों नहीं तुम्हारा अपना घर है, जब जी चाहे आओ ना।इसे बस्ती में और है ही कौन, जिससे दो घड़ी बैठ अपना मन बहलाओगे।’
‘इसीलिए तो काम अधूरा छोड़कर चला गया। कहीं काका ये न कहें कि पार्वती का अपना भाई नहीं, डोली उठाने राजन भी न आया।’
भाई का नाम सुनते ही हरीश घबराकर माधो की ओर देखने लगा। माधो लज्जित-सा हो दूसरी ओर देखता हुआ बाकी कहारों कोएक ओर ले जा पैसे देने लगा। ज्यों ही दुल्हन के पाँव अंदर की ओर बढ़े-हरीश राजन से बोला-‘भैया अंदर चलो।’
फिर दोनों चुपचाप दुल्हन के पीछे जाने लगे। नई दुल्हन को उपरि वाले कमरे में ले जाया गया और हरीश राजन को संग ले नीचे गोल कमरे में जा बैठा। उसनेएक नौकर से राजन के लिए खाना लाने को कहा, परंतु राजन ने इंकार कर दिया।
‘क्यों राजन, मुँह भी मीठा नहीं करोगे?’
‘आप तो मुझे लज्जित कर रहे हैं मैनेजर साहब! भला मैंइसे घर का कैसे खा सकता हूँ?’
‘यह तो पुराने विचार हैं, आज के जमाने में अब इन बातों का कोई अर्थ नहीं रह गया है।’
‘पुराने विचारों पर विश्वास तो मुझे भी न था, परंतु अब तो अपने आप पर भी न रहा।’
‘राजन, संसार में मनुष्य कई बाजियाँ हारकर ही जीतता है।’
‘मन को बहलाना है मैनेजर साहब-किसी तरह बहलाया जाए-वरना किसकी हार और किसकी जीत।’
इतने में माधो भी आ पहुँचा औरएक तीखी दृष्टि राजन पर डालते हुए हरीश के पास जा बैठा। राजन थोड़ी देर चुप रहने के पश्चात उठा और हरीश से जाने की आज्ञा माँगी, परंतु वह रोकते हुए बोला-‘क्या पार्वती से नहीं मिलोगे?’
राजन ने कोई उत्तर न दिया. परंतु उसकी आँखों में छिपे आँसुओं से हरीश भाँप गया और सीढ़ियों पर खड़ीएक स्त्री को संकेत किया। राजन आश्चर्यपूर्वक हरीश को देखने लगा और दोबारा धीरे-धीरे पग उठाता उपरि की ओर जाने लगा।
जब उसने दुल्हन के सुसज्जित कमरे में प्रवेश किया तो सामने सुंदर कपड़ों में पार्वती को देख उसकी आँखों में छिपे मोती छलक पड़े, जिन्हें वह पी गया और चुपचाप पार्वती को देखने लगा, जो लाज से अपना मुख घूँघट में छिपाए दूसरी ओर किए बैठी थी। वह अपने विचारों में आज इतनी डूबी बैठी थी कि उसे किसी के आने की आहट सुनाई न दी।
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राजन ने धीरे-धीरे से झिझकते हुए पुकारा-‘पार्वती!’
पार्वती काँप-सी गई और मुँह पर घूँघट की ओट से राजन कोएक तिरछी नजर से देखा। उसे तन्हा देख उसने घूँघट चेहरे से हटाया और चुपचाप उसे देखने लगी। पार्वती दुल्हन के रूप में पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान लग रही थी। उसकी भोली और उदासी से भरी सूरत को देख राजन का दिल डूब
गया. दोबारा संभलते हुए बोला-
‘पार्वती तुम्हें देखने चला आया. कुछ देर से पहुँचा।’
‘देर से. कब आए?’ वह धीरे-धीरे से बोली।
‘कल रात।’
‘रात को. किसी ने कहा तो नहीं।’
‘रात पहुँचा तो सही. परंतु तुम्हारे इधर न पहुँच सका।’
‘बाबा तो थे ही नहीं. दोबारा तुम्हें भी न देखा. जानते हो सारी रात फूलों के बिछौने मेरे आँसुओं ने सजाए।’
‘बजती शहनाइयाँ तो मैंने भी सुनीं और आकाश पर फटते रंगीन सितारे देख मैं तो प्रसन्नता से पागल हुआ जा रहा था. पर ये सभी मैंने दूर से देखा. मुझे भी तो किसी की चिता जलानी थी।’
‘राजन!’ पार्वती के दिल मेंएक हूक-सी उठी।
‘हाँ. पार्वती! मम्मी की चिता! वह मुझे छोड़कर सदा के लिएइसे संसार से चली गई है।’
‘यह सभी कैसे हुआ?’
‘कई बार सोचा.एक बार तुम्हें देख लूँ. परंतु भाग्य को स्वीकार न था।’
‘मैं उनसे मिली थी राजन।’
‘कब?’
‘जिस साँझ उन्होंने तुम्हारी आरती उतारी थी।’
‘पार्वती! रात को जब मैं जलती चिता के किनारे खड़ा आकाश पर जलते सितारे देख रहा था तो मुझे वही महात्मा दिखाई पड़े. जो कहते थे. तुम्हारे प्रेम में सिवाय ‘जलन’ और ‘तड़प’ के कुछ नहीं और मैं मुस्करा दिया था।’
‘राजन! अब इन सभी बातों को भूलना होगा।’
‘इसीलिए तो आज मैं तुमसे कुछ माँगने आया हूँ।’
‘क्या?’
‘तुम्हारी इन आँखों में मान और स्नेह-जिसमें प्रेम की झलक हो. जलते हुए अंगारों को अब सिर्फ जल की आवश्यकता है।’
‘तुम्हें भीएक वचन देना होगा।’
‘कहो।’
‘आज से इन आँखों में आँसुओं के स्थान पर मुस्कुराहट दिखाई दे।’
अभी वह बात पूरी कर भी न पाई थी कि हरीश ने अंदर प्रवेश किया. पार्वती ने झट से घूँघट ओढ़ अपना मुँह घूँघट में छिपा लिया. हरीश मुस्कराते हुए बोला-‘कहो राजन. क्या बात चल रही है? तुम्हें घरपस्न्द आया कि नहीं?’
‘देवता का गृह तो स्वर्ग होता है. स्वर्ग भी किसी कोपस्न्द न हो? हाँ मैनेजर साहब. आपकोइसे स्वर्ग मेंएक बात का ध्यान रखना होगा।’
‘क्या?’
‘पार्वती उदास न होने पाए।’
यह शब्द राजन के मुँह सेइसे भोलेपन से निकले कि हरीश अपनी हँसी रोक न सका. राजन हाथ बाँधताबाहर् को जाने लगा।
जाते-जाते बोला-‘मैनेजर साहब. हम अछूत सही. परंतु नीच नहीं. निर्धन अवश्य हैं. परंतु दिल इतना तंग नहीं रखते. जहाँ तूफान की तरह जूझना जानते हैं. वहाँ झरनों की तरह बह भी पड़ते हैं, दोबारा भी मनुष्य हैं और मनुष्यों से गलती होना संभव है।’
दोनोंबाहर् चले गए. पार्वती ने छिपी-छिपी आँखों से उस दरवाजे को
देखा. जहाँ थोड़ी देर पहले राजन खड़ा उससे बातें कर रहा था।
कंचन सामने खड़ी भाभी को देख मुस्करा रही थी। वह हरीश की छोटी बहन थी।
‘आओ कंचन!’ पार्वती ने प्रेम से उसे अपने पास बुलाया।
‘मैंने सोचा सभी अच्छी तरह से देख लें तो मैं भाभी के पास जाऊँ।’
‘तोइसलिये इतनी देर से वहीं बैठी हो।’
‘हाँ भाभी. मैं तो आनंदपूर्वक सबकी बातें सुन रही थी और सोच रही थीं, कुछ नहीं।’
‘क्या सोच रही थी-अपनी भाभी से भी न कहोगी?’
‘मैं सोच रही थी भाभी! कल जब मेरी शादी होगी तो क्या मेरी ससुराल वाले भी यूँ ही तारीफ करेंगे?’
‘क्यों नहीं. और जरा मौका आने दो-तुम्हारे भैया से कह तुम्हारी शादी जल्दी ही करवा दूँगी।’
‘भाभी, अभी से भैया का रौब देने लगी हो।’ और वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। पार्वती लजा-सी गई। कंचन उसका मुँह उपरि उठाती हुई बोली-‘हाँ भाभी अब भैया पर तुम्हारा ही अधिकार है-हम तो सभी सेवक हैं-कहो क्या आज्ञा है?’
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इतने में मौसी की भारी-सी आवाज ने कंचन को पुकारा। वह जाने को उठी-पार्वती ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-‘हमारी आज्ञा न सुनोगी?’
‘कहो भाभी।’
‘तुम मत जाओ-आज हम दोनों इकट्ठी सोएंगी।’
‘क्यों?’
‘अकेले में डर लगता है।’
‘इस अंधेरी रात से या भइया से।’
फिर वह मुँह में उंगलियाँ दबा के शरारत भरी हँसी हँसने लगी। पार्वती लजा सी गई-मौसी की पुकार दोबारा सुनाई दी और कंचन भागती नीचे उतर गई।
सीढ़ियों पर किसी के पैरों की आहट हुई-पार्वती ने अपने आपको समेटकर घूँघट से छिपा लिया। हर स्वर पर उसका दिल काँप उठता था। ज्यों-ज्यों पांव की आहट समीप होती गई, वह अपने बदन को सिकोड़ती गई। अचानक छत की बत्ती बुझ गई, उसके संग ही कोने की मेज़ पर रखा ‘लैम्प’ प्रकाशित हो गया। पार्वती की जान-में-जान आई और मस्तिष्क पर रुकी पसीने की बूँदें बह पड़ीं।
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