The Rajsharma Sex Story of जलती चट्टान/गुलशन नंदा (Romance Special)
सीढ़ियों पर किसी के पैरों की आहट हुई-पार्वती ने अपने आपको समेटकर घूँघट से छिपा लिया। हर स्वर पर उसका दिल काँप उठता था। ज्यों-ज्यों पांव की आहट समीप होती गई, वह अपने बदन को सिकोड़ती गई। अचानक छत की बत्ती बुझ गई, उसके संग ही कोने की मेज़ पर रखा ‘लैम्प’ प्रकाशित हो गया। पार्वती की जान-में-जान आई और मस्तिष्क पर रुकी पसीने की बूँदें बह पड़ीं।
‘शायद तुम डर गईं?’ हरीश का स्वर था।
थोड़ी देर रुकने के पश्चात वह बोला-
‘सोचा सामने की बत्ती जला दूँ, कहीं घूँघट में अंधेरा न हो।’
वह दोबारा भी चुपचाप रही-हरीश समीप आकर बोला-
‘क्या हमसे रूठ गई हो?’ और धीरे-धीरे से पार्वती का घूँघट उठा दिया।
‘जानती हो दुल्हन जब नये घर में प्रवेश करे तो उसका नया जिंदगी आरंभ होता है और उसे देवता की हर बात माननी होती है।’
‘परंतु मैं आज अपने देवता के बिना पूछे ही किसी को कुछ दे बैठी।’
‘किसे?’
‘राजन को।’ वह काँपते स्वर में बोली।
‘क्या?’
‘स्नेह और मान जो सदा के लिए मेरी आँखों में होगा।’
‘तो तुमने ठीक किया-मनुष्य वही है जो डूबते को सहारा दे।’
‘तो समझूँ, आपको मुझ पर पूरा विश्वास है।’
‘विश्वास! पार्वती मन ही तो है, इसे किसी ओर न ले जाना, तुम ही नहीं, बल्कि आज मेरे दिल में भी राजन के लिए स्नेह और मान है। कभी सोचता हूँ कि मैं उसे कितना गलत समझता था।’
‘परंतु जलन में वह आनंद का एहसास करता है-कहता था. सुख और चैन मनुष्य को निकम्मा बना देता है, ‘जलन’ और ‘तड़प’ मनुष्य को ऊँचा उठने का अवसर देते हैं।’
‘पार्वती! मैं भी आज तुम्हें वचन देता हूँ कि उसे उठाना मेरा काम ही नहीं, बल्कि मेरा कर्त्तव्य होगा।’
पार्वती ने स्नेह भरी दृष्टि से हरीश की ओर देखा-हरीश के मुख पर अजीब आभा थी। उसे लगा कि निविड़ अंधकार में प्रकाश की रेखा फूट पड़ी थी।
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आठ
राजन शीघ्रता से सीढ़ियाँ चढ़ता उपरि वाले कमरे में जा पहुँचा। भीतर जाते ही जल्दी ही रुक गया-पार्वती सामने खड़ी मेज पर चाय के बर्तन सजा रही थी। राजन को देखते ही मुस्कुराईं और बोली-
‘आओ राजन!’
‘मैनेजर साहब कहाँ हैं?’ राजन ने पसीना पोंछते हुए पूछा।
‘आओ बैठो हम भी तो हैं, जब भी देखो मैनेजर साहब को ही पूछा जाता है।’
‘परंतु.।’
‘वह भी इधर हैं, क्या ज्यादा जल्दी है?’
‘जी वास्तव में बात ये है कि’ वह कहते-कहते चुप हो गया।
अभी वह जी भर देख न पाया था कि संग वाले दरवाजे से हरीश ने अंदर प्रवेश किया। राजन कुर्सी छोड़ उठ खड़ा हुआ।
‘कहो राजन, सभी कुशल है न?’
‘जी, परंतु वह जो कलुआ की बहू है न।’
उसी टाइमपार्वती सामने दरवाजे से ट्रे उठाए भीतर आई।
‘तो क्या हुआ कलुआ की बहू को!’
‘बच्चा’, और ये कहते-कहते उसने शरमाते हुए आँखें नीचे झुका लीं।
‘बच्चा? वह तो अभी चार नम्बर में कमा रही थी।’
‘जी-काम करते-करते।’
‘तोइसलिये बार-बार तुम शरमा रहे थे। मैंने सोचा न जाने क्या बात है?’ पार्वती ने हाथ बढ़ाया और चाय का प्याला हरीश के समीप ले गई। हरीश बोला, ‘पहले राजन।’
‘उसका तो ये ज्यादा खांड वाला है।’ और मुस्कुराते हुए दूसरा प्याला राजन की ओर बढ़ाया-राजन हिचकिचाया।
‘केवल सादी चाय, तुम्हें भाती है-फिर तुम्हें अभी ज्यादा काम करना है-कलुआ की बहू को अस्पताल भी पहुँचाना है।’
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सब हँस पड़े-राजन ने काँपते हाथों से प्याला पकड़ लिया और जल्दी-जल्दी चाय पीने लगा।
**
आज उसे नए घर में आए तीन मास हो चुके थे-इस बीच में वह कितनी ही पहेलियाँ, चुटकुले और पुस्तकें अपने पति से सुन चुकी थी। कुछ इधर की और कुछ पहाड़ों के दूसरी ओर बसी हुई दुनिया की।
यह सोच पार्वती के होठों पर मुस्कान दोबारा नाच उठी।
अचानक वह दरवाजे पर माधो को खड़ा देख काँप गई और झट से ओढ़नी सिर पर सरकाई, वह ये जान भी नहीं पाई कि माधो कब से खड़ा उसे देख रहा था।
‘कुशल तो है पार्वती!’ वहएक अनोखी आवाज में बोला।
‘माधो काका, आओ, जरा आराम करने को बैठी थी।’
‘जरा मैनेजर साहब से मिलना था।’
‘वह तो अभी कंपनी गए हैं। राजन आया था, कलुआ की बहू की तबियत खराब हो गई थी।’
‘राजन ने मुझे कह दिया होता-उन्हें क्यों बेकार में कष्ट दिया।’
‘तो क्या हुआ-उनका भी तो कुछ कर्त्तव्य है।’
‘पार्वती बुरा न मानो तोएक बात कहूँ।’
‘क्या बात है?’ पार्वती सतर्क हो गई।
‘राजन काइसे घर में ज्यादा पहुँचना ठीक नहीं-फिरनीच जाति का भी है।’
‘काका!’ वह चिल्लाई और क्रोध में बोली-‘काका जो कहना है उसे पहले सोच लिया करो।’
‘मैंने तो सोच-समझकर ही कहा है और कुछ अपना कर्त्तव्य समझकर-क्या करूँ, दिन-रात लोगों की बातें सुन-सुनकर पागल हुआ जाता हूँ। कहने की हद होती है-तुम्हें भी न कहूँ तो किसे कहूँ।’
‘मैनेजर साहब से, उनके होते हुए मुझे किसी की मदद की आवश्यकता नहीं।’
‘उनकी मर्यादा भी तो तुम ही हो। जब लोग तुम्हारी चर्चा करें तो उनका मान कैसा? लोग तो इधर तक कहते हैं कि मैनेजर साहब दहेज में अपनी पत्नी के दिल बहलावे को भी संग लाए हैं। और तो और, इधर तक भी कहते सुना है कि तुम अपने पति की आँखों में धूल झोंक रही हो।’
‘काका!’ पार्वती चिल्लाई।
पार्वती कुछ देर मौन रही, दोबारा माधो के समीप होते हुए बोली-
‘तो काका, सभी लोग यही चर्चा कर रहे हैं?’
‘मुझ पर विश्वास न हो तो केशव दादा से पूछ लो, और दोबारा राजन का तुमसे नाता क्या है?’
‘मनुष्यता का।’
‘परंतु समाज नहीं मानता और किसी के मन में क्या छिपा है, क्या जाने?’
‘मुझसे ज्यादा उनके बारे में कोई क्या जानेगा?’
‘परंतु धोखा वही लोग खाते हैं, जो आवश्यकता से ज्यादा विश्वास रखते हैं।’ ये कहते हुए माधो चल दिया।
वह इन्हीं विचारों में डूबी साँझ तक यूँ ही बैठी रही। उधर हरीश लौटा तो उसे यूँ उदास देख असमंजस में पड़ गया, पूछने पर पार्वती ने अकेलेपन का बहाना बता बात टाल दी और मुस्कराते हुए हरीश को कोट उतारने में मदद देने लगी।
‘तो कलुआ की घरवाली की गोद भरी है!’ वह जीभ होठों में दबाते हुए बोली।
‘हाँ, पुत्र हुआ है और आश्चर्य है कि ऐसी दशा में भी काम पर जाती है।’
‘तो आप उसे आने क्यों देते हैं?’
‘हम तो नहीं, बल्कि उसका पेट उसे ले आता है।’
‘कहीं तबियत बिगड़.।’
‘बिलकुल नहीं-वह तो यूँ लगती है जैसे कुछ हुआ ही नहीं।’
‘तो अभी तक आप अस्पताल में थे?’
‘नहीं तो, वहाँ से मैं और राजन दूर पहाड़ों की ओर चले गए थे।’
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‘पहाड़ों में? ये शौक कब से हुआ?’
‘पार्वती वास्तव में हम किसी खोज में हैं। इन पहाड़ों में कहीं-न-कहीं तेल है। इसका पता मिल जाए तो मानों जिंदगी ही संपन्न हो जाए और सच पूछो तो इसमें ज्यादा हाथ राजन का है।’
‘वह क्या जाने इन बातों को?’
‘मेरे संग रहते भी तो उसे आज तीन मास हो गए हैं। पत्थरों की पहचान तो उसे ऐसी हो गई है कि घंटों पहाड़ों में खोज करता रहता है, और हाँ, कल दोपहर वह मुझे ऐसे स्थान पर ले जा रहा है, जहाँ पत्थर शायद हमारा भाग्य खोल दें।’
‘कौन-सा स्थान है वह?’
‘उस स्थान का तो मुझे अभी तक पता नहीं। राजन ने ही देखा है। वही कल मुझे ले जा रहा है।’
‘तो हमारे जाने के पश्चात् इधर कोई भूत आते हैं।’
‘हाँ तो’ और पार्वती हरीश के पास सरक गई।
‘तो अब कौन आया था?’
‘माधो काका।’
माधो का नाम सुन हरीश हँस पड़ा और बोला-‘वह भी तो किसी भूत से कम नहीं-क्या कहता था?’
‘आपको पूछ रहा था, शायद कोई काम हो।’
हरीश ने अपना बायाँ हाथ पार्वती की कमर में डाला और दायें हाथ से उसकी ठोड़ी अपनी ओर करते हुए बोला-
‘वह तो होते ही रहते हैं-छोड़ो इन बातों को।’ दोबारा दोनोंबाहर् आ जंगले पर खड़े हो गए।
मंदिर में आराधना के घंटे बजने लगे। पार्वती के दिल में भी उथल-पुथल मची हुई थी। जब हरीश की आवाज उसने सुनी तो चौंक उठी।
‘तुम्हें तो बीते दिनों की याद आ रही होगी?’
‘जी’-उसने कुछ मदहोशी में उत्तर दिया।
‘तुम भी तो कभी हर साँझ देवता की आराधना को जाती थी।’
‘वह तो मेराएक नियम था।’
‘तो उसे तोड़ा क्यों?’
‘आपसे किसने कहा-मैं तो अब भी आराधना करती हूँ।’
‘कब?’
‘हर समय, हर घड़ी-मेरे देवता तो मेरे सामने खड़े हैं।’
‘तो तुम मेरी आराधना करती हो-न फूल, न जोत, न घंटियाँ।’
‘जब दिल किसी की आराधना कर रहा हो तो ये फूल, ये जोत, ये घंटियाँ सभी बेकार हैं।’
‘पार्वती आज मैं वापिस आ रहा था तो राजन के हाथ मेंएक बड़ा सुंदर फूल देखा-तुम्हारे लिए लाने को मन चाहा।’
‘लाल रंग का गुलाब होगा।’
‘तुमने कैसे जाना?’
‘उसे ये फूल ज्यादा बढ़िया लगता है।’
‘परंतु जब मैंने उससे माँगा तो उसने अपने हाथों से मसल डाला।’
‘वह क्यों?’
‘कहने लगा ये फूल सुंदर है-इसमें सुगंध नहीं।’
हरीश ने देखा कि पार्वती सुनते ही उदास-सी हो गई है और किन्हीं गहरे विचारों में डूब गई है। उसने अपनी बांहों का सहारा दिया और बोला-
‘चलो पार्वती, साँझ हो गई, घर में अंधेरा है।’
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