The Rajsharma Sex Story of जलती चट्टान/गुलशन नंदा (Romance Special)
SATISH wrote: ↑09 Apr 2020 16:39Dost ye novel maine nahi padha hai . agar apke pas pdf me hai to mujhe de do![]()
राजभाई ज्यादा ही मस्त नावेल है ये यदि हो सके तो गुलशन नंदा काएक और नावेल "मैली चांदनी" पोस्ट करे तो आपकी ज्यादा मेहरबानी होगी
![]()
main ise post kar dunga
agar kisi bhai ke pas hai to mujhe dene ka kasht karen
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पार्वती चुप हो गई। न जाने कितनी ही देर बैठी जिंदगी की उलझनों को मानो सुलझाती रही। उधर केशव दादा सोने के लिए गए। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था।इसे सन्नाटे में मानो आज डर के स्थान पर शांति छिपी हुई थी। बाबा के जाने के पश्चात वह पहली रात्रि थी, जो पार्वती को न भा रही थी। वह अपने पलंग से उठ, खिड़की के समीप जा खड़ी हुई और उसे खोल लिया।
बाहर अंधेरा छाया हुआ था। धुनकी हुई रुई के समान बर्फ गिरती दिखाई दे रही थी। पहाड़ी की ऊँचाई पर लगी ‘सर्चलाइट’ का प्रकाश घूम-घूमकर बर्फ ढकी ‘वादी’ को जगमगा रहा था। घूमता हुआ प्रकाश जब खिड़की से होते हुए पार्वती के चेहरे पर पड़ता तो उसकी आँखें मूंद जातीं। दोबारा आँख खुलते ही उसकी दृष्टि जाते हुए प्रकाश के साथ-साथ ऊँची सफेद चोटियों पर जा रुकती और उसे ऐसा एहसास होता मानो वह ऊँचाई की ओर उड़ती जा रही हो और रह-रहकर वे शब्द उसके कानों में गूँजते-‘अपने लिए तो हर कोई जीता है दूसरों के लिए जीना जिंदगी है।’
उसने खिड़की बंद करने को हाथ बढ़ाया, पर न जाने क्या सोच उसे खुला छोड़ दिया और अपने पलंग पर जा लेटी।
उसकी आँखों में नींद न थी। वह टकटकी बाँधे खिड़की से गिरती बर्फ को देखे जा रही थी।
उसे भी अपने बाबा का वचन पूरा करना था। उसेइसे संसार मेंएक मनुष्य की तरह जीना है और देवता की लगन उसका सच्ची जीवन। वही उसे शांति तथा सुख का रास्ता दिखाता है।
दूर कहीं कोई उस अंधेरी और बर्फीली रात्रि में बाँसुरी की तान छेड़ रहा था। पार्वती उस धुन में खो सी गई।
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छः
दूसरी साँझ ठीक आराधना के टाइममंदिर की सीढ़ियों पर दोबारा से पाजेब की झंकार सुनाई दी। आजएक अर्से के पश्चात पार्वती अपने देवता के लिए जा रही थी। सीढ़ियों पर आज उसके पग धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। वह दिल कड़ा कर मन में देवता का ध्यान धर उपरि जाने लगी। आराधना के फूलों में सेएक लाल रंग का गुलाब नीचे गिरा। पार्वती के उठते हुए कदम अपने आप रुक गए। वह घबरा-सी गई, नीचे झुक फूल उठाने लगी, परंतु उसका हाथ पड़ने से पहले ही वह फूल किसी राही के पाँव तले आकर मसला गया। पार्वती ने कड़ी दृष्टि से उस राहगीर को देखा-जोएक साधु था और दोबारा कदम बढ़ाती सीढ़ियाँ चढ़ गई।
सर्दी के कारण मंदिर में भीड़ ज्यादा कम थी। अंदर प्रवेश करते ही पार्वती नेएक बार चारों ओर देखा। दीवारों पर लगी तस्वीरें तथा देवमूर्ति सभी उदास लगते थे. मानो उनकी पुजारिन के बिना उनकी दुनिया सुनसान थी। धीरे-धीरे वह देवमूर्ति की ओर बढ़ी। केशव काका उसको देखते ही मुस्कराए और प्रसाद की थालीएक बुढ़िया के हाथ में देते हुए बोले-
‘आओ पार्वती-पूजा की थाली लाना भूल गयीं क्या?’
‘हाँ काका-फूल जो लाई हूँ।’ दोबारा पास खड़ी बुढ़िया को देखने लगी, जो टकटकी बाँध उसके चेहरे को देख रही थी। केशव यूँ अनजान नजरों से दोनों को एक-दूसरे को देखते हुए पाकर बुढ़िया से बोला-
‘मेरी बेटी पार्वती आज ज्यादा दिनों के पश्चात आराधना को चली आई।’
‘ओह चिरंजीव रहो बेटी!’ लड़खड़ाते शब्दों में बुढ़िया ने उसे आशीर्वाद दिया औरबाहर् चली गई। पार्वती नेएक बार उसे देखा, दोबारा देवता की तरफ मुड़ी।
‘जानती हो कौन थी?’ केशव ने थाली में रखे दीये में जोत डालते हुए पूछा।
‘नहीं तो।’ पार्वती ने फूल देवता के चरणों में अर्पित किए और जिज्ञासु की भांति उसकी ओर देखने लगी।
केशव ने थाली बढ़ाई। पार्वती ने दीये की जोत जला दी। सामग्री का धुंआ पार्वती के चेहरे पर लाते हुए वह बोला-
‘राजन की माँ।’
‘माँ!’ पार्वती के मुँह से निकला और वह आश्चर्यचकित केशव की ओर देखने लगी।
केशव थाली नीचे रखता हुआ बोला-‘क्यों क्या हुआ?’
‘मुझे. कुछ भी तो नहीं. परंतु ये यहाँ?’
‘थोड़े ही दिन हुए आई है। प्रतिदिन आराधना को आती है। कह रही थी-शायद राजनबाहर् जा रहा है।’
यह सुनकर पार्वती के दिल को ठेस-सी लगी। वह पूछना चाहती थी-कहाँ जा रहा है वह. पर शब्द मुँह में ही रह गए।
ज्यों ही राजन की मम्मी को धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरते देखा वह उस ओर लपकी, परंतु उसके पांव अचानक रुक गए और वह मुंडेर की ओट में छिप गई। सीढ़ियों पर मुँह मोड़ राजन खड़ा था। पार्वती अपने को रोक न सकी। चोरी-चोरी उसने नीचे झाँका। मम्मी अपने बेटे की आरती उतार रही थी। राजन ने अपनी मम्मी के पांव छुए और सीढ़ियों पर मसले फूल को उठा लिया। पहले फूल की ओर और दोबारा मंदिर की ओर देखने लगा, पार्वती दोबारा से ओट में हो गई। न जाने किन-किन बातों को याद कर उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
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थोड़ी देर पश्चात जब उसने नीचे देखा तो राजन दूर जा रहा था। वह मुंडेर सेबाहर् आ गई और उसे देखने लगी। दूर कंपनी का ट्रक खड़ा था। शायद कहींबाहर् जा रहा था। किसी के आने की आहट पर उसने आँसू पोंछ डाले। केशव समीप आते हुए बोला-
‘क्यों पार्वती, क्या देख रही हो?’
‘दूर बर्फ से ढकी चट्टानों को।’
‘ओह! आज ‘वादी’ की काली पहाड़ियां सफेद हो गयीं।’
‘हाँ काका, तुम कहते थे राजन अछूत है और नास्तिक भी।’
‘हाँ तो।’
‘तो उसकी मम्मी प्रतिदिन आराधना करने क्यों आती है?’
‘उसका अपना विश्वास है। दोबारा भगवान का दरवाजा तो हर मनुष्य के लिए खुला है और मंदिर के पट तो तुम्हारे बाबा ने ही अछूतों के लिए खोले थे।’
‘हाँ काका, यदिउन्को अछूतों से घृणा होती तो वह राजन को अपने घर रखते ही क्यों?’
‘हाँ!’ काका कुछ दबे स्वर में बोले।
‘वास्तव में हमें दूर करने के लिए भगवान नहीं बल्कि इंसान है, ये समाज है और उसके बनाए हुए नियम।’
‘पार्वती! संसार को चलाने के लिए इन सामाजिक रीति-रिवाजों का होना आवश्यक है, हमें इनको मानना पड़ेगा।’
‘परंतु मनुष्य इन्हें तोड़ भी तो नहीं सकता।’
‘हाँ, यदि तोड़ने से उसकी भलाई हो तो.।’
‘मेरी तथा राजन की भलाई तो इसी में है-हमें औरों से क्या?’
‘तुम भूल रही हो-हमइसे संसार में अकेले नहीं जी सकते-न ही दूसरों का सहारा लिए बिना आगे बढ़ सकते हैं।’
‘हमें किसी का सहारा नहीं चाहिए।’
‘तो जानती हो इसका परिणाम?’
‘क्या?’
‘राजन का अंत।’
‘नहीं काका।’ पार्वती चीख उठी।
‘यह कंपनी से निकाल दिया जाएगा। हरीश उसे घृणा की दृष्टि से देखेगा। पढ़ा-लिखा तो है नहीं, दर-दर की ठोकरें खाता फिरेगा और बूढ़ी मम्मी के लिए किसी दिन संसार से चल बसेगा।’
‘ऐसा न कहो काका।’
‘कहने या न कहने से क्या होता है?एक निर्धन का जिंदगी तोएक छोटा-सा बुलबुला है, जो जरा से थपेड़े से भी टूट सकता है। वह सभी कुछ तुम्हें अपने लिए नहीं, बल्कि राजन तथा उसकी बूढ़ी मम्मी के लिए करना है।इसे बलिदान का नाम ही सच्ची लगन है।’
‘तो काका मैं अपना दिल पत्थर के समान कर लूँगी। मैं उसे नष्ट होते नहीं देख सकती। मैं उसके जिंदगी मेंएक काली छाया नहीं बनना चाहती।’
‘पार्वती, दूसरे के लिए जीना ही तो जिंदगी है। वही प्रेम सच्ची है जो निःस्वार्थ हो, जैसे पतंगे का दीप शिखा के प्रति, चकोर का चाँदनी तथा भक्त का भगवान के प्रति।’
पार्वती चुप हो गई। केशव ने स्नेह से भरा अपना हाथ कंधे पर रखा और उसे देख मुस्कराया। दोबारा बोला-
‘जाड़ा ज्यादा होता जा रहा है, अब तुम चलो-आज मैं जल्दी आ जाऊँगा।’
पार्वती ने दुशाला अच्छी तरह से ओढ़ते हुए उत्तर में ठोड़ी हिला दी और सीढ़ियाँ उतर गई।
वह सीढ़ियाँ उतरती नीचे की ओर जा रही थी और उसे लग रहा था जैसे विगत जिंदगी की एक-एक बात चलचित्र की भाँति उसके सामने आकर मिटती जा रही थी।
उसे लगा-जैसे उसके दिल में कहीं कुछ छिप गया है, धीरे-धीरे कुछ वर्ष रहा है। उसका गला रुँध गया है। जिन सीढ़ियों पर कभी वह हँसी बिखेरती आती थी और दिल में लाती थी राजन से मिलने की उमंगें! अरमान!. उन्हीं सीढ़ियों पर झर रहे थे उसकी आँखों से तप्त तरल आँसू! और दिल में भरी थी दारुण व्यथा! ऐसी टीस, जिसे वह किसी तरह सह नहीं पा रही थी।
वह बार-बार आंचल से आँसू पोंछती, धीरे-धीरे पग उठाती सीढ़ियाँ उतरती घर की ओर जा रही थी।
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