Romance Sex Story : श्राप [Completed]
नए सूत्र औरएक और नवीन कथा से हम सबको परिचित करवाने की हार्दिक शुभकामनाएं।
कहानी आपके स्वादानुसार छोटे उम्र के नायक और बड़ी उम्र की नायिका की प्रतीत हो रही है। आशा है किइसे कहानी में आप जिंदगी के कुछ और पहलुओं से हम सबको परिचित करवाएंगे।
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एक और नई कहानी के लिए हार्दिक आभार।
लेकिन लगता है आप लड़की की उम्र लड़के से ज्यादा करने से बाज नही आओगे। यहां भी प्रियम्बदा को नायक से नौ वर्ष बड़ा कर दिया।
श्राप कहानी का शीर्षक है और पहले अपडेट मे श्राप का प्रसंग भी आ गया। वैसे तो ये सभी सतयुग , त्रेतायुग और द्वापर युग की बातें है। पौराणिक ग्रंथो मे वरदान और श्राप का अनेकों वर्णन मिलता है।
पर कलयुग मे कोई भी मनुष्य पूर्णतयाः श्रेष्ठ नही होता। सभी मे कुछ न कुछ कमियां पाई ही जाती है। मुझे नही लगता कलयुग मे कोई भी आदमी मन , वचन और कर्म से पुरी तरह पाक है। और जब इंसान पुरी तरह पाक ही नही है तो वो भला क्या वरदान देगा और भला क्या श्राप देगा !
ब्राह्मण स्त्री के संग ज्यादा गलत हुआ था। उनकी करूणार्द्र पुकार, वेदना और दिल से निकली हाय सीधे परमपिता के कानों तक पहुंची।
और दोबारा उस ब्राह्मणी के मुख से निकले शब्द को प्रभु ने सत्य कर दिया।
एक अलग तरह की स्टोरी लग रहा है यह।
शायद ये स्टोरी प्रियम्बदा की ही है। उसके जिंदगी के सुख दुख की है। और शायद उस श्राप की है जिससे उसे भी जूझना है ।
शानदार शुरुआत और शानदार लेखनी avsji भाई।
आउटस्टैंडिंग अपडेट।
मुझे लगा ५० ६० वर्ष के युवा ज्यादातर बार दिल जीतने वाले की कहानी बताएंगे आप
Bilkul sai kaha. yeh khurafati insan haen, loug yaha mutth maarne kaa saadhan khojne aate haen or yeh logo say vahi chheen lena chahte haen. These atyachari loug
इतनी औपचारिकता तो ज्यादा ही कठिन हैएक साधारण रूप से रहन सहन करने वालों के लिए। सुंदर चित्रण किया है आपने।
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Update #2
बलभद्र देव जी किसी तरह के अंधविश्वासों में विश्वास नहीं करते थे। और तो और, वो करीब नास्तिक थे - स्वयं सूर्य और पृथ्वी के पूजक थे। हाँ, ये अवश्य है कि उन्होंने किसी दूसरा को अपने विश्वास का पालन करने से मना नहीं किया कभी भी। और अपनी परम्पराओं का भी सम्मान करते थे। लेकिन वो ये समझ रहे थे कि राजपरिवारों से जुड़ने का ऐसा सुनहरा अवसर उनके हाथ लगा है, तो बस दूसरा राजपरिवारों के अंधविश्वास के कारण! राजपुरोहित जी के प्रस्ताव लाने के चार महीनों के ही अंतराल में युवराज हरिश्चंद्र सिंह और राजकुमारी प्रियम्बदा का विवाह सम्पन्न हो गया।
यहएक ऐसा विवाह था जिसका चंद्रपुर रियासत कोएक बड़े लम्बे अर्से से इंतज़ार था। जनता में आशा थी कि राजकुमारी के युवा होते ही राजमहल में विवाह का नाद होगा; आनंद रहेगा! लेकिन विधि का विधान - वैसा नहीं हुआ। वर्ष दर वर्ष बीत गए. चंद्रपुर की जनता, अपने भावी ‘राजा’ की राह देखती रह गई। अवश्य ही अब देश गणराज्य था, लेकिन राज-परिवारों को ले कर जनता का कौतूहल अभी भी बरकरार था - इधर तक कि बेहद सादगी से रहने वाले बलभद्र देव के परिवार को ले कर भी! संभव है कि ये कौतूहल बलभद्र जी के प्रजावत्सल होने के कारण रहा हो! वो जनता के शुभचिंतक थे, तो जनता भी उनकी शुभचिंतक थी! सभी बस यही चाहते थे कि राजकुमारी जी का जल्दी ही विवाह हो, उनकी संतान हो, और वो चंद्रपुर रियासत का नेतृत्व करे! लेकिन बिना विवाह के कुछ संभव नहीं था।
इसलिए जब दोनों के सम्बन्ध तय होने की खबर चंद्रपुर की जनता में फ़ैली, ये सिर्फ ज़मींदारों का ही नहीं, बल्कि पूरे चंद्रपुर की शान का प्रश्न हो गया। विवाह सेएक सप्ताह पहले से ही ढोल-ताशों का नाद बजने लगा था चंद्रपुर में! हर घर में रंगाई पुताई, राजमहल जाने वाले रास्ते के दोनों किनारों पर चूने की लकीर और रास्ते की अच्छी साफ़ सफ़ाई! ये सभी काम रियासत के वाशिंदों ने स्वयं किया. किसी से कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। और विवाह वाली रात पूरी रियासत असंख्य दीयों की रौशनी से ऐसी जगमगा रही हो, जैसे वो दिवाली की रात हो! ये कहना न्यूनोक्ति होगा कि महाराज घनश्याम सिंह ऐसा सम्बन्ध पा कर फूले नहीं समाए।
प्रियम्बदा कोई अपार सुंदरी नहीं थी - सामान्य चेहरे मोहरे, और कद काठी वाली, बत्तीस वर्ष की लड़की थी। थोड़ा साँवला रंग था उसका। अपने पिता का प्रोत्साहन पा कर घुड़सवारी का आनंद उठा लेती थी, लेकिन बस उतना ही! पहले तो उस पर भी उसकी माता का विरोध होता रहता था, लेकिन जैसे जैसे शादी की उम्र निकलने लगी, उसकी माता ने भी उस पर लगाई हुई मनाही थोड़ी कम कर दी। उसमें जो सुंदरता थी, वो सहज सुंदरता थी। लेकिन उसका व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था!
जब महाराज घनश्याम ने प्रियम्बदा कोएक सभा को सम्बोधित करते हुए देखा और सुना, तो न जाने क्यों उनकोएक आनंद सा महसूस हुआ। उनको लगा किइसे लड़की में उनके घर की बहू, और राज्य की अगली रानी बनने की समस्त खूबियाँ हैं। पता करने पर मालूम हुआ कि वो अभी भी कुँवारी है और खानदानी, राजसी परिवार से है! थोड़ा प्रयास करने से उनको देव परिवार के बारे में सभी कुछ मालूम हो गया! उनको अपार हर्ष भी हुआ जब बलभद्र देव महाराज ने उनका विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
सुदूर पूर्व और सुदूर पश्चिम का ऐसा सुन्दर मिलन! आज के टाइममें सभी कुछ होता है, लेकिन उस टाइमतो कोई स्थानों के नाम भी ठीक से जानता भी नहीं था।
उस टाइमपरिवारों के बड़े ही आपस में बातचीत कर के अपने बच्चों के सम्बन्ध तय कर लेते थे। इधर भी यही हुआ था, लेकिन गनीमत ये थी कि बलभद्र जी ने अपनी बेटी को, उसके होने वाले पति के बारे में जितना संभव था, उतनी जानकारियाँ उपलब्ध कराईं। अपने स्तर पर जो संभव था, उन्होंने भावी दामाद के बारे में जानने का प्रयास किया। हरिश्चंद्र, जिसको अब उनके घर ‘हरीश’ नाम से पुकारते थे,एक बढ़िया युवा था। अपने टाइमके पुत्रों के समान उसको भी अपने पिता की, अपने परिवार के सम्मान की बड़ी चिंता रहती थी।इसलिये उसका पूरा प्रयास रहता था कि वो कोई ऐसा कदम न उठाए जिससे कि उसके परिवार का सर नीचा हो। वैसे भी उसके लकड़दादा के पाप का बोझ कुछ ऐसा भारी था, कि रजवाड़े होते हुए भी वो सभी अपना सर थोड़ा नीचे ही रख कर चलते थे। पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ निकलती जा रही थीं, दोबारा भी वो बोझ बढ़ता ही जा रहा था!एक तरह का सामाजिक बहिष्कार उनको झेलना पड़ रहा था अपने समकक्ष राजाओं से! पढ़ा लिखा तो वो था ही; आकर्षक भी था। विश्वविद्यालय में अनेकों लड़कियों को वो भाता था। हो भी क्यों न? और ऐसा नहीं है कि वो उन लड़कियों की चेष्टाओं से अनभिज्ञ था। लेकिन दोबारा भी उसने कभी अपनी इच्छाओं से वशीभूत हो कर कुछ नहीं किया। कहीं कुछ ऐसा न हो जाए, कि खानदान का सर और झुक जाए, ये डर सदैव बना रहता था उसके दिल में! जब प्रियम्बदा के संग ये सम्बन्ध उसके सामने प्रस्तुत हुआ, तो उसने माता पिता के चरण छू कर उसको स्वीकार कर लिया।
प्रियम्बदा को भी स्वयं को ले कर कोई उदात्त अनुमान नहीं थे। वो जानती भी थी और समझती भी थी कि वोएक सामान्य सी दिखने वाली लड़की है। संग ही संग वो हरीश से आयु में ज्यादा बड़ी भी है। ऐसे में उसका वैवाहिक जिंदगी फिल्मों में दिखाई जा रही कहानियों जैसा नहीं होने वाला था। उपरि से, ज़मींदार की लड़की होने से ले कर युवरानी और भावी रानी होने का सफ़र भी उसी को तय करना था। कठिन काम था यह! लेकिन उसके संस्कार पुख़्ता थे। पढ़ी लिखी, समझदार और गुणवती लड़की थी वो। उसको मालूम था कि वोएक आदर्श बहू बन सकती है, और उसका प्रयास था कि उसके कार्य ऐसे रहें जिससे उसके अपने माता पिता, और अपने ससुराल दोनों का ही सम्मान और बढ़े!
चन्द्रपुर से महाराजपुर का सफ़र लम्बा था - ज्यादातर टाइमट्रेन से जाना, दोबारा रेल-स्थानक से गाड़ी से महाराजपुर! टाइमलगता है। उस टाइमद्रुतगामी ट्रेन नहीं होती थीं! लिहाज़ा करीब तीन दिन लगने थेइसे यात्रा में! अच्छी बात ये थी कि ट्रेन में फर्स्ट क्लास की व्यवस्था थी।इसलिये राजपरिवार उसी में सफ़र कर रहा था। वैसे उस ट्रेन मेंइसे बार ज्यादातर लोग राजपरिवार के ही थे। पारस्परिक अंतर्ज्ञान के लिए नई नवेली जोड़ी के पास कुछ अवसर अवश्य था, लेकिन कुछ ऐसा हिसाब किताब बैठा कि दोनों को बात करने के अवसर कम ही मिले; और जो मिले, वो बस हाँ, हूँ, में ही निकल गए। हर मुख्य रेल-स्थानक पर महाराज घनश्याम से मिलने वाली बड़ी बड़ी हस्तियाँ मौजूद थीं! अवश्य ही वो सामाजिक रूप से हाशिए पर थे, लेकिन राजनीतिक रूप से उनका प्रभाव प्रबल था।इसलिये मिलने वालों की कोई कमी नहीं थी।इसलिये अपने गंतव्य तक पहुँचते पहुँचते ट्रेन को और भी ज्यादा टाइमलग गया।
जब वो महाराजपुर पहुँचे तो नवविवाहिता युवरानी के स्वागत के लिए भव्य बंदोबस्त था! प्रियम्बदा की आँखें चुँधिया गईं - ऐसा स्वागत हुआ! उस टाइमलगभग संध्या हो चली थी; युवरानी की देखभाल के लिए ससुराल से सेविकाएँ आई हुई थीं! वैसे तो राजपरिवारों में चलन ये था कि बहू अपने संग अपने मायके से ही सेविकाएँ ले आती थी, लेकिन प्रियम्बदा वैसी नहीं थी। सरल सी जीवनशैली थी उसकी!इसलिये ससुराल ने ही पूरा बंदोबस्त किया था। सेविकाओं ने ही उसको स्वागत योग्य परिधान और भारी ज़ेवर पहनाए, और महाराजपुर सेएक स्टेशन पहले ही पूरी तरह सुसज्जित कर दिया! रेलवे स्थानक पर राजसी बैण्ड बाजा मौजूद था, और पूरा स्टेशन ऐसा सुसज्जित था कि जैसे वो कोई रेलवे स्थानक नहीं, बल्कि कोई मैरिज-हॉल हो! रेल के डब्बे से निकलने के रास्ता पर लाल कालीन बिछी हुई थी, जिस पर फूलों की भीएक कालीन सी बिछी हुई थी। उसके चेहरे परएक पतला, लेकिन लम्बा सा घूँघट डाला हुआ था, जो परंपरा के अनुसार ही था। लेकिन घूँघट के अंदर से वोबाहर् के दृश्य भली-भाँति देख सकती थी। नव-युगल की आरती होने के बाद, डब्बे से ले करबाहर् गाड़ी तक पहुँचते हुए पुष्प-वर्षा थमी नहीं! अद्भुत सा, रोमांचक अनुभव! अब जा कर प्रियम्बदा को समझ में आया कि उसका जिंदगी कितना बदल गया है!
महाराजपुर में भी चन्द्रपुर जैसी ही व्यवस्था थी - जिधर दृष्टि जाती, हर घर में जगमग करते दीये जल रहे थे। गाड़ियों का काफ़िला धीरे-धीरे धीरे चल रहा था! उसके ससुर और उसके पति अपनी जनता से मिल रहे थे, और सभी का यथोचित आशीर्वाद ले रहे थे। प्रियम्बदा गाड़ी में अकेली ही थी - हाँ उसके लिएएक सेविका आगे बैठी हुई थी। कुछ बच्चे गाड़ी के शीशे से अंदर झाँक कर नई दुल्हन को देखने का प्रयास भी कर रहे थे, लेकिनबाहर् गोधूलि के प्रकाश के कारण कुछ देख नहीं पा रहे थे। उसको पश्चात में मालूम हुआ कि आज रात से ले करएक सप्ताह तक पूरे महाराजपुर में प्रतिदिन भोज का आयोजन है!
‘बाप रे!’
इसको कहते हैं सम्पन्नता!
राजमहल पहुँच कर उसका पुनः, और पहले से भी कहीं भव्य स्वागत हुआ। गाजे-बाजे, ढोल, नगाड़े, तुरही, और ऐसे ही नाना तरह के उच्च स्वर वाले वाद्य-यंत्र बज रहे थे! राजमहल के दरवाजा पर अपनी बहू के स्वागत के लिए महारानी स्वयं मौजूद थीं, और फूलों की वर्षा के बीच, अपने बेटे और बहू की आरती उतार रही थीं। आरती के पश्चात महावर की थाल में पांव रख कर जब प्रियम्बदा आगे बढ़ी, तो उसका दिल धमकने लगा!
‘ये अपना घर है!’
घर नहीं, राजमहल था वो! दरवाजा से ले कर अंदर मुख्य हॉल तक पहुँचने तक गलियारे के दोनों तरफ़इसे राज-परिवार के पूर्वजों के दस दस फुट ऊँचे चित्र लगे हुए थे। रेशम के महीन, रंग-बिरंगे कपड़ों के पर्दे गलियारे के हर खम्भे के बीच झूल रहे थे। गलियारे पर रेशम की ही सुन्दर सी कालीन बिछी हुई थी, जिस पर वो चल रही थी। ये तो सिर्फ झलक मात्र थी! ये था राजसी ठाठ-बाठ! हर बात की ऐसी बहुतायत! ऐसे ऐश-ओ-आराम में रहने की आदत ही नहीं थी उसकी!
हाँलाकि उसको पता था कि उसकी ससुराल में बहू और बेटी में कोई अंतर नहीं किया जाता, दोबारा भी अज्ञात का डर, अज्ञात की आशंका बनी ही रहती है! कोई जान-पहचान का न हो, तो वैसे ही आदमी घबराने लगता है। अपने नए परिवार के किसी सदस्य से मिली भी तो नहीं है वो!
उसने पाँच छः पग धरे होंगे कि उसका देवर उसको सामने से भागता आता हुआ दिखा। विवाह के दौरान उसने देखा था अपने देवर, हर्षवर्द्धन को! हरीश का सहबाला बना हुआ था! बेचारा विवाह की रस्मों के दौरान ऊब गया था, और ज्यादातर टाइमसोता ही रहा था। महाराज और महारानी की सबसे छोटी संतान है वो! उसको देख कर लगता है कि हरीश अपने बचपन में कैसे रहे होंगे! चुलबुल, लेकिन शर्मीले!
“भाभी माँ,” उसने कहा, “आपको हम आपके कक्ष में ले कर जाएँगे!”
उसने ‘हम’ इतने हक़ से कहा, जैसे कि ये काम उसके अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता।
उसकी बात पर महारानी हँसने लगीं!
“अवश्य राजकुमार!” उन्होंने हँसते हुए कहा, “आपकी भाभी अब आपके सुपुर्द हैं! आपको इनका पूरा ख़याल रखना होगा! लेकिन, इनको परेशान न करिएगा! समझ गए?”
“जी माँ,” उसने कहा, और अपनी भाभी का हाथ पकड़ कर उनको उनके कक्ष में ले जाने लगा।
हॉल के किनारों से उपरि जाने के लिए दोनों तरफ़ सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। राजपरिवार का आवास उपरि था। काफ़ी देर चलने के पश्चात दोनोंएक आलीशान कमरे में प्रविष्ट हुए।
“भाभी माँ, आईये! . ये है आपका कक्ष!” हर्ष ने चहकते हुए प्रियम्बदा को बताया, और हाथ पकड़ कर उसको अंदर ले आया।
यहएक विशालकाय कक्ष था।एक ओर आलीशान पलँग बिछा हुआ था, और बाकी के कमरे में बैठने के लिए सोफ़े, गद्दियाँ, टेबल, इत्यादि की व्यवस्था थी।
प्रियम्बदा को सोफ़े पर बिठा कर हर्ष बोला, “भाभी माँ, अब हम चलते हैं!”
“कहाँ जा रहे हैं आप राजकुमार?”
“आपके स्वागत की व्यवस्था भी तो देखनी है!” उसने इतने सयानेपन से कहा कि प्रियम्बदा ने बड़ी कठिनाई से अपनी हँसी दबाई कि कहीं बच्चे को बुरा न लग जाए!
“अपनी भाभी मम्मी के पास नहीं बैठेंगे आप?” प्रियम्बदा ने कहा, “हमको अकेली छोड़ कर चले जाएँगे?”
“ओह, हाँ. आप हमारे जाने पर अकेली तो हो जाएँगी! . ठीक है, हम नहीं जाते!” उसने कहा, दोबारा कुछ सोच कर, “. किन्तु, आपके लिए जलपान.”
उसी समयएक सेविका ने अदब से आवाज़ दी, “युवरानी जी. राजकुमार जी. हम महारानी जी का सन्देश ले कर आई हैं!”
“आ जाईए भीतर,” प्रियम्बदा ने कहा।
‘इतना फॉर्मल है सभी कुछ.’ उसने मन में सोचा, ‘कितना एडजस्ट करना पड़ेगा!’
राजकुमारियाँ या युवरानियाँ कैसे रहती हैं, उसको इन सभी का कोई अंदाज़ा नहीं था। कभी सीखा ही नहीं, और न ही कभी इन सभी बातों की ज़रुरत ही समझी।
“युवरानी जी,” मुख्यसेविका बोली, “महारानी ने कहा है कि रात्रिभोज भोजन गृह में सजा दिया गया है। आप यदि तैयार हैं, तो हम आपको लिवा लाएँ!”
“जी. ठीक है!”
अपने लिए ‘जी’ सम्बोधन सुन कर सेविका की आँखें आश्चर्य से चौड़ी हो गईं; वो पूरे अदब से नब्बे अंश झुक कर दोनों हाथों को जोड़ कर नमस्कार कर के कमरे सेबाहर् निकल गई।
“राजकुमार जी,” उसने अपने देवर से कहा, “आप हमारे संग रात्रिभोज करेंगे?”
“अवश्य, भाभी माँ!”
*
एक मामूली राजा राजवाड़े को देखा है, तो उसी के आधार पर थोड़ा बढ़ा चढ़ा कर लिख दिया
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