Rajsharma Sex Story : कसक (Romance Special)
चार
आज कह रही है कि तुम नहीं समझ पाओगे। उस दिन स्वयं कुछ समझने को तैयार नहीं थी लेकिन उस दिन भी वही बुद्धू था और आज भी वही बुद्धू।
‘देखो ऊलजलूल की बातें कर रहे हैं, असली प्रश्न तो पूछा ही नहीं। कैसी हो तुम?’ अनमित्र ने टॉपिक बदलने की कोशिश की।
‘तुम्हें कैसी लग रही हूं?’ दोबारा वही कटाक्ष। शायद प्रश्न के जरिए ये बताने की कोशिश कि तुम्हारे बिना भी अच्छी हूं और ज्यादा अच्छी हूं।
चुप रहा अनमित्र। प्लेटफॉर्म पर ट्रेन के आते ही स्टेशन का अचानक उठता हंगामा बीच बीच में उन दोनों के बीच दीवार बन कर खड़ा हो जाता। लाउडस्पीकर पर लगातार ट्रेनों की आवाजाही के बारे में उद्घोषणा भी जारी थी।
‘झालमुड़ी खाओगी?’ अनमित्र ने पूछा,‘इंडियन रेलवे झालमुड़ी—आईआरजे—तुम्हें बहुतपस्न्द है ना?’
‘पसंद, हां लेकिन बरसों हो गया नहीं खाया। ट्रेन से अब कहां पहुँचना जाना होता है।
‘लगता है गाड़ी वाली बन गई हो।‘ अनमित्र की बात पर अहोना के होंठों पर हंसी तैर गई।
उसने दो झालमुड़ी का ऑर्डर दे दिया।एक में मिर्च ज्यादा। अहोना के लिए। झालमुड़ी के बहानेएक बार दोबारा उन दोनों का कॉलेज लाइफ उनके बीच लौट आया।
‘याद है,इसे आईआरजे को लेकर कितना ऊधम मचता था। पैसे नहीं होते तोएक झालमुड़ी और पांच लोग’इसे बार अहोना ने कहा था।
अनमित्र को बढ़िया लगा। चलो अहोना को कुछ बातें तो याद है।
‘हां याद है। तब झालमुड़ी का हिस्सा नहीं मिलने या कम मिलने पर भी इतनी तसल्ली-इतना आनन्द मिलता था, जो आज पूरा का पूरा पॉकेट झालमुड़ी मिलने पर भी नहीं मिलता’
‘इसका नाम इंडियन रेलवे झालमुड़ी किसने रखा था?’ अहोना शायद भूल गई थी।
‘लंबू ने। सोमा ने। कहां है वो,कोई खबर है उसकी?’
‘नहीं, सुना था बैंगलोर चली गई थी। उसका पति वहीं काम करता था। उसके पश्चात किसी से संपर्क नहीं हुआ। तुम भी तो अचानक ही मिल गए आज। कभी पता करने की कोशिश ही नहीं की कि कहां हूं किस हाल में हूं’—अहोना की बातों में ताना था तो शायद उस उम्मीद के टूटने का दर्द भी था, जो उसने अनमित्र से लगा रखी थी कि कम से कम वो उसका हालचाल तो लेता।
‘भूला नहीं कभी किसी को लेकिन हालचाल भी पता नहीं कर पाया। शादी के पश्चात लड़कियों का हालचाल जानने की कोशिश करना शायद ठीक नहीं था। तुम्हारे पति संदेह कर बैठते तो?’ अनमित्र ने मजाक के लहजे में ही अपने मन का डर बता दिया था.
‘मेरे पति वैसे इंसान नहीं थे’
‘नहीं थे.मतलब’ अनमित्र ने हैरानी से अहोना की ओर देखा। अब उसने ध्यान से देखा—उसकी मांग सूनी थी।
‘हां, भास्कर को गए पांच वर्ष हो गए’
‘ओह’ अनमित्र के चेहरे पर दर्द उमड़ आया, ‘पांच साल! तुम्हारी तकलीफ के वक्त भी मैं तुम्हारे पास नहीं था’
‘हां, बच्चे तो थे लेकिन सच कहूं तो तुम्हारी कमी खली थी मुझे’ अहोना ने कहा
अनमित्र मानो दर्द का पहाड़ बन गया। पहली बार अहोना ने माना तो सही कि उसकी कमी उसे खली थी। जिंदगी की पथरीली-उबड़खाबड़ रास्तों पर अहोना को उसकी जरूरत थी लेकिन वो संग नहीं था। वो अपने सबसे अच्छे मित्र के दर्द का मित्र नहीं बन पाया।
‘दोस्त’ क्या सिर्फ मित्र कहना सही रहेगा? हां, अनमित्र ने स्वयं को ही जवाब दिया था—दोस्त से ज्यादा खूबसूरत शब्द शायद दूसरा कोई नहीं।
‘पिता जी की मौत के पश्चात सबसे ज्यादा भास्कर का जाना मुझे तोड़ गया’ अहोना ने उसे सोच की दुनिया सेबाहर् खींचा था, ‘लेकिन तब तुम मेरे संग थे, हर समय लेकिन जब मुझे तुम्हारी सबसे ज्यादा जरूरत थी, तुम मेरे पास नहीं थे।
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पांच
हां, वो था। अहोना के पास। हर वक्त। दिन भर।
उसे याद है दिसंबर की वो दुपहरी, जब उसे अंकल यानि अहोना के पिता के दिल के दौरे के बारे में पता चला था। भागा-भागा पहुंचा था वो कल्याणी के गांधी अस्पताल में। अंकल सीरियस थे। अंकल के संग कभी उसकी बातचीत नहीं हुई थी। वो जब कभी अहोना के घर गया, अंकल कोबाहर् के चबूतरे पर बैठे हुए पाया था। यदि कभी –कभार ड्राइंग रूम में होते भी थे तो तब हट जाते थे, जब भी अहोना का कोई मित्र आता था। उनका फलसफा स्वच्छ था कि बच्चों के मामले में कोई दखलंदाजी नहीं।
जिस पुरुष के संग कभी कोई बातचीत ही नहीं हुई हो, उसके लिए वो भागा-भागा सिर्फइसलिये गया था क्योंकि वो अहोना के पिता भी थे।
कॉलेज कब के ख़त्म हो गए थे। अनमित्र को सरकारी स्कूल में नौकरी मिल गई थी। अहोना को नौकरी वगैरह में कोई दिलचस्पी नहीं थी। हां, घर पर ट्यूशन खूब पढ़ाती थी। कोर्स की कुछ किताबें भी लिख रही थीं। कॉलेज ख़त्म होने के पश्चात अहोना से मिलना जुलना कम हो गया था। कभी कभार उसके घर चला जाता। अहोना और उसकी दीदी से खूब गप्पें होतीं। चाय का दौर चलता लेकिन ये सभी कुछ अहोना की बौदी (भाभी) को बिल्कुल भी बढ़िया नहीं लगता था। अहोना ने ही उसे ये बात बताई थीं। ऐसे फिकरे कस कर चली जाती थी कि दोबारा वहां बैठना मुश्किल हो जाता।इसलिये अहोना को देखने, उससे मिलने की इच्छा होने के बावजूद उसका अहोना के घर पहुँचना जाना धीरे-धीरे कम होता गया। शायद अब तीन चार महीने पश्चात कभी किसी बहाने बारी आ जाती। इसके लिए भी अनमित्र को भी कोई ना कोई बहाना ढूंढना पड़ता। आज की तरह तब मोबाइल फोन तो था नहीं कि उठाते और बात कर लेते।
उसकी बड़ी इच्छा होती कि अहोना को कहींबाहर् बुलाए। उसके संग घंटों बतियाये, वक्त गुजारे लेकिन ऐसा कभी हो नहीं पाया। उसे पता था कि अहोना नहीं आएगी,इसलिये उसने कभी उसे बुलाने की कोशिश नहीं की। फिर भी उसने कभी ये जानने की भी कोशिश नहीं की कि उसके बुलाने पर अहोना आती या नहीं।
और इसी बीच अंकल के बीमार होने की खबर पहुंची थी। भागा-भागा गया था। शायद अहोना से मिलने की उम्मीद भी थी। अहोना अस्पताल में ही मिली थी। बौदी, मां,दीदी के बीच रूआंसा बैठी हुई थी। उसे देख दादा को कुछ भरोसा हुआ था। दादा से उसके संबंध ठीक थे। छात्र जिंदगी में भी अक्सर बातचीत होती थी। खासकर पढ़ाई को लेकर। दादा ने बताया था सीरियस हैं। आईसीयू में हैं। अनमित्र का चेहरा भी उतर गया।
उसने देखा दूर बेंच पर बैठी हुई थी अहोना। एकदम उदास। जैसे उसके लिए दुनिया में कोई सुख बचा ही नहीं हो। सबकुछ मानो ख़त्म हो गया हो। सूजी आंखेंइसे बात की चुगली कर रही थी कि खूब रोई थी अहोना। पिता की चहेती थी। तीन भाई बहनों में सबसे छोटी। दादा और मानसी दीदी से बहुत छोटी थी अहोना औरइसलिये पिता का भरपूर प्रेम उसे मिला। पिता के बिना उसकाएक भी काम नहीं चलता था। सच कहा जाय तो मम्मी से ज्यादा करीब वो पिता के थी। और वही पिता आज आईसीयू में मौत से लड़ रहे थे। अहोना के पास जाने की हिम्मत नहीं हुई उसको। वो भी दूर दादा के पास ही बैठा रहा।
अंकल चले गए। अहोना को रोता-बिलखता छोड़। अहोना तब तक रोती रही, जब तक उसके आंसू सूख नहीं गए। कलेजा पत्थर का नहीं हो गया। और जब अंकल की आखिरी यात्रा शुरुआत हुई तो सारा लोकलाज भूलकर अहोना अनमित्र से चिपक कर दहाड़े मार पड़ीं। मानो कह रही हो कि बाबा तो चले गए तुम संग छोड़ कर ना जाना। अनमित्र भी रो पड़ा। अहोना का दर्द उसकी रगों में दौड़ने लगा था।
और मानो तब से ही वोइसे इस दर्द को जी रहा है। अहोना से बिछड़ने का दर्द।
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छह
अनमित्र ने सिर झटक दिया। हिंदी, अंग्रेजी और बांग्ला में बारी बारी से उद्घोषणा हो रही थी कि बनगांव जाने वाली ट्रेन प्लेटफॉर्म नंबर 5 से रवाना होने वाली है।
‘पता नहीं डानकुनी वाली लोकल किस प्लेटफॉर्म पर आएगी?’ अहोना को घर जाने की जल्दी हो रही थी।
‘चली भी जाना। इतनी जल्दी क्या है?’ अनमित्र ने टोका था।
‘नहीं, बच्चे चिंता कर रहे होंगे?’ कभी मां-बाप-भाई के डर से घर जल्दी जाना चाहती थी, आज बच्चों की चिंता सता रही है। उसके लिए तो अहोना के पास कभी टाइमही नहीं था। बेवजह वो जिंदगी पर कलपता रहा। कोफ्त हुई अनमित्र को लेकिन दोबारा उसे लगा कि अहोना सही है, वही गलत है। उसकी चिंता करने वाले लोग हैं तो चिंता तो करेंगे ही। सभी उसकी तरह तो नहीं कि कोई पूछने वाला ही नहीं। उसने सिर झटक दिया।
बच्चे क्या कर रहे हैं?—इस प्रश्न के जरिए शायद अनमित्र ये भीजान्ना चाहता था कि कितने बच्चे हैं उसके।
‘बेटी की शादी हो गई है। बैंगलोर में पति के संग रहती है। यहां बेटा और बहू हैं।’
‘बहुत अच्छा। भरा पूरा परिवार है। दादी भी बन गई होगी?’
‘दादी नहीं, नानी जरूर बन गई हूं। दो वर्ष का नाती है। दादी कब बनूंगी पता नहीं। बेटा-बहू दोनों नौकरी करते हैं। अभी बच्चा नहीं चाहते। नए जमाने के बच्चे हैं, अपने हिसाब से प्लान करेंगे।’ गहरी सांस लेते हुए अहोना ने कहा।
‘देख कर लगता नहीं नानी बन गई हो।’ अनमित्र ने कहा। कहीं न कहीं उसके मन में कसक कीएक गहरी लहरएक ओर से दूसरी ओर दौड़ गई। अच्छी ही जिंदगी कटी भास्कर बाबू के साथ। भरा पूरा परिवार। नाती-बेटा बहू।
छी छी छी, वो अपनी अहोना से जल रहा है। दूसरे ही समय वह अपराध बोध से धधक उठा। कितना स्वार्थी हो गया है? भला वो ऐसा कैसे सोच सकता है? लेकिन सच भी तो यही है। उसके पास क्या है आज? कुछ भी तो नहीं। शायद अहोना ने उससे कभी प्रेम ही नहीं किया। अच्छी दोस्ती थी, जिसे वो प्रेम समझकर जीता रहा लेकिन दोबारा वो 15 दिन? वो सच था या धोखा था। अहोना के पिता के निधन के पश्चात के वो 15 दिन, जब अहोना उसके दिल के बिल्कुल करीब आ गई थी। उसकी भाभी, दीदी सबने अलग-अलग तरह सेइसे बात की ओर इशारा किया था। उसके पास तो बस वो ही 15 दिन बचे हैं। उन्हीं 15 दिनों की यादें।
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