“माँ भारती के लाड़ले”
[एक]
स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते भारत के उस दौर के कलकत्ता से कुछ दूरएक नगर…विजय नगर ! आज़ादी मिलने से चंद वर्षों पहले का टाइमथा।
अंधकार में डूबी सड़कें और गलियाँ…। ऐसी हीएक गली के कोने वाले आखिरी घर से अंधेरे मेंएक छोटा-सा प्रकाश-बिंदु हिलता हुआ नज़र आया। यही बिंदु धीरे-धीरे निकट आने लगा।
अगले कुछ पलों में वह बिंदु लम्बे-चौड़े इंसानी साये में बदल गया। कुछ क्षण पश्चात वह साया गली पार करके रुका। शायद ये देखने के लिए कि कोई उसकी गतिविधियों पर नज़र रखे हुए तो नहीं है।
अपनी ओर से जब वह संतुष्ट हो गया तो तेजी से डग भरता हुआएक ओर को बढ़ गया। अब उसकी पीठ पर कुछ लदा हुआ सा भी दिखने लगा था। लगता था उसकी पीठ पर कोई अचेत आदमी लदा हुआ था।
साया अब सड़क पर तेजी से बढ़ रहा था। उसकी चाल अब पहले से तीव्रतर होती चली जा रही थी। इसका अर्थ यही था कि उसकी मंजिल या तो आ पहुँची थी, या अभी वह ज्यादा दूर थी कि वह तेज-तेज चलकर जल्दी वहाँ पहुंचना चाहता था।
इतनी देर बाद, सड़क पर अब पूर्ण अंधेरा भी नहीं रह गया था। सड़क के लैम्प जल उठते थे।
सड़क अभी भी सुनसान थी।
उसनेएक लैम्प के नीचे से गुजरते हुए अपनी जेब से घड़ी निकाल कर टाइमदेखा — रात के दो बजने जा रहे थे।
पाठक मित्रों !इसे टाइमवहइसे अचेत आदमी को कहाँ लेकर जा रहा है, आइए देखते हैं। अपनी कैमरे जैसी आंख को उसके पीछे लगाए चलते हैं। ये तो स्पष्ट ही है कि उसनेइसे बेसुध आदमी का अपहरण किया है, उसी कोने वाले घर से। माजरा क्या है ? चलिए, देखते हैं।
सुनसान सड़क पर वह तन्हा ही जा रहा है। अकेले उसी के कदमों की आवाज़ वातावरण में गूंज रही है — खट्ट .खट्ट…खट्ट…।
उसनेएक बार अपने कंधे पर पड़े आदमी के बदन को थोड़ा-सा उछालकर संतुलन बनाया। इसके पश्चात वह दोबारा बेफिक्री से चलने लगा।
मगर अगले समय ही उसे सजग हो जाना पड़ा।। वातावरण मेंइसे टाइमसिर्फ अकेले उसी के कदमों की ही आवाज़ न थी, बल्कि दो जोड़े कदमों की आवाज़ और उभर आई थी। यानी दो आदमी और इसी तरफ आ रहे थे।
वह हटकर सड़क के एकदम किनारे हो गया, जहां अपेक्षाकृत अंधकार ज्यादा था। उसके कदमों की आवाज़ अब दब सी गई थी क्योंकि वहएक तरह से स्वयं को छिपाते हुए धीरे-धीरे कदम उठाने लगा था। उसनेएक बार दोबारा अपने कंधे पर पड़े हुए अचेत आदमी को ठीक किया। धीरे-धीरे मगर निरन्तर ही वह अब भी आगे बढ़ता जा रहा था।
निरन्तर दो जोड़े कदमों की आवाज़ नजदीक-दर-नजदीक आती सुनाई दे रही थी। यानी वे आने वाले दो आदमी थे।
अब उसकी स्थिति दुविधाजनक हो गई थी। ये तो था नहीं कि उसेइसे स्थिति की बिल्कुल आशा ही न थी, मगर उसने जानबूझकर ये जोखिम लिया था क्योंकि जिस आदमी को वह कंधे पर ढोकर ले जा रहा था, वहइसे आदमी को किसी भी कीमत पर अब हाथ से जाने नहीं देना चाहता था।
जब तक वे दोनों आदमी उस तक पहुंचते, उसने अपनी कार्य-प्रणाली को निश्चित कर लिया था। वह आशा कर रहा था कि आने वाले व्यक्तियों पर आक्रमण न करके उनसे बचकर निकल जाना है।
उधर, दोनों व्यक्तियों के कदमों की आवाज़ बढ़ती हुई उधर ही आ रही थी। मगर अगले ही समय लगा कि जैसे उनमें सेएक आदमी दूसरी तरफ को बढ़ गया था।
चंद मिनटों पश्चात ही स्पष्ट हो गया कि अबएक ही आदमी के कदम उस तरफ आ रहे थे.और दूसरी आवाज़ निरन्तर क्षीण पड़ती चली गई।
अचानक टॉर्च का तेज प्रकाश उसके मुँह पर पड़ा। संग हीएक गुर्राहट जैसा स्वर निकला, “कौन है ?”
अब तो बच निकलने की कोई स्थिति ही न रह गई थी। मन कसमसा रहा था, दिमाग जड़ हो गया और बदन ने कोई हरकत करने से मना कर दिया।
यह गश्ती सिपाही था। अपने प्रश्न का जवाब न पाकर तेज आवाज में बोला, “बोल बे, कौन है ?”
वह गश्ती सिपाही दूसरी बार भी जवाब न पाकर उसके बिल्कुल पास आ गया, “मैंने पूछा कि कौन है…और कंधे पर ये कौन है ?”
वह घिघियाया, “भाई है मेरा। मैं जनखू हूँ साहब। देखिए साहब, मेरा भाई जीता है कि…।” इसके संग ही उसका स्वर भीग-सा गया।
पुलिसिया कांस्टेबल अपने लिए “साहब” का सम्बोधन सुनकर गर्व से अकड़ गया। दया का जज्बातों दिखाता हुआ वह उसके कंधे पर लटके जिस्म की तरफ घूमा। हाथ बढ़ाकर नब्ज़ थाम ली, ऐसे जैसे कोई अनुभवी वैद्य रहा हो।
इतना टाइमउसके कार्य के लिए बहुत था।
“इसे होश…आ आ~~।” पुलिस वाला अपना कोई फैसला दे इससे पहले ही उसकी आवाज़ कण्ठ में घुट कर रह गई। वह उसी के उपरि झूल गया। तुरन्त उसने उस पुलिसिए कोएक तरफ धकेल दिया। दरअसल उसने अपनी हथेली को खड़ा करके सीधा प्रहार पुलिसमैन की गर्दन पर किया था, जिससे वह कटे पेड़ की तरह ढह गया था।
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अब मौक़ा देखकर वह तेजी से लपक चला, करीब भागता हुआ सा।
कुछ दूर चलकर उसकी वांछित गली आ गई। वह तुरन्त उसमें घुस गया। अब दोबारा से वह अंधेरे में गुम हो गया। उसके विचार से अब कोई खतरा न था। और हुआ भी यही।
एक-दो गलियां पार करके उसनेएक घर के आगे रुककर दरवाज़ा खटखटाया।
तुरन्त अंदर से आवाज़ आई, “कौन ?”
“नेताजी, मैं हूँ। दरवाज़ा खोलिए।”
“सही सलामत हो ?” दोबारा प्रश्न हुआ।
“जी बिल्कुल।”
अगले क्षण दरवाजे का जरा-सा पट खुला। कथित नेताजी ने जरा-सा सिरबाहर् निकाल कर देखा। आश्वस्त होने पर उन्होंने पूरा दरवाज़ा खोल दिया, “आओ, अंदर आ जाओ। किसी ने देखा तो नहीं ?'”
“सवाल ही नहीं उठता। सभी आराम से सो रहे हैं और देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा दर्द से कराह रहा है।”
अंदर जाकर उसने अचेत आदमी कोएक खाली पड़ी चारपाई पर डाल दिया।
नेताजी ने लालटेन की लौ बढ़ाई। दम तोड़ता प्रकाश सजीव हो उठा। कमरा था या घुड़साल ?एक कमरे में टूटा-सा तख्त पड़ा था।एक ओरएक चारपाई दीवार के संग खड़ी थी। दीवार में बनेएक छोटे से आले सेबाहर् निकली कार्निश पर लालटेन रखी थी।
कमरे मेंइसे समयएक सीलन-घुटन सी व्याप्त थी जैसे वर्षों तक कमरा बन्द पड़ा रहा हो और धूप व हवा तक के दर्शन न हुए हों। ये था नेताजी और उनकेइसे मित्र का आवास।
नेताजी पलटकर चारपाई के पास आ खड़े हुए और गौर से उस आदमी को देखा, “जिन्दा है ?” दोबारा स्वयं ही आगे बढ़कर उसका हाथ थामा और नब्ज़ टटोलकर देखी। दोबारा गम्भीर स्वर में बुदबुदाए, “हाँ, ज़िन्दा तो है। बेहोश है।” दोबारा अपने मित्र से बोले, “एक-एक समय हमारा कीमती है। अब टाइमभी ज्यादा नहीं है। कोशिश करके देख लो। यदि होश में आ जाए तो बड़ा बढ़िया है।इसे पर कुछ वक्त बर्बाद करके देख लो। मेरे हिस्से काएक घण्टा और बचा है, तब तक मैं सो लूँ। दोबारा देखेंगे।”
यह कहकर वे उस टूटे से तख्त पर जा पड़े। कुछ ही क्षण लगेउन्को नींद आने में।
शायद आवाज़ सुनकर ही कुछ देर में उनकी नींद खुल गई थी। वही व्यक्ति, जिसे अचेत करके नेताजी का मित्र इधर लाया था, अब होश में आ चुका था और नेताजी के मित्र से लड़ रहा था। कह रहा था, उसेइसे तरह जबरन उठाकर क्यों लाया गया ? इसी मुद्दे को लेकर वह लड़ रहा था। जो मुँह में आ रहा था, कह रहा था। गाली-गलौच तक हो रही थी।
नेताजी की आंख खुल गई थी। वे उठे और दोनों का बीचबचाव कराया। दोबारा अपहृत आदमी से बोले, “झगड़ा करना ठीक नहीं है भाई। बात कुछ भी नहीं है, बस थोड़ा-सा कष्ट दूँगा।”
यह सुनते ही अपहृत आदमी दोबारा लाल-पीला हो गया, “मैं तुम्हारा कोई काम नहीं कर सकता। सरकारी नौकर हूँ। बीवी-बच्चे भी हैं। तुम लोग पुरुष तो शरीफ लग रहे हो दोबारा अब ये कैसा धंधा शुरुआत कर दिया ?”
“चुप रहो और हमारी बात सुनो।” नेताजी का मित्र गुस्से में बोला।
मगर अपहृत आदमी सुन ही नहीं रहा था। वह बोले जा रहा था, “तुम्हारा पहला निशाना मैं ही हूँ। दोबारा तो तुम्हारे सिर मुंडाते ही ओले पड़ गए। मैं वैसा नहीं जैसा आप समझ रहे हो। नौकरी के प्रति वफादार हूँ। हिंदुस्तानी हूँ, जिसका नमक खाता हूं, हलाल ही करता हूँ। मुझे जाने दो, तुम्हारा भला इसी में है।”
“चुप बे साले।” मित्र नेएक हाथ अपहृत के गाल पर खींच मारा, “हमें फिलासफी पढ़ा रहा है। साले कुत्ते की दुम।”
नेताजी समझ गए कि ऐसे नहीं चलेगा। घी निकालने के लिए उँगली थोड़ी तिरछी ही करनी पड़ेगी। वे बोले, “देखो मिस्टर, अंग्रेजों के वफादार सरकारी नौकर ! मैं स्वच्छ कहने वाला पुरुष हूँ। जिद ये है कि काम तुम्हें हर हाल में करना ही पड़ेगा। गोरों के प्रति जो वफादार होता है और उनका नमक खाकर नमक-हलाली करता है, उसे मैं ठीक से हलाल करता हूँ, ये समझ लो कि ये धमकी भी है और असलियत भी। तुम्हारी दोनों आँखें फोड़कर इनमें नमक भरा जाएगा।”
इस बार लगा कि वह कुछ सहम गया था। मगर बोला कुछ नहीं।
उसके सहमने को भाँप कर नेताजी बोले, “इसलिए हिंदुस्तानी हो तो दूसरे हिंदुस्तानी को पाप का भागीदार बनने पर मजबूर मत करो। यही बेहतर होगा।”
“तो क्या तुम क्रांतिकारी हो…?” मारे डर के उस अपहृत आदमी के होंठ सूख गए थे। वह होंठों पर जुबान फेरने लगा, “मगर मैं ऐसा नहीं कर सकता।”
इस बार अपेक्षाकृत कुछ नम्र होकर नेताजी बोले, “भाई मेरे…मैं सभी कुछ जानता हूँ। मुझे इतना बेरहम भी मत समझो।”
उसकी घबराहट थोड़ी कम हुई थी। नेताजी थोड़ा मुस्कराए और बोले, “तुम क्या कर सकते हो और क्या नहीं, तुमइसे बारे में कतई फ़िक्र मत करो। हमें मालूम है कि तुम क्या कर सकते हो। हम दोनों तुमसे वैसा ही काम लेंगे, जो तुम कर सकते हो। बात इतनी-सी है कि बर्मा में मेराएक दोस्त रहता है। तुम हमारे लिए कल सुबह जाने वाले प्लेन में रंगून तक के लिए दो टिकट बुक करवा दो। हमें कल जाना है और परसों लौटकर पहुँचना है। अब दुबारा मुझे ये नहीं कहना पड़े कि नहीं मानोगे तो मैं क्या करके तुम्हें मजबूर करूँगा।”
नेताजी बराबर उसके चेहरे पर आते-जाते भावों को देख रहे थे। एक-एक सेकेंड में उसके चेहरे का रंग बदल रहा था।
यह सभी कहने के पश्चात नेताजी नेएक ऐसा भाषण उसे सुनाया जो हर किसी देशप्रेमी को सोचने के लिए मजबूर कर दे।
और कुछ ऐसा ही हुआ भी।
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अपहृत आदमी नेताजी से चमत्कृत जान पड़ा। वह उनके आदेश को क्रियान्वित करने के लिए सहर्ष तैयार हो गया। उसकी शक्ल तो यही बता रही थी, बाकी वह स्वयं जाने या उसका खुदा जाने। मगर अब
वह मंत्रमुग्ध-सा नेताजी का मुँह देख रहा था।
मगर नेताजी ज्यादा सतर्क थे। वह कोई चाल भी चलता हो सकता था और ये भी हो सकता था कि उसका देशप्रेम अब जाग ही गया था।
नेताजी की गम्भीर मुद्रा गम्भीर ही बनी रही। उन्होंने अपहृत आदमी के कंधे पर जोर से हाथ मारा, “शाबाश ! बहादुर बनो मेरे दोस्त। देखो, मैं अपने दल में गर्म स्वभाव का नेता कहलाता हूँ मगर दिल का उतना गर्म नहीं। जहां सुई से काम हो जाए, वहां पर तलवार निकालने की ज़रूरत नहीं समझता। मेरे पुरुष देवदूत की तरह हर क्षण, हर स्थान मौजूद रहते हैं। मैं समझता हूँ कि तुम मेरा मतलब अब अच्छी तरह समझ गए होंगे ?”
नेताजी ये कहकर चुप हो गए। मगरउन्को लगा कि अपहृत कुछ कहना चाहता है।
“कुछ कहना चाहते हो ? कह दो, मैं अब तुम्हारी भी सुनूँगा।”
अपहृत कुछ स्वर संयत करके बोला, “वैसे…वैसे नेताजी मुझे कुछ ऐतराज तो नहीं। मगर…”
“मतलब ?”
“मतलब सीधा स्वच्छ है।”
“यानी ?”
“इस काम में खतरा ही खतरा है।”
नेताजी मुस्कराए, “हम खतरों के खिलाड़ी हैं। जान हथेली पर लिए फिरते हैं…और तुम हमें ये बता रहे हो किइसे काम में खतरा ज्यादा है ?”
“जी, आप मुझे गलत मत समझिए। मैं कहना चाहता हूँ कि इसके अलावाएक तरीका और भी है।”
“तो कहो।”
“नेताजी आपके काम आ सकूँ, मेरे लिए ये सौभाग्य की बात है मगर…”
“जो कहना है जल्दी कह दो। टाइमज्यादा कम है।” अब नेताजी के मित्र ने उसे डाँटा।
“दरअसल…विमान में सीटें बुक करवाने से खतरा मुझे भी है और आपके लिए भी। मेरे विचार से मैं आपके लिएएक चार्टर्ड हैलीकॉप्टर का इंतज़ाम करवा देता हूँ।” ये कहकर वह नेताजी के जवाब का इंतज़ार करते हुए उनके मुँह की ओर देखने लगा।
“चलो ठीक है। तुमने कहा था कि तुम बाल-बच्चेदार पुरुष हो। तुम्हारी बात मंजूर है।”
* * *
अपहृत आदमी नेताजी की उस कोठरी से निकल कर, गली पार करके सड़क पर चल रहा था। तभी उसे अहसास हुआ कि उसका पीछा भी हो रहा है। ये जानकर वह कुछ भयभीत से हो उठा मगर उसे कुछ उपाय नहीं सूझा कि क्या करे, अलबत्ता सड़क पर वह तेजी से आगे बढ़ने लगा।
एक तरफ देशप्रेम था और दूसरी तरफ अपना और अपने बीवी-बच्चों का भविष्य। नेताजी का गहन शांत चेहरा और वे रौबीली चुम्बकीय आकर्षण वाली आंखें, उसे बार-बार शून्य में टकटकी लगाए देखती नज़र आ रही थीं। सोच-सोचकर वह चिंतातुर हो उठता और आप से आप उसकी चाल तेज होती जाती थी।
तभी एकाएक उसके उपरि टॉर्च का तेज प्रकाश पड़ा। आंखों की ज्योति निस्तेज हो गई। आंखों पर से प्रकाश हटा तो उसने देखा, पास ही कीएक गली के नुक्कड़ परएक पुलिसमैन खड़ा था।
टॉर्च के प्रकाश को क्रमशः ऊपर-नीचे घुमाकर उसके बदन के सभी अंगों का जायजा लेकर पुलिसमैन ने पूछा, “कौन हो ? इतनी रात में…इस तरह से कहाँ जा रहे हो ?”
पुलिसमैन का संकेत अपह्रत के कपड़ों की ओर था। वहइसे वक़्त सोते टाइमपहने जाने वाले लिबास में था। और दोबारा उपरि से अस्त-व्यस्त सी स्थिति… घबराया हुआ-सा चेहरा। यही सभी पुलिसमैन के संदेह के कारण थे।
मगर अपहृत भी हवाई विभाग में ज्यादा बड़ा अफसर था, अतः स्थिति की नज़ाकत को भाँपकर वह दृढ़ बना और पुलिसमैन से बड़े आत्मविश्वास भरे स्वर में बोला, “अरे भई…कहीं जा नहीं रहा,एक मित्र के इधर से आ रहा हूँ।”
पुलिसमैन कुछ बोला नहीं, वैसे ही देखता रहा।
“भई मैं हूँ हरगोविंद।” दोबारा सफाई देने वाले अंदाज़ में आते हुए थोड़ा हँसी दिखाते हुए बोला, “भई,एक मित्र को अचानक बड़ी तकलीफ हो गई। खबर मिली तो मैं सोने ही जा रहा था। बस रुका नहीं गया। जैसे था, वैसे ही भाग पड़ा। ऐसे क्या देख रहे हो ? कोई उठाईगिरा लगता हूँ क्या। अफसर हूँ…हवाई विभाग में बड़ा अफसर हूँ।”
पल भर को जैसे पुलिसमैन चौंका। तुरन्त बूट ‘खट्ट’ की आवाज़ के संग बजे और हाथ माथे से चिपक गया, “म…माफ करना सर !”
“ठीक है…ठीक है।” अपहृत लापरवाही से बोला, “भई तुम बड़े मुस्तैद कारिंदे हो। टाइममिला तो तुम्हारे थानेदार से मिलूँगा। अब तो तुम मुझे घर जाने दो। अरे नहीं-नहीं…तुम ड्यूटी करो। मैं स्वयं चला जाऊँगा।” ये कहते हुए वह आगे बढ़ता चला गया।
पुलिसमैन कुछ देर यूँ ही उसे अपने स्थान पर खड़े-खड़े देखता रहा। दोबारा विपरीत दिशा में बढ़ गया।
अपहृत का पीछा हो रहा था। ये मात्र संदेह न था, सच्चाई थी। नेताजी का मित्र ही अपहृत का पीछा कर रहा था। उसकी हर गतिविधि पर नज़र रखने की नेताजी की हिदायत थी। इसीलिए नेताजी के मित्र ने अपना हुलिया भी बदल लिया था।
वह यूँ ही बढ़ता जा रहा था कि सामने से उसे वही पुलिसमैन आता दिखाई पड़ा, जो अभी अपहृत को मिला था। वह उस पुलिसिए को देखकरएक खम्भे के पीछे जा छिपा। कुछ देर पश्चात वह पुलिसिया आगे चला गया तो दोबारा वह भी खम्भे की आड़ से निकल कर रास्ते पर आगे बढ़ गया।
मगर तभी पुलिसमैन एकाएक पलट आया।
उसके बदन में बिजली-सी कौंध गई। अब क्या करे ? अब कहाँ छिपे ? क्या करे ? पलक झपकते ही उसने सोच लिया और एकदम पलटकर खम्भे से आ लगा। खम्भे पर दस्तक देने का ऐसे उपक्रम करने लगा जैसे वह शराब के नशे में हो।
“दरवाजा खोलो।” उसके स्वर में शराबी के जैसी लड़खड़ाहट थी।
मगर दरवाजा हो, तभी तो खुले। वह बार-बार ऐसे ही करता रहा, “खोलो~~।”
पुलिसमैन उसके पास आकर खड़ा हो गया। उसे खम्भे पर ऐसे दस्तक देते देख वह उसके और समीप आ गया। डाँटकर बोला, “क्या है बे ?”
शराबी की तरह वह पुलिसिए की तरफ घूमा, “तुमसे मतलब ? मैं अपने घर का दरवाज़ा खटखटा रहा हूँ।”
पुलिसिया मन ही मन जोर से हँसा। मगर प्रत्यक्ष में उसने खींचकर उसेएक थप्पड़ मारा, “साले इतनी पी क्यों ली, जो ये भी नहीं दिखता कि ये तेरा घर नहीं बिजली का खम्भा है ?”
चांटा खाकर उसने भी ताव आ जाने का प्रदर्शन किया। जवाब मेंएक थप्पड़ पुलिसिए को खींच मारा, “साले, पी रखी है क्या ? देख, उपरि के कमरे की बिजली जल रही है।”
उसका आशय खम्भे पर उपरि जल रहे बिजली के लैम्प से था।
थप्पड़ लगने की पीड़ा होने के बावजूद पुलिसमैन की हँसी निकल गई। वह ये कहता हुआ आगे बढ़ गया, “मर साले यहीं। खटखटाता रह दरवाज़ा।”
नेताजी का मित्र वहीं रुककर पुलिसमैन के वहाँ से दूर निकलने की इंतजार करने लगा।
पुलिसमैन बड़बड़ाता जा रहा था, “साले इतनी पी लेते हैं कि दीन-दुनिया का कुछ होश नहीं रहता।”
पुलिसमैन के जाते ही वह उस अफसर के पीछे लपक चला, जो अब तक दूर जा चुका था मगर अभी आंखों से ओझल नहीं हुआ था।
और फिर…।
करीब दो घण्टे पश्चात वह लौटा। उसी कोठरी का दरवाज़ा खटखटाया।
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