काली घटा/ गुलशन नन्दा
ड्योढ़ी के फाटक पर जैसे ही घोड़े के टापों की आवाज़ सुनाई दी, माधुरी ने खिड़की खोलकर नीचे झाँका । उसके पति आज जल्दी लौट आये थे। वह झट कमरे के बिखरे सामान को ढंग से सजाकर उसके स्वागत के लिये नीचे प्रा गई।
सूर्यास्त हो चुका था और अंधेरा धीरे-धीरे फैल रहा था । माधुरी ने अपनी दासी गंगा को लैम्प जलाने को कहा और स्वयं नीचे आँगन में आ खड़ी हुई । वासुदेव ने अपने कंधे से बन्दूक उतारकर नौकर के हाथ में दी और सामने खड़ी माधुरी को देखकर मुस्कराने लगा। दोनोंएक दूसरे का हाथ थामे उपरि आ गये। ___बाहर अभी पूर्ण अँधेरा न छाया था । कमरे में लैम्प जलते देखकर वासुदेव ने पूछा, "अभी से उजाला कर दिया ?"
"हूँ'आप जो जल्दी आ गये आज,"-माधुरी ने मुस्कराते हुए चंचलता से उत्तर दिया।
"और यदि मैं दोपहर को ही लौट आता तो?"
"आप नहीं होते तो घर में अँधेरा-अँधेरा सा लगता है, अकेले में खाने को दौड़ता है।"
"अकेले क्यों ?."गंगा है, और नौकर-चाकर हैं. और सबसे बढ़ कर प्रकृति का संग !" ___“
सब हैं. लेकिन अापके बिना.,"-माधुरी ने पति की बात बीच ही में काट दी और उसका बड़ा कोट उतरवाने लगी।
वासुदेव कोट उतारकर पलंग पर लेट गया । माधुरी उसके पास जा बैठी और उसके बिखरे हुए बालों को उंगलियों से संवारते बोली
"आज दिन कैसा रहा ?"
"बहुत बुराएक चिड़िया भी हाथ नहीं लगी।"
"चलो बढ़िया हुआ. "पाप सिर न चढ़ा।"
"पाप ! पाप-पुण्य की सीमायें इतनी छोटी से तो नहीं पलसा जिंदगी में।" -
"तो कैसे चलता है ?" माधुरी ने वासुदेव के गले में डाह डालते हए चंचलता से पूछा ।
वासूदेव ने मौन किन्तु, अर्थपूर्ण दृष्टि से उसकी उन्मादित आँखों में झांका और उसकी बाँहें हटाकर पलंग से उठ बैठा । माधुरी ने दोबारा धीरे-धीरे से उसका हाथ पकड़ लिया और विनमा बोली, "क्या हुमा ?"
"कुछ नहीं स्नान का प्रबन्ध करो. पानी रखवा दो।"
माधुरी ने उसका हाथ छोड़ दिया और मूर्ति सी बनी मौन उसे देखने लगी । वासुदेव मुस्कराते हुए कपड़े बदलने भीतर कमरे में चला गया।
उसके चले जाने पर भी कुछ क्षण तो वह यहीं खड़ी एकटक शून्य में देखती रही और दोबारा सहसा गंगा को स्नान का पानी रखने के लिये पुकारकर स्वयं उसके कपड़े तैयार करने लगी। न जाने क्यों वह कभी कभार अपने प्रति उसकी ये उपेक्षा देखकर काप सी जाती।
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उनके ब्याह को करीब तीन वर्ष हो चुके थे और बह अभी तक भली तरह उसके मन की थाह न पा सकी थी। घर में और कोई भी न था जिससे वह दो घड़ी मन की बात कह लेती, दिन-रात मन को दबाये पड़ी रहती थी उसमें किस बात का अभाव था ? वह युवती थी, सुन्दर थी, शिक्षित थी. 'कुलीन परिवार से आई थी और उसके पिता के यहाँ. पैसे की कमी भी न थी. "शिष्ट समाज के सभी नियमों से वह भली भांति परिचित थी. दोबारा क्या था जोउन्को उससे यूं खिंचा-खिंचा रखता ? ये प्रश्न उसके मस्तिष्क में कोलाहल मचा देते, लेकिन कोई उपाय.? वह सोच-सोचकर थक जाती और उसे कुछ न सूझना, कुछ समझ में न आता।
अपने पति का मन लुभाने के लिये वह नये-नये ढंग सोचती, लेकिन सभी व्यर्थ । उनके मध्य खाई बढ़ती ही जाली । उसने उसे पाटने के लाख प्रयत्न किये पर सभी व्यर्थ । ये उसके बस की बात न थी, और अब तो विवश होकर उसने प्रयत्न करना भी छोड़ दिया था। वह उस तिनके के समान थी, जो नदी को तरंगों के शरण पर हो-इधर लहर उठी तो इधर, उधर तरंग उठी तो उधर । ये भी विचित्र जिंदगी थान प्रेम था न घृणा--न हर्ष था, न विषाद । हल्की सी लगन भी थी और खिंचाव भी-इनके साथ-साथ निरन्तरएक पीड़ा भी थी, मानो कोई सपने में पत्थर से सिर फोड़ ले और उस चोट में तनिक सुख एहसास करे।
स्नानघर की चिटखनी खुलने का शब्द हुआ । वह चौंककर से भली और मेज पर रखी चाय को ट्रे को देखने लगी, जो न जाने गंगा कब वहाँ रख गई थी । वासुदेव के पाँव की आहट हुई और माधुरी ट्रे पर झुककर चाय बनाने लगी। वह मौन और मलिन थी। वासुदेव ने कनखियों से उसे देखा और मुस्कराते हुए सामने आ बैठा। माधुरी ने चाय का प्याला बढ़ाया।
"यह माथे पर बल क्यों डाल रखे हैं ?" वासुदेव ने प्याला थामते हुए नम्रतापूर्वक पूछा।
"आपको क्या ?" उसने असावधानी से गर्दन झटकाते हुए उत्तर दिया और अपने लिये चाय का प्याला बनाने लगी।
"हमें नहीं तो और किसे ?"
"मैं क्या जानू ! आप तो शिकार करना जानते हैं केवल. घायल की गत को क्या जाने !"
"मधु"
"किसी को घायल करने में मुझे क्या चैन मिल सकता है ?"
"मैं क्या जानू ?"
"तो सुन लो ! जितनी पीड़ा उसकी तड़प में होती है उससे ज्यादा पीड़ा स्वयं मुझे व्याकुल कर जाती है।"
"तो दोबारा छोड़ दीजिये शिकार खेलना ।"
"नहीं"'यह मेरे बस की बात नहीं।"
वासुदेव चाय पीकर चुप हो गया। माधुरी ने ज्यादा वाद-विवाद उचित न समझा और चुपचाप बैठी चाय पीती रही।
वासुदेव चाय पीकर अपने कमरे में चला गया। वह कुछ देर बैठी सोचती रही और दोबारा कपड़े बदलने लगी। वह सोचने लगी''यह तो उनकी प्रकृति है."उसे इतना गम्भीर न होना चाहिये या व्यर्थ वह बुरा मान जायेंगे "उसने अपने अन्तर को टटोला अपने पति से उसे उत्तम प्रेम था। ___
सहसा मन में किसी तरंग ने अंगड़ाई ली और वह वासुदेव के कमरे में पहुँची। वह खड़ा अल्मारी में से कोई किताब टटोल रहा था। माधुरी दबे पांव उसके पीछे जा खड़ी हुई और जब बड़ी देर तक उसने मुड़कर न देखा तो माधुरी ने रुमाल की नोक बनाई और उसके कान को छुआ। * वह एकाएक कैंपकंपा गया और कान को झटककर पीछे मुड़कर माधुरी को देखने लगा। माधुरी अनायास हंसने लगी। -इसे टाइमवह कुछ विशेष सुन्दर दिखाई दे रही थी। हल्के गुलाबी रंग की रेशमी साडी "संवरे हुए केशनिखरा हुआ प्राभामय मुख.
वासुदेव को वह दिन याद आ गया जब वह पहले-पहल दुल्हिन बन के उसके घर आई थी "तब भी वह इतनी ही प्यारी थी। उसने मुस्कराते हुए सिर से पांव तक निहारा और हाथ में पकड़ी किताब बंद करके अल्मारी में रखने लगा।
___ माधुरी ने हाथ में पकड़ा हुमा गुलाब का फूल उसकी ओर बढ़ाया और उसे जूड़े में लगाने का संकेत किया । वासुदेव ने फूल टाँकने को उसके कंधे पर हाथ रखा और दूसरे हाथसे उस का मुंह पलटा । दोबारा उसके जूड़े में फूल लगा दिया। माधुरी ने मुस्कराकर अपना मुह उसके वक्ष पर रख दिया और बोली
"चलियेगा.?" "कहाँ ?" "झील के किनारे "तनिक घूमने को।" "अब तो अंधेरा हो रहा है।" "तो क्या हुअा, आकाश पर चांद भी तो है."
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वासुदेव निरुत्तर हो गया। दोनों छिटकी हुई दूधिया चाँदनी में, झील के किनारे टहल रहे थे । झील का स्थिर जल चाँदनी में शीशे की चादर प्रतीत हो रहा था। उनके जिंदगी के कितने दिन और कितनी रातेंइसे झील के संग सम्बन्धित थीं, लेकिन उसे ऐसा प्रतीत होता था मानों वह टाइमस्वप्न में ही व्यतीत हो गया हो । वह अाज भी वैसी ही अतृप्त थी, जैसी वह प्रथम दिन थी। उसके मन में आज भी आकांक्षाओं की ज्वाला धधक रही थी और वह निरन्तर अपनी भावनाओं का गला घोंट रही थी।
“यह झील'''यह छोटा सा मकान''यह हरा-भरा गाँव नगर की हलचल से दूरएक एकान्त स्वर्ग का कोना''यह सभी कुछ होते हुए भी वहएक नरक की अग्नि में जल रही है। मन की बात मुह तक नहीं ला सकती। उसने अपना सर्वस्व पति पर न्योछावर कर दिया, औरएक वह है कि उसकी भावनाओं से अनभिज्ञ, प्रेम से परे, जाने किस संसार । में विचरता है, क्यों क्यों ?"
चलते-चलते वहएक गये और हरी-हरी दूब पर कुछ देर के लिये बैठ गये । यू तो चे पति-पत्नी थे, लेकिन अपरिचित से ! दोनोंएक दूसरे से कुछ कहना चाहते पर कह न पाते । बैठे रहे, बैठे रहे और जब बहत देर तक माधुरी के मुख से कोई शब्द न निकला तो वासुदेव ने मौन तोड़ा
"आज इतनी चुप क्यों हो?" "मेश बोलना आप को बढ़िया जो नहीं लगता." "ऐसी बात तो नहीं । जो मन में हो उसे कह देना ही भला!" "तोएक बात पूछ ?" "पूछो।" "हमारे व्याह को कितना टाइमहो गया ?" "लगभग तीन वर्ष ।"
"किन्तु, मुझे तो यू लगता है, मानो मैं माही ही नहीं गई।" "माधुरी.!" वासुदेव जैसे भाग गया हो कि वह किस प्राशय से
"कहा न मैंने, प्रेमएक ऐसी भावना है, जिस में प्रप्ति का होना, उसकी दीर्घ आयु का प्रतीक है।" . "किन्तु, दुनिया बालों का मुह कैसे बंद किया जा सकता है ?
"क्या कहते हैं वह ?" "यह कि तुम्हारे पति तुमसे प्रेम नहीं करते।" वासुदेव बेचैन होकर उठ बैठा ।
"लोग ये भी कहते हैं कि तुम निःसन्तान ही रहोगी,"-माधुरी ने अपनी बात चालू रखी।
वासुदेव ने तीखी दृष्टि से उसे देखा।
"एक ने तो इधर तक कह दिया.","--माधुरी ने कुछ रुककर कहा । इतना कहते-कहते उसकी आवाज कुछ रुंध गई।
"T.?" माथे पर से पसीना पोछते हुए वासुदेव ने पूछा।
कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारे पति","-कहते-कहते उसके होंट थरथराने लगे मानो वह अपने पति का कोई भयानक रहस्य प्रगट करने वाली हो। वासुदेव चौकस होकर उसकी आवाज को कम्पन का भान करने लगा। माधुरी ने रुकते-रुकते बात पूरी की, "तुम्हारे पति किसी और से पार करते हों।"
माधुरी ने वाक्य पूरा किया और वासुदेव के प्राण लौट आये। घबराहट दूर हुई। सिर को हाथ से दबाते हुए ग्रांखें नीचे किये बोला, "तुम क्या सोचती हो?"
"कभी-कभी इसे सच समझने लगती हूँ।"
"नदी किनारे लाकर आपने अतृप्त मारना चाहा । 'प्रोह !"वासुदेव ने अखें उपरि उठाई।
"वरना ये उपेक्षा ये मौन "सुना है आपने ये विवाह भी घर बालों के विवश करने पर किया ।"
यह तुमसे किसने कहा?" वासुदेव ने पाश्चर्य प्रगट करते हुए
____ "आपकी बड़ी बहन ने कहती थीं कि कदाचित् यही कारण मुझसे
आपके रूखे बर्ताव का है।"
"माधुरी! कुछ ऐसी विवशताएँ भी होती हैं, जिन्हें जबान तक नहीं लाया जा सकता।"
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